जब हम राजस्थान के रेगिस्तान में बावड़ी, टांके, हरियाणा में जोहड़, मध्य प्रदेश में पोखर और दक्षिण भारत में तालाब देखते हैं तो अचानक ही हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर इतनी सुंदर रचना किसने बनाई? आखिर इन संरचनाओं की उपयोगिता क्या है?
दरअसल, जितना आसान आज रेगिस्तान में रहना लगता है क्या यह इनके बिना मुमकिन हो पाता? इतिहास इस बात का गवाह है कितनी ही ऐसी सभ्यताएं पनपीं और समय के काल मे समा गईं.
हमारी सभ्यता को बनाने में उसे निरन्तरता देने में जो योगदान बंजारा समाज का है शायद ही इतिहास में किसी अन्य समाज का रहा हो. बंजारे का नाम सुनते ही हमारे जेहन में ऐसे लोगों की छवि उभरती है जो गधों और ऊंटों पर अरबी कपड़े, मुल्तानी मिट्टी और नमक लादकर फेरी लगा रहे हैं और पीछे-पीछे बिंजारी लोक गीत गाती हुई चल रही हैं.
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लेकिन क्या बंजारे का अतीत महज यह सामान लाने ओर लोक गीत तक ही सीमित है या इससे हटकर भी इनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व है? बंजारे महज यह समान ही नहीं लाते थे, बल्कि उसके साथ वहां के विचार और परंपरा को भी साथ लाते और बदले में हस्तशिल्प का सामान, फुस के घोड़े ओर रावणहत्था, घी लेकर जाते. इस तरह दो संस्कृति को जोड़ने के साथ आर्थिक तंत्र को मजबूती देने का काम किया करते.
इनके द्वारा बनाई गई संरचनाएं तो कला की उत्कृष्टता के अनूठे नमूने हैं. हम एक घर का पानी ठीक से नहीं निकाल पाते और यह लोग तो पूरे गांव का पानी एक जगह एकत्रित करने के लिए संरचना बनाते घर की नींव डालने से लेकर कुएं खोदने, बावड़ी निर्माण जैसे बारीक काम बहुत ही सूझ-बूझ के साथ संपन्न किया. इनके पास कोई अभियंता, पीएचडी या आर्किटेक्ट की डिग्री नहीं है.
पानी का प्राकृतिक तरीके से संरक्षण किया, जल भंडार को रिचार्ज किया और सबसे बड़ी बात वो अपने समाज के इस उपयोगी और सहज ज्ञान का न तो प्रदर्शन करते हैं और न ही उसको भुनाते हैं.
ऐसी मान्यता है कि बंजारे राजस्थान जिले से भारत के हर कोने में फैले, जिन्हें आंध्र प्रदेश में लम्बारी, कर्नाटक में लम्बाणी, महाराष्ट्र में बंजारी और राजस्थान, हरियाणा में बंजारा कहा जाता है. इन्हें किसी राज्य में ओबीसी का तो किसी मे एससी और एसटी का दर्जा प्राप्त है. ये लोग अपने इतिहास को राजपूत जाति, महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान और शिवाजी महाराज से जोड़ते हैं.
एक सवाल जो हमें विचलित कर सकता है कि जो बंजारे कभी राजाओं की सेना के लिए रसद पहुंचाते थे, भारत भर में अनाज की आपूर्ति करते थे, जिनकी महिलाएं गोदना ओर कशिदाकारी से लेकर नृत्य और गायन में जो महारात हासिल है जिनके चर्चे अरब से लेकर मुल्तान तक रहे, जो हिंदुस्तान की खूबसूरती और पहचान का आधार रहे आज वो बंजारे दर दर की ठोकर खाने पर मजबूर क्यों हैं?
दअरसल, ब्रिटिश कंपनी जो कि एक व्यापारिक कंपनी थी. उसने अपने व्यापार में टक्कर देने वाले सबसे मजबूत प्रतिद्वंदी बंजारों को रोकने के लिए 1871 में एक कानून बनाया, जिसमें बंजारों को जन्मजात क्रिमिनल घोषित कर दिया, जिससे वो अब केवल नमक में सिमट गए. आगे चलकर ब्रिटिश सरकार ने नमक के व्यापार पर भी रोक लगा दी. भले ही 1951 में भारत सरकार ने क्रिमिनल एक्ट को खारिज कर दिया हो, लेकिन समाज ने उनके योगदान को भुला दिया.
पुष्कर में तंबू डालकर मुफ़लिसी का जीवन जी रहे बंजारे टोडरमल, जिनकी उम्र करब 80 वर्ष रही होगी, झब्बा पहने, सर पर पगड़ी, कान में मुरकी ओर धोती बांधे, चिलम का सुट्टा मारते हुए बताया कि जब छोटा था तो उसके दादा प्रदेश (अरब) जाते थे.
जब वो लौटकर आते तो हम दिनभर उनके पास बैठकर उनकी बातों को सुनते वो हमें बताते की हमारे खेप में करीब 300 लोग थे. कई बार तो लौटने में दो चौमासा (13-14 महीने) बीत जाते थे. हमारा ब्याह और गौना भी रास्ते में तय हो जाता था.
हम गधों, बैलों ओर ऊंटों पर बैठकर गाते-बजाते हुए जाया करते थे. हमारी महिलाएं गोदना ओर कशीदाकारी करती हुई चलतीं. कहीं-कहीं पर गधों ओर ऊंटों की रेस होती. जीतने वाले गधे और ऊंटों को लोग खरीदते थे. जैसलमेर का घी बलूचिस्तान में बहुत प्रसिद्ध था.
जिस गांव में हम एक पखवाड़ा (15 दिन) रुकते वहां पर बैल की एक जोड़ी उस गांव को देकर आगे बढ़ते. अरब में हमारा सामान खरीदने, नृत्य देखने के लिए दूर दूर से लोग झुंड बनाकर आते थे. हमारा बहुत सम्मान होता था. हमारा गांव में ऐसे स्वागत होता था जैसे कि सारा गांव हमारी ही बाट जो रहा हो. गांव के लोग हमारे पास आते ही बोलते हम आज आपकी मेजबानी करेंगे, लेकिन आज हमारी पहचान ही खो गई है.
मैंने अब तक कितने जोहड़ बनाए, बहुत से कुएं खोदे और कितने घरों की नींव डाली और आज, जिसको जी में आता है हमें उजाड़ देता है. कहते हैं कि तुम्हारे पास जमीन का पट्टा नही है, मेरी पत्नी ने कितनी महिलओं के गोदना किया, कितना सुरीला गाती थी, लेकिन जब वो मरी तो गांव वालों ने श्मशान में दफनाने भी नही दिया.
यहां पर अधिकारी वोट डालने के लिए लोगों की लंबी लाइन लगवाते हैं. किताबों में नाम छपवाते हैं और हम उस लाइन को टुकुर टुकुर देखते हैं. वो इस बात के लिए लाइन क्यों नहीं लगवाते कि हमारे समाज के एक भी बच्चे को स्कूल से बाहर नहीं रहने देंगे? हमें धान मिलेगा, बुढ़ापा पेंशन मिलेगी. हमारे टोलों से एक भी बच्चा स्कूल नहीं जाता.
भीलवाड़ा के अमर सिंह बंजारा जो अपना एक लोक गीत गुनगुना रहे थे
‘बिंजारी ए हंस हंस के बोल, आच्छी आच्छी बोल, मीठी मीठी बोल, दुनिया सूं न्यारी बोल, की बातां थारी रह ज्यासी’ उन्होंने बताया कि इस गीत में यह संदेश है कि बिंजारी सभी लोगों से हंसकर मीठा बोलो, एक दिन दुनिया से चले जाएंगे केवल हमारी बातें रह जाएंगी. हमारी आवाज में तो रेगिस्तान की आत्मा बसती है, लेकिन हम यहां हर रोज नया खेल देखते हैं. लोक कला के संरक्षण के नाम पर स्कूल, कॉलेज में लाखों रुपए खर्च होते हैं और लोक कला के कद्रदानों को दुत्कार दिया, हमारे हाथ में भीख मांगने का कटोरा है या बेलदारी है.
बंजारों के जीवन की त्रासदी यह है कि उनकी विरासत के नाम पर सैकड़ों फाउंडेशन चल रहे हैं, उनमें उनके जीवन का तमाशा हो रहा है और सब लोग उसे बड़े चाव से देख रहे हैं. बंजारों के जीवन में तो रत्तीभर भी बदलाव नहीं आया, लेकिन इससे वो लोग उनके नाम पर विदेशों में घूम रहे हैं.
सरकार को चाहिए कि हर जिले में किसी अधिकारी की ड्यूटी निश्चित करे. जो तय समय सीमा में यह तय करें कि यदि घुमंतू समाज का एक भी बच्चा स्कूल से पीछे छूटता है या किसी सरकारी स्कीम का लाभ नहीं मिलता तो उस अधिकारी को तत्काल सस्पेंड कर किया जाए.
बच्चों के लिए आवश्यकता के अनुसार स्कूल निर्मित हों, जहां वो पढ़ाई के साथ साथ अपनी पारम्परिक लोक कला एवं जीवन शैली को सीख पाएं. उनके कला एवं साहित्य संरक्षण के लिए ठीक वैसा ही केंद्र बनाने की जरूरत है जैसा प्रो. गणेश देवी के नेतृत्व में वडोडा में बनाया गया है.
घुमन्तू समाज की स्थिति, उनकी भविष्य की संभावनाएं और समाधान तलाशने के लिए बालाकृष्णन रैमके की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया था, जिसने 2008 में अपनी रिपोर्ट दी थी, लेकिन आज 11 साल के बाद भी आखिर उस रिपोर्ट को संसद के पटल पर क्यों नहीं रखा गया है? बालकृष्णन कहते हैं कि लोकशाही में ताकतवर और संगठित लोगों की चलती है. घुमंतू समाज कुल जनसंख्या का 10 फीसदी हिस्सा हैं, लेकिन अभी संगठित नही हैं तो उनकी सुनने वाला कोई नहीं है. राज्य सरकारें घुमंतू बोर्ड बनाती हैं, लेकिन उनको एक पैसा भी नहीं देतीं. राजस्थान में पिछली बीजेपी सरकार ने पूरे पांच साल में घुमंतू बोर्ड को एक भी रुपया नहीं दिया. आखिर इनके खिलाफ होने वाले अपराध को एससी एसटी एक्ट के अंतर्गत लाने में किसको दिक्कत है?
एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के अध्यक्ष और बालकृष्णन आयोग के सदस्य रहे प्रो. विनय कुमार श्रीवास्तव कहते हैं कि घुमंतू समाज की हमारे साथ होने वाली जुगलबन्दी को समाज के समक्ष लाने के लिए ऊंचे दर्जे के शोध एवं अनुसंधान की अत्यंत आवश्यकता है.
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बंजारा समाज के बीच पिछले 20 वर्षों से काम कर रहे रॉय डेनियल कहते हैं कि घुमन्तू के आवास और पशु बाड़ों के लिए जब केरल और आंध्र प्रदेश की सरकार होम स्टेट एक्ट ला सकती है तो अन्य राज्य की सरकार क्यों नहीं करती? इन्हें जीते जी अपने कब्रिस्तान के लिए जगह ढूंढ़नी पड़ती है.
जिनके गीतों में खेत-खलिहान और नदी नाले गाते हैं, पपीहा सुर छेड़ता है. हवा तान बुनती हैं. उन लोगों की नदी की तरह बहने वाली जिंदगी ठहर गई है. बंजारे तो समाज को चलाने वाले लोग रहे हैं. अगर यही स्थिति रही तो वो दिन दूर नही जब सुरमई सी आंखों वाली बंजारन को देखने के लिए राह तका करेगा जमाना सारा.
(अश्वनी शर्मा, स्कॉलर एवं एक्टिविस्ट, संयोजक- नई दिशाएं)