भारत में हर कोई जानता है कि भूमिहीनता और जातीय हैसियत परस्पर संबद्ध हैं. यह पारस्परिक संबंध सदियों पुराना है जब कृषि मजदूर, खास कर दलित और आदिवासी, अत्याचारी जमींदारों और भूपतियों के अधीन भूमि अधिकारों के बगैर अभावों की जिंदगी गुजारते थे.
जातीय उत्पीड़न से छुटकारा पाने के लिए भूमि सुधार सबसे आवश्यक और बुनियादी कदम है, पर स्वतंत्रता के बाद भूमि सुधार कार्यक्रमों को नाम मात्र की ही सफलता मिली है. उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के 66वें सर्वे से पता चलता है कि ग्रामीण अनुसूचित जाति (एससी) समुदाय के केवल 17.1 प्रतिशत के पास ही अपनी जमीन है, जबकि ग्रामीण इलाकों के सामाजिक रूप से उन्नत वर्गों (एसएसी) में से 39.4 प्रतिशत के पास अपनी जमीन थी. इसके विपरीत ग्रामीण एससी परिवारों में से 58.9 प्रतिशत कृषि मजदूर हैं, जबकि ग्रामीण एसएसी के 26.2 प्रतिशत ही कृषि मजदूरी पर आश्रित हैं.
गुजरात में पिछले कुछ वर्षों के दौरान किए कार्यों के कारण मेरा संगठन राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच (आरडीएएम) उचित मालिकों यानि भूमिहीन किसानों (कॉरपोरेट मशीन नहीं) को भूमि हस्तांतरण संभव बनाने में सहायक साबित हुआ है.
गुजरात की विभिन्न सरकारों की कॉरपोरेट समर्थक भावनाएं 1991 के बाद भूमि सुधार और विनियमन की कई योजनाओं का कारण रही हैं, पर उन पर गौर करने से पहले आइए हम एक अजीब क्षेत्रीय असमानता पर विचार करते हैं जो 1940 और 1950 के दशक में गुजरात में भूमि वितरण की विशेषता थी. उस समय वर्तमान गुजरात का संयुक्त काठियावाड़ राज्य (या सौराष्ट्र) वाला हिस्सा एक अलग प्रांत था. 1956 तक इसके मुख्यमंत्री रहे यूएन ढेबर ने संयुक्त सौराष्ट्र के संघर्ष में किसानों की अगुआई की थी. इस आंदोलन का परिणाम यह हुआ कि पाटीदार समुदाय जो उस समय का भूमिहीन शूद्र समुदाय था, आगे चलकर गुजरात के प्रभावशाली वर्गों में से एक बन गया. लेकिन राज्य के अन्य हिस्सों, विशेष रूप से उत्तरी गुजरात में जहां से मैं विधायक हूं, भूमि सुधार नाममात्र के ही हुए.
इस स्थिति को बदलने के लिए गुजरात की विभिन्न सरकारों ने न्यूनतम प्रयास भी नहीं किए हैं. गुजरात कृषि भूमि सीलिंग (संशोधन) विधेयक 2015 की प्रस्तावना के ही शब्दों में कहें तो, उनकी अधिकांश नीतियां ‘तीव्र औद्योगिकीकरण और शहरीकरण’ के उद्देश्यों से प्रेरित रही हैं.
कॉरपोरेट अधिग्रहण की अनुमति
यह प्रक्रिया व्यापार-अनुकूल ‘वाइब्रेंट गुजरात’ की छवि निर्मित करने के लिए नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में और तेज हो गई. उदाहरण के लिए, 2005 में राज्य नियंत्रित 46 लाख हेक्टेयर चारागाह और परती भूमि निजी क्षेत्र को मुख्यत: गैर-कृषि कार्यों के लिए हस्तांतरित कर दी गई. हस्तांतरित भूमि पर खेती किए जाने के भी कुछ उदाहरण हैं, पर ये कॉरपोरेट फार्मिंग थी. इस तरह की कॉरपोरेट खेती की मार किसानों पर पड़ती है और व्यवस्थित रूप से उन्हें उनकी भूमि और कृषि के पेशे से पूरी तरह बेदखल कर दिया जाता है. इस वर्ष के आरंभ में पेप्सिको इंडिया द्वारा नौ किसानों पर मुकदमे चलाए जाने के मामले को इसके सबूत के रूप में देखा जा सकता है. कॉरपोरेट अधिग्रहणों का बुरा प्रभाव न केवल किसानों पर, बल्कि अकुशल मजदूरों को रोजगार देने वाले अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ता है.
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सरकार के 2005 के एक प्रस्ताव के तहत उद्योगों की स्थापना या फार्म बनाने के लिए 2,000 एकड़ तक की कृषि योग्य भूमि 20 साल तक के लिए औद्योगिक घरानों को हस्तांतरित की गई थी. इसमें से पहले पांच साल किराया-मुक्त थे और शेष वर्षों के लिए शुल्क महज 40 से 100 रुपये प्रति एकड़ था. इन नए भूमि नियमों के तहत 2014 में गुजरात में 60 विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड) के लिए लगभग 27,125 हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण किया गया था. यह जमीन आदर्श रूप से भूमिहीन कृषि मजदूरों को दी जानी चाहिए थी.
जैसा कि विशेषज्ञों ने स्वीकार किया है गुजरात का कृषि भूमि सीलिंग (संशोधन) कानून 2015 दरअसल भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन (एलएआरआर) कानून 2013 को दरकिनार करने के लिए बनाया गया था. इसका उद्देश्य है 1960 के भूमि सुधारों के बाद बची अधिशेष जमीन को भूमिहीन दलित मजदूरों में वितरित करने के बजाय औद्योगिक घरानों को सौंपना. सरकार के पसंदीदा लाभार्थी कॉरपोरेट पूंजीपति हैं, न कि पिछड़े वर्ग, दलित या आदिवासी समुदाय के लोग.
इन कदमों के कारण आबादी में भूमिहीन दलितों का अनुपात (71 प्रतिशत) काफी बढ़ गया. अपनी सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के कारण उन्हें उस जमीन पर दिहाड़ी मजदूरों के रूप में काम करना पड़ता है जो कि कागज पर उनकी ही हैं. उन्हें ऊंची जाति के हिंदू जमींदारों का दुर्व्यवहार और अत्याचार झेलना पड़ता है. दलितों की पिटाई और घृणा अपराध की घटनाएं अधिकांश भारतीय राज्यों की तुलना में गुजरात के सामाजिक परिदृश्य को अधिक परिलक्षित करती हैं. आरटीआई कार्यकर्ता कौशिक परमार को प्राप्त एक आधिकारिक जानकारी के अनुसार गुजरात में दलितों के खिलाफ अत्याचार की घटनाएं न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में बल्कि अहमदाबाद जैसे शहरों में भी होती हैं. उनकी टिप्पणी बिल्कुल सही है कि गुजरात में ‘सामाजिक समरसता’ का सरकार का दावा बहुत बड़ा झूठ हैं, कोई भी सुसंगत राजनीतिक पर्यवेक्षक इस बात पर सहमति जताएगा.
वर्षों की सामाजिक पराधीनता को खत्म करना
इन जातिवादी दलित विरोधी भावनाओं के प्रति आक्रोश के कारण कई जनांदोलन और संघर्ष हो चुके हैं. राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच की स्थापना भी उना में 2016 में इसी तरह के संघर्ष के बाद इन ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने के उद्देश्य से की गई थी.
दशकों पहले दलितों को आवंटित पर सामंतों के कब्जे में पड़ी जमीन को छुड़ाने के लिए 2016 के बाद से हमने, खास कर कच्छ और बनासकांठा जिलों में, कई संघर्षों का नेतृत्व किया है. हमारे कार्यकर्ता दृढ़संकल्प वाले इन मजदूरों और खेतिहरों की आवाज को बुलंद करने और उनकी जमीन वापस दिलाने के लिए अथक परिश्रम कर रहे हैं. अभी तक हमने दलितों की 3,000 एकड़ से अधिक जमीन छुड़ाई है और कई इलाकों में इन पर खेती भी शुरू की जा चुकी है.
उदाहरण के लिए, कच्छ के रापर इलाके में स्थानीय प्रशासन और पुलिस के सहयोग से 2,500 एकड़ जमीन भूमिहीन मजदूरों, खास कर दलितों को हस्तांतरित की गई है. इसमें से 700 एकड़ पर खेतीबारी शुरू भी हो चुकी है.
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आरडीएएम ने बी आर आंबेडकर की पुण्यतिथि के आयोजन के जरिए 2019 में एक नई मिसाल कायम की है. हमारे दस्तों ने 6 दिसंबर को बोटाद, भावनगर, अमरेली और बनासकांठा में सामंतों के चंगुल से 100 एकड़ जमीन छुड़ाकर उसे भूमिहीन खेतिहरों में वितरित करते हुए वर्षों की सामाजिक पराधीनता को खत्म करने का काम किया. हमारे इस महात्वाकांक्षी अभियान का अगला चरण गणतंत्र दिवस के दिन 26 जनवरी को कार्यान्वित होगा, जब हमारी योजना 26 जिलों में जमीन के उन टुकड़ों पर कब्जा करने की है जिनका भूमिहीन मजदूरों में वितरण महज कागजों पर किया गया है.
मेरा दृढ़ विश्वास है कि आंबेडकरवादियों के रूप में हमें बाबा साहेब की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए कड़ा परिश्रम करना होगा ताकि हम जाति प्रथा के विनाश और अंतरजातीय सद्भाव की उनकी कल्पना को सच कर सकें और जमीन की लड़ाई के माध्यम से समानता के सपने को साकार कर सकें.
(लेखक गुजरात के वडगाम विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
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