मनीष तिवारी ने अपनी किताब ’10 फ्लैशप्वाइंट्स 20 इयर्स : नेशनल सिक्यूरिटी सिचुएशन्स दैट इंपैक्टेड इंडिया’ में एक दिलचस्प थीम प्रस्तुत की है. यह थीम लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसदीय निगरानी से ताल्लुक रखती है. इसका अर्थ यह हुआ कि मसला कार्यपालिका के ऊपर विधायिका के वर्चस्व का है, जिसे भारत में निर्णय की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में एक मूल्य के रूप में दर्ज होना चाहिए. कार्यपालिका पर संसदीय निगरानी कमजोर पड़ने का नतीजा यह होगा कि देश के लोकतंत्र की नींव कमजोर पड़ेगी और वह तानाशाही की ओर झुक सकती है.
संसदीय निगरानी के मूल्य की इस तरह रक्षा की जानी चाहिए कि कार्यपालिका को अपना काम करने में बाधा का सामना न करना पड़े और उसकी कार्य क्षमता कमजोर न पड़े. निगरानी की व्यवस्था भारत के संवैधानिक ढांचे में ही दर्ज है, जिससे संसद और कार्यपालिका, दोनों को अपने अधिकार हासिल होते हैं.
तिवारी 2011 से ही ध्यान दिला रहे हैं कि संसद राष्ट्रीय खुफिया एजेंसियों पर निगरानी रखे, जिसके तहत एक निजी सदस्य विधेयक भी पेश किया गया जिसे ज्यादा राजनीतिक समर्थन नहीं मिला. जब पेगासस कांड सामने आया था तब एक और विधेयक पेश किया गया था जिसका मकसद खुफिया एजेंसियों के कामकाज का नियमन करना था. इसका विशेष ज़ोर आवश्यक खुफियागिरी पर था. इसमें बेहतर नियंत्रण और निगरानी के लिए ट्राइब्युनल और कमिटियां बनाने की मांग की गई थी. दोनों विधेयक एक ही थीम से उपजे और उन्हें विधायिका से मंजूरी मिलने की कोई संभावना नहीं है.
गौरतलब है कि तिवारी ने अपनी किताब में सुझाव दिया है कि बड़े रक्षा सुधारों के तहत सेना में थिएटर कमांड ढांचा तैयार किए जाने की प्रक्रिया की स्वतंत्र निगरानी के लिए संसद की एक विशेष स्थायी समिति का गठन किया जाए, जिसमें सैन्य मामलों के सलाहकार और दूसरे पेशेवरों को शामिल किया जाए. याद रहे कि थिएटर कमांड सिस्टम लागू करने का फैसला पूरी तरह कार्यपालिका का है. इस फैसले की प्रशंसा की जाएगी और यह फैसला जरूरी भी था. लेकिन जैसा कि सुझाव दिया गया है, संसदीय समिति प्रस्तावित परिवर्तन को आसान बनाने में किस तरह सहायक हो सकती है? पूरी संभावना है कि रक्षा मंत्रालय इस प्रस्ताव को अपने कामकाज में अनावश्यक दखलंदाजी मान सकता है. लेकिन संसद अगर मानती है कि ऐसे परिवर्तन का राष्ट्रीय सुरक्षा पर बड़ा असर पड़ेगा, तब उसे अधिकार होगा कि वह निगरानी की मांग करे. लेकिन संसद और कार्यपालिका के बीच फिलहाल जो सत्ता असंतुलन है उसके कारण यह निगरानी कार्यपालिका के हिसाब से ही हो पाएगी.
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अपारदर्शिता से लोकतंत्र को खतरा
गोपनीयता और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सांसदों को सूचनाएं देने से मना करना आम चलन है. उत्तरी सीमा पर चीनी सेना की कार्रवाइयों से जुड़े ज़्यादातर सवाल अनुत्तरित रहे हैं. अगर मामला गोपनीय रखने वाला था तो विपक्षी दलों के नेताओं को वर्गीकृत सूचनाएं देने से सरकार को कोई नहीं रोकता. सांसदों को ऐसी सूचनाओं से वंचित रखना सत्ता का अलोकतांत्रिक केंद्रीकरण ही माना जाएगा. यह तानाशाही का ही लक्षण है.
सूचनाओं से इस तरह वंचित रखना हमारे राजनीतिक लोकतंत्र को कमजोर करता है, जो कि भारत की राष्ट्रीय शक्ति के चार स्तंभों में से एक है. दूसरे स्तंभ हैं– घरेलू आर्थिक वृद्धि, सामाजिक एकता और व्यापक रूप से उदार संवैधानिक व्यवस्था. इन स्तंभों को ताकत देना उच्च स्तर की रणनीतिक अनिवार्यता है. व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो कुछ समय से पारदर्शिता में निरंतर ह्रास होता गया है जबकि यह मजबूत लोकतंत्र का जीवनदायी रक्त है. संसद की स्थायी समितियां कार्यपालिका पर निगरानी रखने और उसे रास्ते पर लाने की अपनी क्षमता निरंतर खोती दिख रही हैं. उनकी सिफ़ारिशों पर संबंधित मंत्रालय अक्सर कोई काम नहीं करते. कार्यपालिका अधिकतर वे काम करती हैं जिसमें उसे संकीर्ण लाभ दिखता है.
सक्षम राजनीतिक विपक्ष का अभाव कार्यपालिका की ताकत में इजाफा कर देता है और गलत कामों की गुंजाइश बढ़ा देता है. संवैधानिक नियंत्रण एवं संतुलन की व्यवस्था नाकाम हो जाती है. नागरिकों के कल्याण का दायित्व अंततः संसद का ही है. कार्यपालिका को संसद के प्रति जवाबदेह होना ही है. कार्यपालिका जब संसद से उठने वाले ‘शोर’ की फिक्र करना छोड़ देती है तब कुछ लोगों की हाथ में सिकुड़ती ताकत से उपजा अहंकार स्वतंत्रता को हड़प लेता है, जो कि भारत के लोकतंत्र की अहम चीज है.
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दुनियाभर में उभरती तानाशाही
वैश्विक अनिश्चितता और उसे जुड़े खतरों के कारण दुनियाभर में शासन की तानाशाही शैली ज़ोर पकड़ती जा रही है. इसमें सत्ता चंद व्यक्तियों के हाथों में केंद्रित हो जाती है. यह भारतीय गणतंत्र और उसके संवैधानिक मूल्यों के लिए निश्चित ही एक अभिशाप है. दुनियाभर में ताकतवर नेताओं की मांग हो रही है. लेकिन भारत जैसे लोकतंत्र में ताकतवर नेता का मतलब है कार्यपालिका और संसद के बीच सत्ता संतुलन में विकृति पैदा होना. जब कार्यपालिका संसद से उसकी आवाज़ छीन लेती है तब नागरिक भी अपनी आवाज़ खो देते हैं. हमारे संविधान की प्रस्तावना कहती है— ‘हम, भारत के लोग… इस संविधान को अपनाते हैं, लागू करते हैं, और इसे खुद को समर्पित करते हैं.’ इसका अर्थ है कि सत्ता अंततः जनता के हाथों में निहित है.
संसद और कार्यपालिका के बीच असंतुलन के कारण भारत के नागरिक न केवल अपनी आवाज़ खो रहे हैं बल्कि न्याय व्यवस्था में व्याप्त विकृतियों के कारण वे न्याय से भी वंचित होते जा रहे हैं. संसद और कार्यपालिका को यह अच्छी तरह मालूम है फिर भी भारतीय राज्य-व्यवस्था के ये अंग इस अहम समस्या को निपटा नहीं सके हैं. बल्कि यह समस्या बद से बदतर होती गई है.
भारत के लोकतांत्रिक ढांचे के सबसे अहम अंग, संसदीय व्यवस्था का कमजोर होना एक ऐसा खतरा है जो वैश्विक भू-राजनीतिक टकरावों के कारण और मजबूत होता जा रहा है. मजबूत नेताओं की तो हमेशा जरूरत रहती है लेकिन ऐसे नेताओं को अपनी ताकत लोकतांत्रिक मूल्यों से हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए. वरना सत्ता के मद में व्यक्ति और कुलीन तंत्र देश के विनाश का कारण बन सकते हैं. यह तो स्पष्ट है कि हमारी केंद्रीय कार्यपालिका के हाथों में सत्ता का केंद्रीकरण हमारे संवैधानिक मूल्यों के तिरस्कार का ही प्रमाण है.
(लेफ्टिनेंट जनरल (रिटा.) डॉ. प्रकाश मेनन बेंगलुरु स्थित तक्षशिला संस्थान के स्ट्रैटजिक स्टडीज प्रोग्राम के डायरेक्टर हैं. वह राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के सैन्य सलाहकार भी रहे हैं. वह @prakashmenon51 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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