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Monday, 16 December, 2024
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बैंकों का हाल इस बात से तय नहीं किया जा सकता कि वे सरकारी हैं या निजी

बैंकिंग के क्षेत्र में जो तकनीकी बदलाव हो रहे हैं उनमें सरकारी बैंक पिछड़ गए हैं और बेहतर कामकाज वाले निजी बैंकों की तुलना में इनका ग्राहक पर ज़ोर कम रहता है.

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चौदह बैंकों (1969 में जिनके यहां कुल 50 करोड़ रुपये जमा थे) के राष्ट्रीयकरण की आधी सदी बाद कई टीकाकार इस पर बहस कर रहे हैं कि इंदिरा गांधी का यह कदम सही था या नहीं. यह एक गलत सवाल है. लेकिन इसका संक्षिप्त उत्तर यह है कि यह अच्छा कदम भी था और बुरा भी. इसने बैंकों का विस्तार किया और राष्ट्रीय बचत दर को बढ़ा दिया, लेकिन इन बैंकों को निरंतर ताज़ा पूंजी की जरूरत पड़ती थी जिसके चलते यह करदाताओं के लिए भारी पड़ा. और अब यह भी कोई प्रासंगिक सवाल नहीं रह गया है कि इस राष्ट्रीयकरण के पीछे इंदिरा गांधी की मंशा क्या थी.

हर कोई जानता है कि यह राजनीतिक वजहों से किया गया था. लेकिन अप्रत्यक्ष लोकलुभावन कदम के भी लाभकारी नतीजे मिल सकते हैं. बहरहाल, आज का मौजूं सवाल यह है कि अब आगे क्या?

सरकारी बैंकों के साथ एक समस्या है. पूरी बैंकिंग सिस्टम के लिहाज से देखें तो उधार देने का उनका रेकॉर्ड काफी खराब है. बैंकिंग के क्षेत्र में जो तकनीकी बदलाव हो रहे हैं उनमें वे पिछड़ गए हैं और बेहतर कामकाज वाले निजी बैंकों की तुलना में इनका ग्राहक पर ज़ोर कम रहता है. खुदरा जमाकर्ता भी अपना पैसा निजी बैंकों में ले जाने लगे हैं. इन ग्राहकों का इनसे मुंह मोड़ना इनके लिए जहर साबित हो सकता है.


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लेकिन निजीकरण को राजनीतिक हर झंडी नहीं मिलती. वैसे भी यह कोई रामबाण नहीं है. निजी क्षेत्र जे एचडीएफसी बैंक जैसे महाजनों ने आश्चर्यजनक रूप से बढ़िया काम किया, हालांकि कुछ को नाकामियां भी मिली हैं. यस बैंक के शेयरों की कीमत का लगभग धड़ाम से गिरना और नई पूंजी के लिए इसकी हड़बड़ी भरी तलाश यह अंदाज़ा देती है कि राष्ट्रीयकरण से पहले निजी बैंकों में क्या कुछ चला करता था. इसी तरह, आइएलऐंडएफएस और डीएचएफएल जैसे बड़े शैडो बैंकों समेत कुछ और के सुर्खियों में आने की आशंका के साथ भुगतान में देरी इस बात की पैरवी नहीं करती कि वित्तीय संस्थाओं को निजी हाथों में सौंपा जाए.

इसके बाद, मानना पड़ेगा कि सरकारी समाधान अपेक्षा के अनुकूल नहीं रहे हैं. कामकाज में सुधार के कदम उठाए बिना बार-बार नई पूंजी उपलब्ध कराना अथाह गड्ढे में पैसे फेंकने के सिवाय कुछ नहीं है. यह भी स्पष्ट नहीं है कि रिजर्व बैंक ने अपनी ही निरीक्षण प्रक्रिया पर गहरी नज़र डाली है या नहीं, जिसके चलते गड़बड़ी इस स्तर तक पहुंच गई है. सो, समाधान कहीं और से ही आएगा.

इसलिए, जरा देखिए कि दूरसंचार और उड्डयन का क्या हाल हुआ है. पुराने खिलाड़ी अपने ही जाल में उलझ कर रह गए जबकि निजी क्षेत्र के नए खिलाड़ी बाज़ार लूट ले गए. किसी कंपनी का निजीकरण नहीं हुआ, पूरे सेक्टर का ही निजीकरण हो गया. कई नए निजी खिलाड़ी होड़ में नहीं टिक सके और उन्होंने अपनी दुकान बंद कर दी (पूंजीवाद का खेल), जबकि सरकार पुराने खिलाड़ियों को संरक्षण और फंड दे रही है (सरकारी पूंजीवाद का खेल). जब तक सरकार हाथ झाड़ कर अंततः बिक्री का फैसला करेगी तब तक संभावित ख़रीदारों के लिए शायद ही कुछ बचा रहेगा.

बैंकिंग सेक्टर का निजीकरण हो रहा है. अभी पांच साल पहले सरकारी बैंक डिपोजिट और एडवांस में निजी भारतीय बैंकों से चार गुना आगे थे, आज डिपॉजिट में 2.2 और एडवांस में 1.8 गुना ही आगे हैं. जहां तक इंक्रीमेंटल डिपोजिट और एडवांस की बात है, स्थिति नाटकीय रूप से उलट गई है. पिछले साल निजी बैंकों ने सरकारी बैंकों के मुक़ाबले दोगुना-तिगुना ज्यादा डिपोजिट लिये और एडवांस दिए. अगर अगर निजी बैंक इसी तरह ग्रोथ को बढ़ावा देते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब वे कुल मिलाकर सरकारी बैंकों जितने बड़े हो जाएंगे और इस सेक्टर पर कब्जा कर लेंगे.


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वैसे, कुछ समय से सच्चाई तो यही है कि सबसे बड़ा निजी बैंक सबसे बड़े सरकारी बैंक भारतीय स्टेट बैंक से कहीं ज्यादा हैसियत वाला बन गया है. बाकी सारे सरकारी बैंकों को मिला दें तो उनकी कुल हैसियत उस निजी बैंक के बराबर पहुंच पाएगी जिसका जन्म 1991 में हुआ भी नहीं था. इसकी वजह यह है कि निवेशकों ने अपनी पसंद जाहिर कर दी है- अच्छे निजी बैंक निरंतर ऊंचे बुक वैल्यू की पेशकश करते रहे हैं जबकि सरकारी बैंक इसमें दुखद डिस्काउंट करते रहे हैं.
सरकार इस प्रक्रिया को अपने तार्किक अंत तक पहुंचने दे, यही काफी नहीं है.

बैंक तो एयरलाइन और टेलिकॉम से ज्यादा महत्व रखते हैं. अब चाहे विलय के जरिए हो या चुनिन्दा बिक्री के जरिए या कमजोर खिलाड़ियों पर कड़े बैंकिंग प्रतिबंधों के जरिए हो, उसे इस वित्तीय क्षेत्र को उबारना ही होगा जिसकी हालत इस बात से तय नहीं होगी कि उसका मालिक कौन है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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