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Friday, 22 November, 2024
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मोहन भागवत ही नहीं, उससे पहले गोलवलकर भी मिल चुके हैं मुस्लिम नेताओं से

पहली बार कोई आरएसएस प्रमुख मुस्लिम समुदाय के नेताओं से नहीं मिले है. संघ के दूसरे सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर 1961 में मुस्लिम नेताओं से मिले थे.

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत की मुस्लिम नेताओं से मुलाकात को उस समुदाय की ओर हाथ बढ़ाने की कोशिश बताया गया. लेकिन उसका मुख्य संदेश वह है, जो आरएसएस वर्षों से देने की कोशिश कर रहा है, यानी भारतीय इस्लाम का ‘गैर-अरबीकरण.’

पहली बार कोई आरएसएस प्रमुख मुस्लिम समुदाय के नेताओं से नहीं मिले है. आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर 1961 में मुस्लिम नेताओं से मिले थे. उन्होंने एक अरबी विद्वान सैफुद्दीन जीलानी के साथ बातचीत में हिंदू-मुसलमान मुद्दे पर आरएसएस के विचारों, सुधारों की दरकार और भारतीयकरण के सवाल को भी विस्तार के साथ रखा.

बाद के 97 साल पुराने संगठन के आला नेताओं ने मुस्लिम और ईसाई समुदाय के प्रतिनिधियों से कई बार मुलाकात की. पिछले महीने भागवत और पांच मुस्लिम नेताओं की मुलाकातें उसी का अगला सिलसिला है, जैसा कि समय-समय पर बातचीत करने की रजामंदी हुई थी.


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बंटवारा और दरार

हिंदू-मुसलमान दरार की जड़ें दर्दनाक बंटवारे और आजादी के दौरान हुई घटनाओं में हैं. बंटवारे की योजना अंग्रेजों की रणनीतिक चाल थी, ताकि कम्युनिस्ट यूएसएसआर (सोवियत संघ) और हिंद महासागर में संचार के समुद्री चैनलों के बीच एक ‘धार्मिक’ बफर बनाया जा सके.

इस रणनीति पर अमल के लिए एक तर्कसंगत टिकाऊ व्यवस्था की जरूरत थी. इसलिए, अंग्रेजों ने दो समुदायों के बीच दरार पैदा करने की नीति बनाई, इस तरह ‘नियति के साथ साक्षात्कार’ की संकुचित शुरुआत के बीज बोए गए. धर्म के आधार पर बंटवारे से देश में और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुआयामी समस्याएं पैदा हुईं. इसका सबसे बदतर नतीजा यह हुआ कि राजनीति को बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक के दायरे में देखना शुरू हुआ और बहुसंख्यक समर्थक नजरिए को सांप्रदायिक और अल्पसंख्यक समर्थक नजरिए तथा सक्रियताओं को ‘राष्ट्र-विरोधी’ बताया जाने लगा.

बंटवारे की मांग को मुहम्मद अली जिन्ना ने तेज किया. उनकी दलील थी कि ‘हिंदू और मुसलमान भले सदियों से एक-दूसरे के साथ रहते आए हैं, लेकिन उनके बीच बेहद मामूली ही साझापन है, इसलिए कोई तरीका नहीं है कि वे एक राष्ट्र में साथ-साथ रह सकते हैं.’ यह ‘मुसलमान पहले’ का विचार (यहां तक कि अल्लामा इकबाल ने भी कथित तौर पर अपने गीत ‘सारे जहां से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा ’ को खारिज कर दिया) खतरनाक नतीजे लेकर आने वाला ही था, इससे नाराज और विचलित महात्मा गांधी ने यह कह दिया, ‘इन दिनों मुसलमान होने का मतलब राष्ट्रवादी होना नहीं रह गया है.’ ‘भारत अविभाज्य है और हिंदू-मुसलमान एकता के बिना स्वराज संभव नहीं हो सकता’ के गांधी के संकल्प के बावजूद 1946 के काउंसिल चुनावों में मुस्लिम लीग सभी मुस्लिम सीटों पर जीती और एक मुस्लिम नेता की अगुवाई में ‘गैर-मुसिलम’ सीटें जीती.

यह दुखद है कि आजादी के बाद भी राजनीति अल्पसंख्यकों के ‘तुष्टीकरण’ के उसी रास्ते पर चलती रही, मुस्लिम नेताओं को मुसलमान वोटरों को लुभाने के लिए प्रेरित किया गया और अल्पसंख्यकों को वोट बैंक की तरह माना जाने लगा. धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण से राजनैतिक दलों को चुनावों में मदद मिलती रही हो सकती है लेकिन इससे समाज के मानस पर गहरा आघात लगा और दरार चौड़ी होती गई.


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सुधार का आह्वान

दूसरा सबसे चिंताजनक पहलू मुस्लिम समुदाय में सुधारवादी नेतृत्व का पूरा अभाव है, जो ‘इस्लाम के अरबीकरण’ की ओर झुका लगता है. इससे समुदाय के एक तबके में पहचान का संकट खड़ा हो गया, जिससे सौहार्दपूर्ण समावेश सह-अस्तित्व को अपनाने की भावना गहरे तौर पर प्रभावित हुई, जो एशिया और दक्षिण एशिया के कई देशों की पहचान है.

मुस्लिम समुदाय में आस्था की क्षेत्रीय विविधता, स्थानीय सांस्कृतिक रिवाजों को साथ लेने और एकांगी धर्म की धारणा में सुधार को बढ़ावा देकर इस्लाम के भारतीयकरण की गंभीर कोशिशें चल रही हैं. वर्ल्ड मुस्लिम कम्युनिटीज काउंसिल की किताब थियोलॉजी ऐंड सिंक्रेटिक ट्रेडिसन्स: इंडियानाइजेशन ऑफ इस्लाम जैसी पहल ऐसे वक्त में बड़े महत्व की है, जब एक नजरिया यह चल रहा है कि अरब देशों से आया इस्लाम सत्तावादी मजहब है और स्थानीय परंपराओं तथा जीवनशैलियों को शामिल करने की प्रवृतियों को अच्छा नहीं मानता.

सुधारक होना आसान नहीं है. भारतीय इस्लाम के ‘गैर-अरबीकरण’ की प्रक्रिया समुदाय के उदार तबके द्वारा शुरू किया गया है. हालांकि अधिक मुखर अल्पसंख्यक बिरादरी के आगे उदार तबके की चुप्पी का मतलब है कि क्षुद्र फायदों के लिए इस्लाम को हाइजैक करना गंभीर मामला है. सरकार को हर समुदाय में हर तरह के उग्रवाद के खिलाफ कदम उठाना चाहिए. लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर नेताओं और विभिन्न समुदायों के संगठनों के बीच बातचीत से आपसी समझदारी में सुधार होगा.

हिंदू समाज अपने मूल सिद्धांतों और मूल्य व्यवस्था को खोए बगैर भारी सुधार प्रक्रिया से गुजरा है. आरएसएस इस सुधार प्रक्रिया का हिस्सा और गवाह रहा है. संगठन के सर्वोच्च नेताओं को उन मुश्किलों का एहसास है जो मुस्लिम सुधारकों की राह में आएगी. इसलिए हिंदू समाज और मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधियों के बीच मुलाकातों से व्यापक समझ और दोनों समुदायों के बीच राष्ट्रहित के व्यापक दायरे में सहयोग का रास्ता खुलेगा.

(शेषाद्री चारी ऑर्गेनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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