पिछले हफ्ते हजारों की संख्या में दलितों ने दिल्ली के रामलीला मैदान में प्रदर्शन किया और दक्षिण दिल्ली के तुगलकाबाद में रविदास आश्रम या गुरुघर की तरफ मार्च किया. दिल्ली में इस स्तर के प्रदर्शन कम होते हैं. इसमें कितने लोग आए होंगे, इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि रामलीला मैदान और यहां तक पहुंचने के रास्ते पर दिल्ली पुलिस ने 5,000 से ज्यादा जवान तैनात किए थे. दक्षिणी दिल्ली का बंदोबस्त इससे अलग था. तुगलकाबाद में मंदिर के पास पुलिस और प्रदर्शनकारियों में हिंसक झड़पें भी हुईं, जिसमें कई लोग जख्मी हुए और लगभग सौ लोग हिरासत में ले लिए गए.
ये लोग तुगलकाबाद में बने रविदास आश्रम, जिसके बारे में दावा है कि ये 500 साल से भी पुराना है, को तोड़े जाने का विरोध कर रहे थे. इस आश्रम को केंद्र सरकार की एजेंसी- दिल्ली विकास प्राधिकरण यानी डीडीए ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 10 अगस्त, 2019 को तोड़ दिया था.
आम तौर पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को समाज द्वारा मान लिए जाने की परंपरा है और किसी भी लोकतंत्र में यही सही तरीका भी है. लेकिन हम ये देख रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट के कम से कम तीन ताजा फैसले ऐसे हैं, जिसके बाद दलितों ने बड़े पैमाने पर विरोध किया और दो मामलों – एससी एसटी एक्ट और यूनिवर्सिटी रोस्टर – में तो आखिरकार सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निरस्त करने के लिए संसद से कानून पास करना पड़ा.
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आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि देश की सबसे बड़ी अदालत के फैसलों को लेकर देश के सबसे वंचित समुदाय बार-बार सड़कों पर आ रहा है? इस विषय पर चर्चा करने से पहले संक्षेप में जान लेते हैं कि रविदास आश्रम मामले में विवाद क्यों है.
डीडीए और रविदास गुरुघर का विवाद
दिल्ली में जमीन का मामला केंद्र सरकार की एजेंसी डीडीए के हाथ में है. डीडीए ने रविदास मंदिर वाली जगह को जंगल की जमीन माना और उस पर हुए निर्माण को अतिक्रमण करार देते हुए जमीन खाली कराने की प्रक्रिया शुरू की. इसके खिलाफ गुरु रविदास जयंती समारोह समिति अदालत में चली गई. निचली अदालत और हाई कोर्ट का फैसला डीडीए के पक्ष में आया. समिति ने हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) दाखिल की जिस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2019 में आदेश दिया कि वह हाई कोर्ट के फैसले में हस्तक्षेप नहीं करेगी. लेकिन साथ ही ये भी कह दिया कि ‘उक्त जगह को दो महीने में खाली करा दिया जाए.’ दो महीने में जब वह जगह खाली नहीं हुई तो सुप्रीम कोर्ट ने 9 अगस्त, 2019 को वहां मौजूद ढांचे को गिरा देने का आदेश दिया. डीडीए ने अगले ही दिन गुरु रविदास गुरुघर को गिरा दिया.
यह बात गौर करने लायक है कि हाई कोर्ट के आदेश में गुरु रविदास समिति को कुछ रियायतें दी गई थीं. मिसाल के तौर पर कोर्ट ने कहा था कि वहां मौजूद समाधियों को बने रहने दिया जा सकता है, बेशक उसका मालिकाना किसी को न दिया जाए. साथ ही गुरुघर को किसी और जगह बनाने की बात भी हाई कोर्ट के आदेश में थी. डीडीए से कहा गया था कि अगर समिति इसके लिए जमीन की मांग करती है, तो डीडीए उस पर विचार कर सकता है. लेकिन इन बातों की सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कोई चर्चा नहीं है. उसने पुलिस की मदद से निर्माण को गिरा देने को कहा.
सुप्रीम कोर्ट की ये जल्दबाजी समझ से परे है क्योंकि इसी सुप्रीम कोर्ट में इस समय 57,000 से ज्यादा केस लंबित हैं और कई केस तो बरसों से पड़े हुए हैं. भारतीय अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या 3 करोड़ 30 लाख से ऊपर है.
क्या अदालतें लगातार ऐसे फैसले दे रही हैं?
रविदास गुरुघर केस को क्या अलग-थलग मामला मानना चाहिए या फिर इसमें कोई पैटर्न है? इसे दो उदाहरणों से समझते हैं.
पिछले साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने एससी-एसटी अत्याचार निवारक अधिनियम, 1989 के कुछ प्रावधानों को संविधान के अनुच्छेद 21 के विरुद्ध माना और जिन लोगों पर इस एक्ट के तहत मुकदमा होता है, उन्हें कई तरह की रियायत दे दी. दलित और आदिवासी संगठनों ने माना कि इससे एससी-एसटी एक्ट वस्तुत: बेकार हो जाता है. उसके खिलाफ उन्होंने देश भर में आंदोलन किया और 2 अप्रैल को भारत बंद किया, जिसमें कई लोग मारे गए. आखिरकार सरकार को संसद में कानून पारित करके एक्ट को पुराने स्वरूप में वापस लाना पड़ा.
इस साल सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस फैसले पर अपनी मुहर लगा दी, जिसमें हाई कोर्ट ने यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में शिक्षकों की नियुक्तियों को विभागवार करने का आदेश दिया था. इसके आधार पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने पहले लागू 200 प्वायंट रोस्टर को खत्म करके 13 प्वायंट रोस्टर लागू कर दिया. इसका असर ये हुआ कि एससी-एसटी-ओबीसी के लिए वेकेंसी आनी लगभग बंद हो गई. इस फैसले के खिलाफ फिर आंदोलन भड़क उठा और भारत बंद आयोजित किया गया. विरोध को देखते हुए सरकार पहले अध्यादेश लेकर आई और फिर नई सरकार के गठन के बाद इस बारे में कानून बना दिया गया और 200 प्वायंट रोस्टर फिर से लागू हो गया.
इस तरह हम देखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के हाल में तीन फैसले ऐसे आए, जिनके विरोध में आंदोलन शुरू हो गए.
सुप्रीम कोर्ट, न्याय और संविधान
सुप्रीम कोर्ट में वकील और संवैधानिक मामलों के जानकार नितिन मेश्राम ने सुप्रीम कोर्ट के कुछ ऐसे फैसलों की लिस्ट बनाई है जिन्हें वे न्याय के सिद्धांतों, सामाजिक न्याय और संविधान की भावना के विपरीत मानते हैं.
1. स्टेट ऑफ मद्रास बनाम श्रीमति चंपकम दोरईराजन (1951 AIR 226): सुप्रीम कोर्ट ने समानता के अधिकार को प्रमुखता देते हुए, मद्रास प्रेसिडेंसी में 1927 के सरकारी आदेश के द्वारा सरकारी नौकरियों और शिक्षा में दिए गए आरक्षण के प्रावधान को निरस्त कर दिया था. इसकी वजह से संविधान का पहला संशोधन करके अनुच्छेद 15(4) जोड़ना पड़ा, जिसमें ये व्यवस्था है कि स्टेट (सरकार) वंचित वर्गों, एससी, एसटी और सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है और ऐसा करना समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है.
2. एम.आर. बालाजी बनाम मैसूर राज्य (1963 AIR 649): इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सामान्य स्थितियों में पिछड़े वर्गों का कुल आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए. दरअसल उस समय मैसूर राज्य में सरकार 68 फीसदी रिजर्वेशन दे रही थी. पांच जजों की बेंच ने ये फैसला देते समय इस सिद्धांत को माना कि वंचित वर्गों के लिए विशेष प्रावधान करते समय समाज के बाकी लोगों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं होना चाहिए. इसलिए अलावा जजों ने शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता के सवाल को भी महत्व दिया.
3. टी. देवदासन बनाम भारत सरकार (1964 AIR 179): सुप्रीम कोर्ट ने नियुक्तियों में कैरी फारवर्ड नियम को संविधान के विरुद्ध करार दिया, जिसकी वजह से रिजर्व कटेगरी के कैंडिडेट को नुकसान हुआ. इस नियम के तहत अगर किसी साल उपयुक्त कैंडिडेट नहीं मिलने के कारण एससी-एसटी के पद खाली रह जाते थे, तो उन्हें अगले साल भरा जाता था. लेकिन इस खास मामले में कैरी फारवर्ड पदों के कारण रिजर्व पदों की कुल संख्या उस साल 64 फीसदी हो गई थी. कोर्ट ने कहा कि 50 फीसदी की सीमा नहीं तोड़ी जा सकती.
4. इंदिरा साहनी और अन्य बनाम भारत सरकार (AIR 1993 SC 477): सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश के जरिए पहली बार आरक्षण में आर्थिक आधार (क्रीमी लेयर) को शामिल कर लिया, जबकि संविधान में इसकी कोई चर्चा नहीं थी. संविधान में पिछड़ेपन का आधार सामाजिक और शैक्षणिक माना गया था. इस फैसले का आरक्षण व्यवस्था पर गहरा असर पड़ा और ओबीसी के प्रमोशन में आरक्षण का रास्ता बंद हो गया.
5. सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रेकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत सरकार, 1993: नौ जजों की इस बेंच ने अपने फैसले से न्यायपालिका की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की भूमिका को निर्णायक बना दिया. इस तरह भारत में उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति में कोलिजियम सिस्टम की शुरूआत हुई और इससे न्यायपालिका में जजों की सामाजिक विविधता में कमी आई.
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इस लिस्ट में सुप्रीम कोर्ट के कुछ ही ऐसे फैसलों को शामिल किया गया है, जिसमें सामाजिक यथास्थितिवाद नजर आता है. ऐसे फैसलों की एक लंबी कतार है, जो ये साबित करती है कि न्यायपालिका सामाजिक बदलाव का औजार नहीं है. सामाजिक बदलाव लाना न्यायपालिका का काम भी नहीं है. न्यायपालिका को संविधान, कानून और पहले के फैसलों के आधार पर फैसला देना होता है. ये सिर्फ भारत में नहीं है. दुनिया के ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों में न्यायपालिका स्टेट-को यानी यथास्थिति बनाए रखने वाली संस्था के रूप में काम करती है.
प्रगतिशील कानून बनाने का जिम्मा विधायिका यानी लेजिस्लेचर का है. आखिर उसे ही तो वोट लेने के लिए जनता के बीच जाना होता है और जनता के हितों का ख्याल रखने की उम्मीद उससे ही है.
(दिलीप मंडल वरिष्ठ पत्रकार हैं और इस लेख में उनके निजी विचार हैं)