पचास साल पहले, 1973 में हुए यों किप्पुर युद्ध के बाद इज़रायल ने खुफिया समुदाय द्वारा प्रस्तुत आकलनों और विकल्पों को चुनौती देने के लिए एक ‘रेड टीम’ बनाई. इसकी जरूरत इसलिए आ पड़ी थी कि 1973 के सितंबर के आखिरी दिनों से लेकर अक्टूबर के शुरू में जबकि अरब फौजों की बड़े पैमाने पर कूच करने की खबरें थीं लेकिन उन्हें हल्का-फुल्का बताकर खारिज कर दिया गया था. इसका नतीजा यह हुआ कि अरब फौजों ने उस साल 6 अक्टूबर को जब कई मोर्चों पर अचानक हमला कर दिया तो इज़रायल सकते में पड़ गया.
खुफिया तंत्र की ऐसी विफलता को रोकने के लिए ‘इप्चा मिस्तब्रा’ नामक संगठन बनाया गया. इसका मोटे तौर पर अर्थ है – ‘सच इसके विपरीत है’. यानी सच्चाई के कई रूप हो सकते हैं- सच, जो ऊपर से दिखता है, और जो वास्तव में है. यह बहस को और तेज करने के लिए उलटी बातें करने जैसा है.
इस साल 7 अक्टूबर को हमास द्वारा किए गए हमलों से ऐसा लगता है कि पिछले 50 वर्षों में इज़रायल ने अतीत में मिले सबक को भुला दिया है. हमास का हमला निंदनीय है, लेकिन हकीकत यह है कि इतिहास खुद को दोहराता है, खासकर तब जबकि पहले जो सबक मिला उसे भुला दिया गया.
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टेक्नोलॉजी मनुष्य की जगह नहीं ले सकती
दुश्मन पड़ोसियों से खतरों का सामना कर रहे देश अपनी सुरक्षा पंक्ति को मजबूत करने के उपाय करते हैं, चाहे वह सीमाओं पर बाड़ लगाना हो, या दीवार खड़ी करना या आपस में जुड़े मजबूत ठिकाने हों, जैसा कि 1930 के दशक में फ्रांस ने नाजी जर्मनी से बचाव के लिए ‘मैगीनोट लाइन’ बनाई थी. लेकिन आर. प्रसन्नन ने ‘द वीक’ के अपने संपादकीय ‘आइलेस अक्रॉस गाज़ा’ में लिखा है कि ऐसी सभी सुरक्षा ‘लाइनों’ को प्रायः भेद दिया गया है. यह काम सहस्राब्दी में किया जाता रहा है क्योंकि “गुंबद और बाड़ें सुरक्षा का भ्रामक एहसास कराती है.”
इज़रायल की कयामती विफलता के कारणों की समीक्षा के लिए कई अध्ययन तो किए ही जाएंगे, जो चीज सबसे ज्यादा उभरकर सामने आएगी वह है मानवी बुद्धि (‘ह्यूमन इंटेलिजेंस’ या ‘हयूमिंट’) की जगह टेक्नोलॉजी पर ज़रूरत से ज्यादा निर्भरता. हमास के हमले ने न केवल भौतिक बाड़ों को बल्कि टेक्नोलॉजी वाली ‘मैगीनोट लाइन’ को भी तोड़ा, जो इम्तहान में खरी नहीं उतरी.
टेक्नोलॉजी युद्ध के मोर्चे पर हमेशा आगे रही है, खासकर तब जब यह जानने की ज़रूरत आ पड़ती है कि सीमा पार क्या चल रहा है. शत्रु की ताकत, तैनाती और इरादों का पता लगाने के लिए किसी ऊंचे पेड़ या पानी की टंकी पर चढ़ने से लेकर बैलून और विमान तक का सहारा लिया जाता रहा है.
जहां तक ताकत और तैनाती की बात है, उनका आकलन तो सीधा और आसान है, लेकिन इरादे की बात जब आती है तब इसमें कई कारणों से बदलाव आता रह सकता है. पहले दो के डाटा इकट्ठा करने तथा उनका विश्लेषण करने के लिए लगभग पूरी तरह टेक्नोलॉजी पर निर्भर रहा जा सकता है, लेकिन इरादों का मामला व्यक्ति या संगठन के ही दायरे में रहेगा. टेक्नोलॉजी सक्षम विकल्प देने में मदद कर सकती है लेकिन इसमें मनुष्य की जो जरूरत है उसे पूरा नहीं कर सकती. इरादों का पता लगाने के लिए ‘हयूमिंट’, शत्रु खेमे में तैनात खुफिया आंखें और कान अपरिहार्य हैं.
इसके अलावा, टेक्नोलॉजी खुद धोखा खा सकती है या उसमें सेंध लगाई जा सकती है. आखिर मनुष्य के दिमाग ने ही इन हाइ-टेक सिस्टम्स का विकास किया है. वही दिमाग उन्हें नाकाम करने के लिए उनकी काट तैयार कर सकता है. इसलिए, टेक्नोलॉजी पर अति निर्भरता खतरों से भरी है. कभी-कभी हाइ-टेक समाधानों को लो-टेक समाधान नाकाम कर सकते हैं. उदाहरण के लिए, साइबरस्पेस में डाटा की बाढ़ पैदा करके असली सूचना को छिपाया जा सकता है.
छिटपुट, असंबद्ध सूचनाओं से एक खुफिया तस्वीर बनाने के लिए सहज बुद्धि चाहिए. सरकार में या नेतृत्व में बदलाव भी इरादे को काफी प्रभावित कर सकता है. असली बात यह है कि टेक्नोलॉजी में प्रगति, कृत्रिम खुफियागीरी (एआइ) और ‘मशीन लर्निंग’ के बावजूद इस दायरे में मनुष्य की भूमिका प्रमुख बनी रहेगी.
अच्छी खुफियागिरी महत्वपूर्ण है
भारत ने पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ लगी अपनी सीमाओं- अंतरराष्ट्रीय सीमारेखा (आइबी) और नियंत्रण रेखा (एलसी)- पर लगभग पूरी बाड़ लगा दी है. दोहरी बाड़ और उनके बीच कुंडली के रूप में बिछाया गया कन्सेर्टिना तार जबरदस्त अवरोध है. आइबी के पूरे हिस्से पर रोशनी लगा दी गई है जिसे विमान में उड़ते हुए भी देखा जा सकता है.
एलसी पर घुसपैठ रोकने वाले अवरोध (एआइओएस) के साथ सुरक्षा के कुछ और इंतजाम जुड़े हैं. दूसरे अवरोधो की तरह यह भी एक बाधा है. पाकिस्तान के समर्थन से तस्कर और दूसरे राष्ट्र विरोधी तत्व अक्सर खासकर जम्मू-कश्मीर तथा पंजाब में आइबी सीमा पर सुरंग खोद कर घुसपैठ की कोशिश करते हैं. नशीले पदार्थ, हथियार, गोला-बारूद आदि गिराने के लिए ड्रोन के इस्तेमाल ने सीमा पर बाड़ों को काफी निष्प्रभावी बना दिया है. इसलिए बाड़ अब ज्यादा मजबूत और समन्वित सीधी कार्रवाई के मामले में अवरोधक का काम करती है.
हमारा सौभाग्य है कि सीमा पर पूरी निगरानी रखी जाती है और अधिकतर हिस्से पर फौजी गश्त होती रहती है. टेक्नोलॉजी का लाभ तो मिलता ही है, जमीन पर बूटों की भूमिका की अनदेखी नहीं की जा रही है. यह खासकर पाकिस्तान से लगी एलसी के लिए लागू है, जहां घुसपैठ की लगातार कोशिश होती रहती है.
इन ज़्यादातर कोशिशों को सीमा पर ही सक्रियता के साथ नाकाम तो किया जाता है, लेकिन यह मान लेना भूल ही होगी कि घुसपैठ पूरी तरह बंद हो गई है. आतंकवादी अपने हिसाब से समय और स्थान चुन कर चौंकाते रहते हैं. दूसरी ओर, सुरक्षा बलों को सीमा पर ही नहीं, अंदरूनी इलाके की सुरक्षा भी करनी पड़ती है इसलिए वे दबाव में रहते हैं. इसलिए, आतंकवादी हमलों को नाकाम करने की कुंजी सीमा के दोनों ओर ‘हयूमिंट’ पर आधारित अच्छा खुफिया नेटवर्क ही है.
भारत को चाहिए अपना ‘इप्चा मिस्टाब्रारा’
लेकिन सावधानी जरूरी है. मल्टी-एजेंसी सेंटर (एमएसी) को कई बार अलग-अलग एजेंसियों से कुछ सूचनाएं मिलती हैं, जो उन्हें विश्वसनीय जैसा बनाती हैं. लेकिन वह सूचना कई एजेंसियों को एक ही स्रोत से उपलब्ध कराई गई हो सकती है. खुफिया एजेंसियां अपने स्रोतों का खुलासा नहीं करतीं, इसलिए गलत आकलन भी हो सकता है.
इसी तरह, एक एजेंसी द्वारा दी गई कोई अहम सूचना दूसरों तक नहीं पहुंचती है, तो उसे आपसी होड के कारण उपेक्षित भी किया जा सकता है. इसलिए सभी स्तर पर करीबी तालमेल जरूरी है, सामरिक से लेकर रणनीतिक स्तर पर, ताकि कोई कोई भी जानकारी उपेक्षित न रहे, चाहे वह कितनी भी महत्वहीन क्यों न हो. कभी-कभी ऐसी ही जानकारी अहम होती है और पहेली के बाकी टुकड़ों को जोड़ने में मदद कर सकती है. शायद अब समय आ गया है कि हम भी मौजूदा ‘एमएसी’ से आगे बढ़कर अपना ‘इप्चा मिस्टाब्रा’, ‘अवास्तविकता’ गठित कर लें. सच्चाई उसी में है.
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं.)
(संपादन: अलमिना खातून)
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