राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री को ‘सरेंडर मोदी’ कहा है. अभूतपूर्व रूप से सभी पांच प्रमुख राष्ट्रीय अंग्रेजी अखबारों ने गलवान संकट से निपटने के तरीके को लेकर पीएमओ की आलोचना की. छह साल में पहली बार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एक ऐसे मुद्दे पर रक्षात्मक मुद्रा में है, जोकि उसकी राजनीतिक अपील के केंद्र में रहा है- यानि राष्ट्रीय सुरक्षा.
फिर भी, चूंकि भाजपा का राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर इतना मज़बूत नियंत्रण रहा है कि इस बात की कम ही संभावना है कि उसे चीन से निपटने में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा की गई भूलों का गंभीर राजनीतिक खामियाजा भुगतना पड़े. वैसी स्थिति में किसी पार्टी का मुद्दा विशेष पर कब्ज़ा माना जाता है. जब वह एक लंबे समय से उस मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करने और उससे संबंधित सामर्थ्य के लिए जानी जाती हो.
2014 के लोकनीति सर्वे में 31 फीसदी लोगों ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर भाजपा को सर्वाधिक विश्वसनीय दल माना था, वहीं, इस विषय में कांग्रेस को मात्र 19 प्रतिशत लोगों ने विश्वसनीय माना था. विभिन्न सर्वेक्षणों के अनुसार 2019 आते-आते इस मुद्दे पर दोनों पार्टियों के बीच का अंतर और भी बढ़ गया था.
राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर भाजपा के स्वामित्व के दौर की शुरुआत को निश्चित रूप से 1998 के पोखरण-2 परमाणु परीक्षणों और 1999 के कारगिल युद्ध से जोड़ा जा सकता है. इसका चरम प्रभाव बालाकोट पर हमले के बाद के दिनों में दिखा जब राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे को मिली प्रमुखता ने 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को एक शानदार जीत दिलाने में योगदान दिया.
भाजपा की राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी प्रतिष्ठा दीर्घावधि में सुस्थापित हुई है और इसलिए यह आसानी से छिन नहीं सकती. बशर्ते, राजनीति विज्ञानी जेन ग्रीन और विल जेनिंग्स के शब्दों में, ‘इतना बड़ी और प्रतीकात्मक नीतिगत विफलता नहीं हुई हो’ जो कि मतदाताओं को ‘अपने दीर्घकालिक दृष्टिकोणों के पुनर्मूल्यांकन’ के लिए बाध्य कर दे, जैसे इराक़ युद्ध की भयंकर त्रासदी के बाद अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी ने कुछ ही समय के लिए सही, राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर लंबे समय से मौजूद अपना एकाधिकार गंवा दिया था.
मोदी द्वारा चीनी चुनौती से निपटने के तरीके को मुख्यधारा के जनमत में अधिक से अधिक एक झटके के तौर पर देखा जाता है. इसे उतनी बड़ी नाकामी के रूप में नहीं लिया जा रहा है कि बुनियादी स्तर पर पुनर्मूल्यांकन की नौबत आती हो. मीडिया के प्रबंधन में भाजपा की निपुणता के कारण, राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर जनता द्वारा अभी भी दूसरों के मुकाबले मोदी और उनकी पार्टी पर अधिक भरोसा किए जाने की संभावना है.
पहले कांग्रेस, फिर भाजपा
सवाल ये उठता है कि भारत के लोग राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर भाजपा में भरोसा क्यों जताते हैं?
दुनिया भर में राष्ट्रीय सुरक्षा पर प्रतिष्ठा किसी वास्तविक नीति के परिणामों के आधार पर नहीं बनती है. बल्कि इसका आधार ये धारणा होती है कि अहम चुनौतियों पर कौन सी पार्टी ‘सख्त’ या ‘नरम’ है. दूसरे शब्दों में, किसी पार्टी को राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे को अपनी मिल्कियत बनाने के लिए इस मुद्दे पर कुछ कर के दिखाने की आवश्यकता नहीं है. जैसा कि पैट्रिक ईगन ने अपनी पुस्तक ‘पार्टिज़न प्रायॉरिटीज: हाउ इश्यू ओनरशिप ड्राइव्स एंड डिस्टॉर्ट्स अमेरिकन पॉलिटिक्स’ में कहा है, ‘पार्टी के सत्ता में होने पर उसके स्वामित्व वाले मुद्दे में महसूस किए जाने लायक कोई सुधार नहीं होता है.’
राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर भाजपा का कब्ज़ा इसलिए है, क्योंकि यह जनता की कल्पना में तीन सबसे बड़े खतरों – पाकिस्तान, इस्लामी चरमपंथ और माओवाद पर सबसे ‘सख्त’/’कठोर’/’मज़बूत’ पार्टी के रूप में देखी जाती है.
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2014 के प्यू सर्वे में भारत के सबसे बड़े खतरों के बारे में पूछे जाने पर 90 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने पाकिस्तान का, 85 प्रतिशत ने नक्सलियों का और 80 प्रतिशत ने लश्कर-ए-तैयबा का उल्लेख किया था. ज्यादातर पाकिस्तान और आतंकवाद पर अपने सख्त बयानों और कभी-कभार नाटकीय नीतियों के कारण भाजपा ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर एकाधिकार कर लिया है. गौरतलब है कि पाकिस्तान और आतंकवाद के मुद्दे स्वाभाविक रूप से भाजपा के हिंदुत्व और मुस्लिम-विरोधी पूर्वाग्रह की उसकी घरेलू राजनीति से भी मेल खाते हैं.
इससे पहले इंदिरा गांधी के समय तक और एक हद तक राजीव गांधी के समय में भी कांग्रेस ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर सहजता से अधिकार कर रखा था. इंदिरा गांधी ने 1971 में पाकिस्तान को करारी हार का स्वाद चखाने में भारत का नेतृत्व किया था, जिसके लिए अटल बिहारी वाजपेयी ने उनका ‘दुर्गा’ के रूप में अभिनंदन किया था और खालिस्तान आंदोलन के खिलाफ अपने अभियान में उन्होंने एक बहुसंख्यकवादी रवैया अपनाया था. राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर अपनी प्रतिष्ठा के कारण वह नेहरू-गांधी परिवार की एकमात्र सदस्य हैं, जिन्हें भाजपा सुरक्षा के मुद्दे पर निशाना बनाने से बचती है. यहां तक कि जब आपातकाल की भी बात आती है, तो मुख्य खलनायक कांग्रेस पार्टी को बनाया जाता है.
राष्ट्रीय सुरक्षा पर भाजपा का स्वामित्व
लेकिन, 1990 के दशक के मध्य से भाजपा को राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर सबसे सख्त पार्टी के रूप में देखा जाने लगा. ऐसा निम्नलिखित पांच कारणों से हुआ:
सबसे पहले, भाजपा ने खुद को ऐसी पार्टी के रूप में पेश किया, जोकि किसी वोट बैंक से नहीं बंधी है, जबकि कांग्रेस और अन्य दलों को भारतीय मुसलमानों का ‘तुष्टिकरण’ करने वालों के रूप में प्रस्तुत किया गया. भाजपा ने इस द्विआधार या बाइनरी का इस्तेमाल राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर मतदाताओं के बीच एक जनधारणा विकसित करने में किया. प्रधानमंत्री मोदी के अनुसार राजनीति दो तरह की होती है– वोटभक्ति और देशभक्ति. कांग्रेस का 26/11 के हमले का जवाब नहीं देना वोटभक्ति (मुस्लिम तुष्टिकरण) थी, जबकि पाकिस्तान के बालाकोट पर हमले को देशभक्ति के रूप में पेश किया गया. ये प्रचारित किया गया कि कांग्रेस और अन्य पार्टियां अलगाववाद, आतंकवाद और पाकिस्तान के मुद्दों पर भाजपा के विपरीत नरम रुख रखती हैं क्योंकि उन्हें मुसलमानों के वोट चाहिए.
दूसरे, समझौता नहीं करने और जोखिम उठाने के लिए तैयार रहने की अपनी प्रवृति का संकेत देने वाली नाटकीय नीतियों की मदद से. नरसिम्हा राव और आईके गुजराल ने जहां आर्थिक प्रतिबंधों की आशंका के चलते परमाणु परीक्षणों का फैसला टाल दिया था. वहीं अटल बिहारी वाजपेयी ने सत्ता में आते ही परमाणु परीक्षणों की तैयारी करने के निर्देश दे दिए.
लेकिन उनकी सरकार मात्र 13 दिन ही चली. फिर 1998 में अपने अगले कार्यकाल के शुरुआती हफ्तों में ही वाजपेयी ने भारत के परमाणु शक्ति बनने का ऐलान कर दिया और उन्होंने कहा कि भारत ने जो परमाणु परीक्षण किए हैं उनका
‘सबसे महत्वपूर्ण मतलब’ है उनके ज़रिए ‘भारत को शक्ति हासिल’ होना.
तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने परमाणु परीक्षणों से ठीक पहले चीन को भारत के लिए ‘सबसे बड़ा संभावित खतरा’ करार दिया था, जबकि गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने स्पष्ट किया कि परमाणु परीक्षण पाकिस्तान को दृष्टि में रखकर किए गए थे. परमाणु परीक्षणों के कुछ दिन बाद मीडिया से आडवाणी ने कहा, ‘भारत की परमाणु क्षमता पाकिस्तान से सख्ती से निपटने के देश के संकल्प को दर्शाती है’ और ‘पाकिस्तान की गुप्त तैयारियों के कारण हमें परमाणु निरोधक हासिल करने के लिए बाध्य’ होना पड़ा.
परमाणु परीक्षणों को खूब जनसमर्थन मिला और संघ परिवार ने परीक्षणों की खुशी में देश भर में जुलूस निकाले. परीक्षणों के अगले दिन आयोजित एक रायशुमारी में 91 फीसदी लोगों ने परमाणु परीक्षण किए जाने का समर्थन किया. जबकि 67 प्रतिशत लोगों का मानना था कि भाजपा गठबंधन ‘मज़बूत है और वह उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करेगा.’ एक साल बाद कारगिल युद्ध में मिली जीत ने इस भावना को और भी सुदृढ़ कर दिया.
हमने बहुप्रचारित सर्जिकल स्ट्राइक और अनुच्छेद 370 हटाने, जिसकी दुनिया भर में आलोचना (हालांकि एक हद तक ही) हुई, के मामलों में जोखिम उठाने की इसी प्रवृति को देखा. इन दोनों ही कदमों ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर भाजपा की विश्वसनीयता को बढ़ाने का काम किया. भाजपा की संकल्पना में मुख्य खतरा हमेशा ही पाकिस्तान रहेगा, क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा पर इसका कड़ा रुख अनिवार्यत: और स्पष्टतया इसकी मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह की घरेलू राजनीति से जुड़ा है. मिसाल के तौर पर चीन को लेकर जैसा कि हाल ही में देखा गया है भाजपा की नीति लगभग हूबहू कांग्रेस जैसी ही है.
तीसरा, मानवाधिकारों और राष्ट्रीय सुरक्षा को परस्पर विरोधी लक्ष्यों के रूप में पेश करना और खुद को राष्ट्रीय सुरक्षा से जबकि विरोधियों को मानवाधिकारों से जोड़कर दिखलाना. मोदी ने 2019 के चुनाव अभियान के दौरान आरोप लगाया कि कांग्रेस ने ‘तुष्टिकरण और अपने वोट बैंक को खुश करने की अपनी नीति’ के कारण आतंकवाद निरोधक कानून (पोटा) को समाप्त करते हुए ‘आतंकवाद के आगे घुटने टेक दिए’ हैं.
भाजपा ने 2009 के अपने घोषणापत्र में कहा था कि देश को बारंबार आतंकवादी हमले झेलने पड़े, क्योंकि ‘प्रधानमंत्री आतंकवाद के संदिग्धों के हाल पर चिंतित हो रहे थे.’ सोनिया गांधी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) के वामपंथी सदस्यों को माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखने वालों के रूप में चित्रित करते हुए (मोदी ने 2013 में सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर को ‘माओवादी’ करार दिया था) भाजपा ने कांग्रेस को ‘माओवाद पर नरम’ रुख रखने वाली पार्टी के रूप में पेश किया, जबकि हकीकत में पी चिदंबरम ने माओवादियों के खिलाफ ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ के रूप में एक सख्त अभियान छेड़ा था.
चौथा, भाषा के इस्तेमाल में चतुराई. कतिपय शब्दों और नारों को निरंतर दोहराते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर भाजपा के सख्त रुख की बात लोगों के मन में बिठाना. आडवाणी ने भागकर सीमा पार चले जाने वाले आतंकवादियों का पीछा कर उन्हें खत्म करने की नीति की हिमायत करते हुए ‘हॉट परसूट’ को लोकप्रिय जुमला बना दिया था (हालांकि उस नीति पर कभी अमल नहीं हुआ). यही हाल ‘सेना को खुली छूट’ देने के नारे का था, जो पहली बार भाजपा के 1998 के घोषणा पत्र में इस्तेमाल किया गया था. सही मायने में ये नारा निरर्थक है क्योंकि सेना केवल असैनिक प्रशासन की नीतियों का ही अनुपालन करती है.
केंद्र की यूपीए सरकार पर हमले के लिए भाजपा ने एक और जुमले को लोकप्रिय बनाया था कि ‘वार्ता और आतंक साथ-साथ नहीं चल सकते’, हालांकि वाजपेयी सरकार पाकिस्तान से निरंतर वार्ताएं करती रही थीं और मोदी सरकार के शुरुआती दिनों में भी यही स्थिति थी. एक और उदाहरण ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का है. ऐसी कार्रवाइयां मोदी के प्रधानमंत्री चुने जाने से पहले भी की जाती थीं. लेकिन उनकी सार्वजनिक चर्चा नहीं की जाती थी क्योंकि पूर्व एनएसए शिवशंकर मेनन के शब्दों में, ‘वो घरेलू बहस का विषय नहीं थीं.’ लेकिन मोदी सरकार के तहत सर्जिकल स्ट्राइक ‘नए भारत’ के संकल्प के उदाहरण के तौर पर घर-घर में बोले जाने वाला जुमला बन गया.
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पांचवां, राजनीति को सुरक्षा से जोड़कर जहां हर मुद्दा राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बन जाता है. 1990 के दशक की शुरुआत से भाजपा ने बांग्लादेशी अप्रवासियों को राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बना दिया. वो प्रवृति आज भी जारी है जहां अप्रवासियों (केवल मुस्लिम) को सुरक्षा जोखिम के रूप में देखा जाता है, जिनकी पहचान की जानी चाहिए तथा जिन्हें सीएए और एनआरसी के सहारे राष्ट्रीय समुदाय से अलग कर दिया जाना चाहिए.
बात धारणाओं की है
वैसे वस्तुनिष्ठता के साथ देखा जाए तो भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा की स्थिति ठीक नहीं है. कश्मीर में आतंकवाद में वृद्धि देखी जा रही है. हमारे पड़ोसी या तो हमसे दूर हो गए हैं या खुली शत्रुता जाहिर करने लगे हैं और नेपाल जैसा पड़ोसी तक टकराव की मुद्रा में है. प्रधानमंत्री मोदी ने चीन के हाथों मिले अपमान को चुपचाप सहन कर लिया है.
लेकिन, राजनीति धारणाओं का खेल है. भाजपा ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में अपने सामर्थ्य को लेकर एक मज़बूत जनधारणा तैयार करने में दशकों लगाए हैं और यह इतनी जल्दी समाप्त नहीं होगी. इतिहास के व्यापक पैमाने पर चीन से जुड़ा मौजूदा प्रकरण- यदि इसका विस्तार नहीं होता है. शायद 2001 के आगरा शिखर सम्मेलन की तरह याद किया जाए, यानि एक छोटा सा झटका जिसकी सत्तारूढ़ भाजपा के लिए तात्कालिक शर्मिंदगी से आगे व्यापक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में अधिक प्रासंगिकता नहीं है.
(आसिम अली और अंकिता बर्थवाल नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में रिसर्च एसोसिएट हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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