5 नवंबर को गोवा में नेशनल सिक्योरिटी एक्ट (एनएसए) तीन महीनों के लिए लागू कर दिया गया. यह कानून आमतौर पर आतंकवादियों या राष्ट्रीय सुरक्षा के बड़े खतरों के लिए इस्तेमाल होता है, लेकिन अब राज्य सरकार के पास यह ताकत है कि वह लोगों को पहले से ही हिरासत में ले सकती है. मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत का कहना है कि राज्य में बढ़ते अपराध की वजह “प्रवासी” लोग हैं.
यह पहली बार नहीं है कि सावंत ने भारत के सबसे छोटे राज्य में बढ़ते अपराधों के लिए प्रवासियों को दोषी ठहराया है और न ही यह आखिरी बार होगा.
प्रवासियों को इस तरह आसानी से दोष देना, असल में, गोवा की एक बड़ी अंदरूनी समस्या को दिखाता है, लेकिन उससे पहले, देखते हैं कि एनएसए लगाने तक की नौबत आखिर आई कैसे.
शुरुआत और तनाव
सरकार ने सितंबर के अंत में एनएसए NSA लागू करने के लिए आवेदन किया था, ठीक उसके बाद जब सोशल एक्टिविस्ट और राजनेता रामा कंकणकर पर हमला हुआ था.
18 सितंबर को, कानकोणकर को करंजालम के एक रेस्टोरेंट से आधी रात में सात लोगों ने बाहर घसीटा, साइकिल की चेन से पीटा, उनकी शर्ट उतार दी और उन पर गाय का गोबर लगा दिया. पूरा हमला सीसीटीवी में रिकॉर्ड हो गया. हमलावर मारते हुए ताना मार रहे थे, “गोवा का रखवाला बनेगा?”
इस हमले से तुरंत राजनीतिक हलचल मच गई.
ज्यादातर आरोपियों को अगले ही दिन पकड़ लिया गया, विपक्षी पार्टियां कुछ ही घंटों में एकजुट हो गईं.
कांग्रेस, आप, गोवा फॉरवर्ड पार्टी और रिवॉल्यूशनरी गोवन्स पार्टी के सदस्यों ने मुख्यमंत्री के घर की तरफ मार्च करने की कोशिश की. पुलिस ने रोका तो उन्होंने पणजी ब्रिज पर धरना दे दिया, जिससे भारी ट्रैफिक जाम हो गया. उन्होंने मास्टरमाइंड की गिरफ्तारी और एक स्पेशल टास्क फोर्स बनाने की मांग की.
लगभग एक महीने बाद, अस्पताल से छुट्टी मिलने पर कंकणकर ने आरोप लगाया कि उन्हें शक है कि इस हमले में किसी तरह सीएम सावंत शामिल हो सकते हैं — जिसे सावंत ने “सनसनी फैलाने वाली बात” कहकर खारिज कर दिया.
कंकणकर की पत्नी रति ने बाद में आरोप लगाया कि पणजी के एक पुलिस इंस्पेक्टर ने उनके पति का गोपनीय बयान मीडिया को लीक किया. उन्होंने स्वतंत्र जांच की मांग की.
कंकणकर पर हमला, पहले से चल रही चिंता पर आखिरी चोट साबित हुआ. इससे पहले भी अपराधों की घटनाएं बढ़ रही थीं.
इस साल की शुरुआत में, हथियारबंद लुटेरों ने 77 साल के उद्योगपति जयप्रकाश डेम्पो और उनकी पत्नी को ढोना पाउला में उनके घर में बंधक बना दिया और घर लूट लिया. इसके अलावा, डबल मर्डर, गैंग झगड़े, रेत निकालने को लेकर गोलीबारी और ज़मीन हड़पने के कई मामले हुए, जिनमें फर्ज़ी दस्तावेज़ शामिल थे.
कुछ दिन पहले, आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने एक्स पर लिखा था: “हत्या, फायरिंग, दिनदहाड़े चोरी. गोवा में क्या हो रहा है? भाजपा ने गोवा को कानूनहीन राज्य बना दिया है.”
जवाब में, भाजपा गोवा यूनिट ने आक्रामक लहज़े में कहा कि केजरीवाल अपने काम से मतलब रखें.
लेकिन अपराध पर कुछ करने का दबाव धीरे-धीरे सावंत पर बढ़ रहा था. इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 ने न्याय व्यवस्था में छोटे राज्यों में गोवा को सबसे आखिरी स्थान पर रखा — पुलिस, जेल, न्यायपालिका और मानव संसाधन, सभी में. सावंत ने रिपोर्ट को पूरी तरह खारिज कर दिया और कहा कि “यह कोई असली सरकारी रिपोर्ट नहीं है.”
और फिर प्रवासियों पर उंगली उठाई गई.
यह एक आसान तरीका है, जिसे ज़रूरत पड़ने पर दोहराया जाता है: सावंत ने नवंबर 2024 में भी यही कहा था और इससे पहले मजदूर दिवस 2023 पर कहा था कि उत्तर प्रदेश और बिहार से आने वाले मजदूर गोवा के 90% अपराधों के लिए जिम्मेदार हैं. (कुछ दिनों बाद उन्हें अपनी ही पार्टी के गठबंधन साथियों और बिहार के तत्कालीन डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव ने टोका तो उन्होंने यह बयान वापस ले लिया था.)
लेकिन आम जनता में ‘बाहरी लोगों’ के खिलाफ नाराज़गी की वजह कुछ और है.
नाराज़गी का कारण
असली और आज की नाराज़गी उन अमीर खरीदारों से है जो दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरु से आकर गोवा में बड़ी-बड़ी ज़मीनें खरीद रहे हैं.
इससे ज़मीन की कीमतें इतनी बढ़ गई हैं कि स्थानीय गोवावासियों के लिए अपना घर खरीदना मुश्किल हो गया है.
फिर आते हैं टूरिस्ट — जिनमें से कई उत्तर और दक्षिण भारत से आते हैं.
महिलाओं के प्रति उनका गंदा और बेहूदा व्यवहार सालों से गोवा के लोगों को परेशान कर रहा है, लेकिन इस गुस्से की मार उन पर नहीं पड़ती.
इसके बजाय यह गुस्सा पिरामिड में सबसे नीचे की ओर जाता है — उन सबसे गरीब और कमज़ोर मजदूरों पर, जो उत्तर भारतीय राज्यों से आते हैं. ये लोग लगभग सभी पार्टियों के वोट बैंक हैं, लेकिन कोई भी नेता इन्हें खुलकर बचाव में नहीं लेता, क्योंकि लोग नाराज़ हो जाएंगे. प्रवासी मजदूर ऐसे लोग हैं जो कहीं के नहीं माने जाते.
गोवा में, भाजपा और एंटी-भाजपा गठबंधन जिसमें कांग्रेस, रिवोल्यूशनरी गोवन्स पार्टी (आरजीपी) और गोवा फॉरवर्ड पार्टी शामिल हैं — दोनों ही प्रवासियों को निशाना बना रहे हैं.
यह गठबंधन दिवाली के आसपास घोषित हुआ था, ताकि 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा के खिलाफ एकजुटता दिखाई जा सके, लेकिन कुछ ही दिनों बाद, आरजीपी के प्रमुख मनोज परब ने कहा कि वह यह गठबंधन छोड़ने पर विचार कर सकते हैं.
उनके शब्द थे: “अगर हमारे साथी गोवा के हितों की कीमत पर प्रवासियों को खुश करने की कोशिश करेंगे, तो हम इस गठबंधन से बाहर हो जाएंगे.”
आरजीपी को कई लोग महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना जैसा मानते हैं. 2022 के चुनाव में आरजीपी ने एक सीट जीती थी और उनकी पहचान एंटी-प्रवासी राजनीति पर ही बनी थी.
पोर्वोरिम के बन रहे फ्लाईओवर के पास एक खाली पीडब्ल्यूडी मैदान है. पिछले एक साल में मैंने देखा है कि भारी बैग लेकर रोज़ाना सैकड़ों मजदूर उस सड़क पर आते-जाते हैं.
वे इस मैदान के आसपास खड़े होकर काम का इंतज़ार करते हैं. यह मैदान उत्तर भारत में जिसे “लेबर चौक” कहा जाता है, वैसा ही है. यहां खड़े लोग राजमिस्त्री, पेंटर या प्लंबर होते हैं, जिन्हें दिनभर के छोटे-मोटे कामों के लिए रखा जाता है. जिस शाम मैं उनसे बात करने रुकी, इस बात से ही पता चल रहा था कि उन्हें उस दिन काम नहीं मिला.

ये वही लोग हैं जो गोवा का काम-काज चलाते हैं. ये लोग करीब 8,000 रुपये महीने कमाते हैं, चार-चार लोग एक कमरे में रहते हैं और इन्हीं को राज्य की “सुरक्षा के लिए खतरा” बताया जा रहा है.
सहज ही अदृश्य
50 साल के संजय दास झारखंड के एक गांव से हैं, जो गोवा से दो दिन और तीन ट्रेन की दूरी पर है. मैं दास से पूछती हूं कि मुख्यमंत्री द्वारा अपराधों को प्रवासियों से जोड़ने पर वह क्या सोचते हैं. वह बेरुखी हंसी हंसते हैं: “कोई इतना दूर क्यों आएगा चोरी या हत्या या बाकी अपराध करने?”
यह एक सीधा सवाल है. दास, जो पिछले कुछ सालों से गोवा आते रहे हैं, कहते हैं कि अपराध कोई भी करे, आरोप उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों पर ही लगता है. उन्होंने कहा, “यहां के लोगों की जेब चेक कीजिए, मुश्किल से 10 रुपये मिलेंगे.”
एक और व्यक्ति ने कहा: असल में ज्यादातर उल्टा ही होता है, ये लोग ही पीड़ित बनते हैं. कभी ठेकेदार काम पर रखते हैं, लेकिन पूरा पैसा नहीं देते; कभी बिल्कुल नहीं देते. उन्होंने कहा, “पुलिस तो हमारी बात सुनती भी नहीं.”
कोई संगठन नहीं, कोई यूनियन नहीं, कोई सुरक्षा नहीं और न ही कोई आवाज़. ऐसे कमज़ोर मज़दूर आसानी से दोष का निशाना बन जाते हैं क्योंकि वो समाज में लगभग अदृश्य हैं. राज्य को जब किसी को दोष देना होता है, वह उन लोगों को चुनता है जो वापस लड़ नहीं सकते.

झारखंड के एक अन्य मज़दूर 60-वर्षीय मोहम्मद कलीमुद्दीन, इसे बहुत सीधी भाषा में कहते हैं: “हम कीड़े-मकौड़ों की ज़िंदगी जी रहे हैं. लेबर लोग आपका मार खा सकते हैं, लेकिन वो कभी मारेंगे नहीं.”
पिछले हफ्ते गोएमकरपोन (Goemkarponn) में छपे एक सहानुभूतिपूर्ण संपादकीय में प्रवासियों की हालत पर बात की गई.
उसमें लिखा था: “प्रवासी मज़दूर राज्य की पूरी श्रमिक ताकत की रीढ़ हैं, चाहे निर्माण हो, होटल-रेस्टोरेंट का काम, कचरा प्रबंधन, या घरेलू मदद. उन्हें अपराध की नज़र से देखना न सिर्फ बड़ी आबादी को दूर करेगा, बल्कि सुरक्षा और शासन पर हो रही ज़रूरी बहस को भी कमज़ोर करेगा.”
अखबार के संपादक और लेख के लेखक सूरज नांदरेकर इस आर्थिक हकीकत पर स्पष्ट हैं जिसे नेता नज़रअंदाज़ कर देते हैं.
उन्होंने इंटरव्यू में कहा: “गोवा के लोग राजगीरी, प्लंबिंग, इलेक्ट्रिकल जैसे कुशल कामों में दिलचस्पी नहीं रखते. हमें बढ़ई नहीं मिलते, फल-सब्जी बेचने वाले नहीं मिलते. आप हर चीज़ के लिए प्रवासियों को दोष नहीं दे सकते. गोवा इनके बिना चलेगा कैसे? मांग होगी तो आपूर्ति भी होगी.”
असल समस्या जिसके बारे में उनका कहना है कि प्रशासन मज़दूरों की सही जांच-पड़ताल करने में गंभीर नहीं है.
उन्होंने कहा, “अगर मज़दूरों का सही डेटाबेस हो, जिसे उनके ठेकेदारों से जोड़ा जाए, तो इससे उनकी आवाजाही पर नज़र रखी जा सकेगी, अपराध घटेगा और जवाबदेही बढ़ेगी, लेकिन ऐसे सिस्टम की सफलता पूरी तरह इस बात पर निर्भर है कि इसे ईमानदारी और समानता से लागू किया जाए.”
दोष लगाने की राजनीति
पिछले कुछ सालों में प्रवासियों के खिलाफ धीरे-धीरे एक सहमति बनती जा रही है, जिसमें मीडिया और पॉपुलर कल्चर ने भी मदद की है. यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिल्वेनिया के डॉक्टोरल स्टूडेंट कौस्तुभ नाइक, जो गोवा के बारे में स्टडी कर रहे हैं, इस ट्रेंड को पिछले दस साल से देख रहे हैं.
उन्होंने कहा, “टीवी और लोकल अखबारों में जब भी अपराध की खबर आती है, उसमें हमेशा यह बताया जाता है कि आरोपी कहां से है, जैसे ‘छत्तीसगढ़ का रहने वाला’. इसका आधार यह सोच है कि ‘हम’, यानी गोवावासी, सभ्य हैं और अपराधी कहीं बाहर से आता है. अब अपराध को प्रवासियों से जोड़ देना एक तय नैरेटिव बन गया है.”
यह नया नहीं है. नाइक बताते हैं कि गोवा के स्थानीय थिएटर तियात्र में भी “बाहरी लोगों” को व्यंग्य का निशाना बनाया जाता रहा है, जैसे बंजारा महिलाओं का मज़ाक उड़ाना. एक गाना तो प्रवासियों को चिढ़ाता है और इशारा करता है कि बीजेपी विधायक माइकल लोबो उनका समर्थन करते हैं (हालांकि, लोबो प्रवासियों की बढ़ती संख्या पर चिंता जताते रहे हैं). नाइक कहते हैं कि यह भावना भी है कि “बाहरी लोग” गोवा की जीवन शैली में फिट नहीं होते. “इसलिए यह गोवा की राजनीति की भाषा का हिस्सा बन चुका है.”
विडंबना यह है कि गोवा की अर्थव्यवस्था बड़े पैमाने पर उन गोवावासियों के पैसों पर चलती है जो विदेश जाकर काम करते हैं.
नाइक ने कहा, “बहुत से गोवावासी भी प्रवासी ही हैं, लेकिन वही लोग गोवा की पहचान की रक्षा में सबसे आगे रहते हैं.” गोवा की सोच में, बाहर जाकर बसना मजबूरी माना जाता है.
उन्होंने कहा, “लेकिन जो लोग गोवा आते हैं, उन्हें मौके तलाशने वाला समझा जाता है. यानी नफरत करना आसान है, खासकर अपने ही स्तर के दूसरों से.”
नाइक के अनुसार, एनएसए का इस्तेमाल यह दिखाता है कि सरकार संकट में है. गोवा के कई लोग इस बात से सहमत हैं.
इनमें भारतीय राजनीतिज्ञ और गोवा के पूर्व एडवोकेट जनरल कार्लोस फरेरा भी शामिल हैं जो गोवा विधानसभा के सदस्य हैं और एल्डोना निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, वे बताते हैं कि एनएसए लगाने की कानूनी नींव कमज़ोर है.
अल्वारेस फरेरा ने कहा, “एनएसए के तहत हिरासत में लिए जाने पर घटना और गिरफ्तारी के बीच सीधा कनेक्शन होना चाहिए. आप इसे तीन महीने पुरानी घटना से नहीं जोड़ सकते. यह शुरुआत में ही खत्म हो जाएगा.”
छह साल तक पब्लिक प्रॉसीक्यूटर रहने के अनुभव के आधार पर, फरेरा कहते हैं कि 80 प्रतिशत अपराध बाहरी लोगों द्वारा किए जाते थे, चाहे झगड़े हों, पत्थरबाजी हो या हत्या, लेकिन उन्होंने साफ कहा कि इन सब कदमों में दोहरा मापदंड है.
उनके अनुसार, प्रवासियों द्वारा कोम्युनिदाद ज़मीन पर बड़े पैमाने पर अवैध कब्ज़े हैं और उन्हें राज्य में लाए गए नए भूमि कानूनों से फायदा होगा.
उन्होंने कहा, “एक ओर सरकार उन्हें दोष दे रही है और दूसरी ओर उन्हें रेगुलर कर रही है. यह राजनीतिक कपट है, क्योंकि वे प्रवासियों की वोट बैंक बना रहे हैं.”
लेकिन सच यही है कि विरोधाभास ही दुनिया को चलाते हैं.
उधर एनएसए तीन महीने तक लागू रहेगा. इस दौरान संजय दास जैसे लोग रोज़ सुबह मजदूरी चौक पर आएंगे, औज़ार पीठ पर लटकाए, यह उम्मीद लेकर कि आज कुछ काम मिल जाए. वे गोवा को चलाते रहेंगे — घर बनाएंगे, खाना पकाएंगे, सड़कें साफ करेंगे और जब एनएसए खत्म हो जाएगा और डर कम हो जाएगा, तब भी वे यहीं होंगे, वही काम करते हुए, जो कोई और नहीं करना चाहता.
फिर भी अदृश्य. फिर भी दोषी.
यह लेख ‘गोवा लाइफ’ सीरीज़ का हिस्सा है, जो गोवा की पुरानी और नई संस्कृति को समझने की कोशिश करता है.
(करनजीत कौर पत्रकार हैं. वे TWO Design में पार्टनर हैं. उनका एक्स हैंडल @Kaju_Katri है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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