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Friday, 22 November, 2024
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न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को गोगोई ने लिखा पत्र

प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अनुरोध किया है कि न्यायपालिका में शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार रोकने के लिये इसमें से भ्रष्ट लोगों को बाहर किया जाये.

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न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार का मुद्दा नये सिरे से सुर्खियों में है. इस बार न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ा रूख अपनाते हुये प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अनुरोध किया है कि न्यायपालिका में शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार रोकने के लिये इसमें से भ्रष्ट लोगों को बाहर किया जाये.

ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का दूसरा कार्यकाल शुरू होते ही संदिग्ध छवि वाले नौकरशाहों के खिलाफ केन्द्र सरकार की सख्त कार्रवाई को देखते हुए प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीश एस एन शुक्ला को पद से हटाने के लिये 18 महीने पहले किये गये अपने आग्रह को अधिक प्रभावी तरीके से दोहराया है. प्रधान न्यायाधीश ने इस पत्र में लिखा है कि न्यायमूर्ति शुक्ला पर गंभीर प्रकृति के आरोप है और उन्हें न्यायिक कार्य की अनुमति नहीं दी जा सकती है. ऐसी परिस्थिति में आप आगे की कार्रवाई के लिये फैसला लें.

उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को कदाचार के आरोप में पद से हटाने की संविधान में एक प्रक्रिया निर्धारित है. इस प्रक्रिया के पालन के बगैर राष्ट्रपति किसी भी न्यायाधीश को पद से नहीं हटा सकते. संविधान के अनुच्छेद 124 में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश और अनुच्छेद 218 में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को पद से हटाने का प्रावधान है. न्यायाधीश जांच कानून 1968 में किसी भी न्यायाधीश को पद से हटाने से संबंधित पूरी प्रक्रिया निर्धारित है.

प्रधान न्यायाधीश के इस पत्र के बाद सरकार का यह दायित्व बनता है कि वह न्यायमूर्ति शुक्ला को पद से हटाने के प्रस्ताव पर अपेक्षित संख्या में राज्य सभा या लोकसभा के सदस्यों के हस्ताक्षर प्राप्त करे ताकि यह प्रक्रिया आगे बढ़ सके.
इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक खंडपीठ की अध्यक्षता करते हुये न्यायमूर्ति शुक्ला ने निजी मेडिकल कालेजों में 2017-18 के शैक्षणिक सत्र में छात्रों को प्रवेश देने पर प्रतिबंध लगाने संबंधी प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ के आदेश का कथित रूप से उल्लंघन किया.

न्यायमूर्ति शुक्ला के खिलाफ आरोपों की गंभीरता को देखते हुये 2017 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने मद्रास उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश, जो अब शीर्ष अदालत की न्यायाधीश हैं. इन्दिरा बनर्जी की अध्यक्षता में गठित उच्च न्यायालयों के तीन न्यायाधीशों की समिति गठित की थी. न्यायाधीशों की इस समिति ने आंतरिक जांच में न्यायमूर्ति शुक्ला को एक मामले में मेडिकल कालेजों का कथित तौर पर पक्ष लेने के लिये ज़िम्मेदार माना था.


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न्यायमूर्ति शुक्ला पर लगे न्यायिक अनियमित्ताओं के आरोपों की गंभीरता को देखते हुये ही उन्हें 22 जनवरी, 2018 को न्यायिक कार्यो से मुक्त कर दिया गया था. न्यायमूर्ति शुक्ला ने 23 मई, 2019 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर स्वंय को न्यायिक कार्य देने का अनुरोध किया है. मुख्य न्यायाधीश ने उचित फैसला लेने के लिये यह पत्र प्रधान न्यायाधीश के पास भेजा है. वे चाहते हैं कि उन्हें न्यायिक कार्य फिर से सौंपा जाये.

न्यायमूर्ति रंजन गोगोई से पहले प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने भी 2018 में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एस एन शुक्ला को पद से हटाने की सरकार से सिफारिश की थी. सरकार ने पिछले साल अगस्त में लोकसभा में कांग्रेस के नेता शशि थरूर के एक प्रश्न के जवाब में न्यायमूर्ति शुक्ला को पद से हटाने के लिये प्रधान न्यायाधीश से पत्र मिलने की बात स्वीकार भी की थी.

न्यायाधीश जांच कानून 1968 के प्रावधानों के अनुसार किसी भी न्यायाधीश को पद से हटाने के लिये प्रस्ताव पर राज्य सभा के कम से कम 50 और लोकसभा के मामले में कम से कम एक सौ सदस्यों के हस्ताक्षर होने चाहिए. किसी न्यायाधीश को साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर पद से हटाने के लिये प्रस्ताव का नोटिस मिलने के बाद अगली प्रक्रिया की व्यवस्था न्यायाधीश जांच कानून, 1968 में है.

इस कानून की धारा 3 में स्पष्ट प्रावधान है कि इस तरह की नोटिस मिलने पर अध्यक्ष या सभापति, जैसी भी स्थिति हो, ऐसे व्यक्तियों से परामर्श करके, जिन्हें वह उचित समझते हों और सारी सामग्री, जो उन्हे उपलब्ध करायी गयी हो, पर विचार के बाद ऐसा प्रस्ताव स्वीकार कर सकते हैं या इसे स्वीकार करने से इंकार कर सकते हैं.

यदि ऐसा प्रस्ताव स्वीकार किया जाता है, तो इसी धारा के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति गठित की जाती है. इसके दो अन्य सदस्यों में एक किसी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और दूसरा सदस्य कोई प्रतिष्ठित विधिवेत्ता होगा.

इस जांच समिति की रिपोर्ट मिलने के बाद ही न्यायाधीश को पद से हटाने के प्रस्ताव पर सदन में चर्चा होती है. संसद के उसी सत्र के दौरान प्रत्येक सदन में अपनी कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत से इस प्रस्ताव को पारित करने के बाद राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है. इसके बाद ही राष्ट्रपति ऐसे न्यायाधीश को पद से हटाने का आदेश पारित करते हैं.

किसी भी न्यायाधीश को पद से हटाने संबंधी प्रस्ताव पर अभी तक सिर्फ दो मामलों में ही सदन में चर्चा हुई है. इनमें से पहला मामला उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश वी रामास्वामी का है. इस मामले में मई, 1993 में लोकसभा में कांग्रेस सदस्यों के सदन में मौजूद रहने के बावजूद मतदान से अनुपस्थित रहने की वजह से उन्हें पद से हटाने का प्रस्ताव पारित नहीं हो सका था और दूसरे में कोलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन को पद से हटाने के लिये अगस्त, 2011 में राज्य सभा से प्रस्ताव पारित होने के बाद लोकसभा में इस पर चर्चा से पहले ही न्यायाधीश द्वारा पद से इस्तीफा  देने की वजह से यह भी परवान नहीं चढ़ सका था.

इनके अलावा, देश के इतिहास में पहली बार प्रधान न्यायाधीश को पद से हटाने के लिये राजनीतिक दलों के सदस्यों ने राज्यसभा के सभापति को प्रतिवेदन दिया था.

इस मामले में सभापति एम वेंकैया नाएडू ने कानूनी प्रावधान तथा उच्चतम न्यायालय की व्यवस्था के आलोक में अप्रैल, 2018 में विपक्ष का नोटिस निरस्त कर दिया था. उन्होंने अपने फैसले में कहा था कि नोटिस में लगाये गये आरोप प्रधान न्यायाधीश को पद से हटाने की कार्यवाही को आगे बढ़ाने के लिये पूरी तरह अपर्याप्त हैं.

इनके अलावा, सिक्किम उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी डी दिनाकरण को भी इसी प्रक्रिया के माध्यम से पद से हटाने के लिये राज्य सभा के सभापति को याचिका दी गयी थी. इस मामले में आरोप भी निर्धारित हुये. लेकिन, मामला आगे बढ़ने से पहले ही न्यायमूर्ति दिनाकरण ने जुलाई 2011 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया था.

इसी तरह, तेलंगाना एवं आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सी वी नागार्जुन रेड्डी पर निचली अदालत में एक दलित न्यायाधीश का उत्पीडन करने और गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जे बी पार्दीवाला द्वारा अपने एक फैसले में की गयी टिप्पणी को लेकर उनके खिलाफ भी राज्यसभा के सभापति के समक्ष याचिका दायर की जा चुकी है. हालांकि, न्यायमूर्ति पार्दीवाला ने बाद में इस टिप्पणी को फैसले से हटा दिया था.


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इन सबसे अलग एक अन्य रोचक मामला मध्य प्रदेश का था. जिसमे न्यायपालिका में ही कार्य स्थल पर यौन उत्पीड़न की कथित घटना को लेकर राज्यसभा के सदस्यों ने अप्रैल, 2015 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस. के. गंगले को पद से हटाने के लिये सभापति को याचिका दी थी.

राज्य सभा के तत्कालीन सभापति हामिद अंसारी ने याचिका में लगाये गये आरोपों की जांच के लिये न्यायाधीश जांच आयोग कानून के प्रावधानों के तहत प्रधान न्यायाधीश की सलाह से इस तीन सदस्यीय समिति गठित की थी.
समिति ने न्यायमूर्ति गंगले के खिलाफ कदाचार, महिला न्यायाधीश का यौन उत्पीडन, गैरकानूनी और अनैतिक मांगों के लिये तैयार नहीं होने पर शोषण और ग्वालियर से सीधी तबादला तथा प्रशासन न्यायाधीश के रूप में दुरूपयोग के आरोपों की जांच की. लेकिन उसे ये आरोप संदेह से परे सही नहीं मिले थे.

ऐसी स्थिति में अब देखना यह है कि क्या सरकार न्यायमूर्ति शुक्ला को पद से हटाने के लिये संसद की कार्यवाही का सहारा लेती है या नहीं क्योंकि न्यायाधीशों की आंतरिक जांच समिति की रिपोर्ट के बाद इस न्यायाधीश ने अपने पद से इस्तीफा नहीं दिया है और उन्हें अभी तक कोई न्यायिक कार्य भी नहीं दिया गया है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं.)

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