‘चीफ ने समस्या की जड़ को ही मिटा दिया : ‘बस!’ महान लेखक मारिया वर्गास लोसा ने यह पंक्ति किसी अन्य देश के किसी अन्य तानाशाह के बारे में लिखी थी. पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ—जिनका एक लंबे समय तक निर्वासित जीवन जीने और कैंसर से जंग लड़ने के बाद 78 साल की उम्र में रविवार को दुबई के एक अस्पताल में निधन हो गया—को भले ही साहित्यिक उपन्यास पढ़ने का शौक रहा हो या नहीं, वे इस राय से इत्तेफाक जरूर रखते होंगे कि ‘बीमारी जितनी बड़ी हो, उसका इलाज भी उतना ही जटिल होता है.’
लोसा के निरंकुश शासक की तरह ही जनरल मुशर्रफ ने भी अपने गुनाहों को माफ कर दिया था—जैसा उनकी आत्मकथा से जाहिर है जिसमें उन्होंने पाकिस्तान को भ्रष्ट राजनेताओं के चंगुल से बचाने के नाम पर 1998 के सैन्य तख्तापलट को जायज ठहराया, और 9/11 के बाद कठिन समय में देश की कमान संभाले रहने को अपनी सफलता करार दिया.
हालांकि, बहुत संभव है कि जनरल के आलोचक उन्हें एक अलग ही रूप में याद करेंगे—जो बड़े पैमाने पर मानवाधिकार उल्लंघन के जिम्मेदार थे, जिसमें न्यायेतर फांसी देना शामिल है; जिहादियों को संरक्षण देते थे; और तो और जिन्होंने संविधान को भी दरकिनार कर दिया था और इस वजह से राजद्रोह के लिए मौत की सजा का भी सामना किया.
तीन भाइयों में सबसे छोटे थे
1943 में सिविल सेवक सैयद मुशर्रफुद्दीन और उनकी पत्नी जरीन मुशर्रफ के घर जन्मे परवेज़ मुशर्रफ तीन भाइयों में सबसे छोटे थे. यह जो शख्स आगे चलकर पाकिस्तानी सेना का प्रमुख और राष्ट्रपति बना, चार साल की उम्र में ही पाकिस्तान चला गया था. उनकी परवरिश एकदम पाश्चात्य माहौल में हुई, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़े पिता और इंद्रप्रस्थ कॉलेज में शिक्षित मां ने एक समय एक कुत्ता पाल रखा था, जिसे वे व्हिस्की बुलाते थे.
कुछ साल तुर्की में बिताने के बाद यह परिवार 1956 में पाकिस्तान वापस लौटा. मुशर्रफ ने 18 साल की उम्र में काकुल में पाकिस्तान सैन्य अकादमी में शामिल होने से पहले फॉर्मन क्रिश्चियन कॉलेज यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की थी.
अपनी पीढ़ी के कई सैन्य अधिकारियों की तरह मुशर्रफ ने भी 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में हिस्सा लिया और 1971 में विशिष्ट स्पेशल सर्विस ग्रुप के साथ जंग लड़ी. उन्होंने 1987 में सियाचिन ग्लेशियर से लगे इलाके में अभियान—जो नाकाम रहा—के दौरान एक ब्रिगेड की कमान संभाली. यह जंग उनके लिए एक जुनून बन गई. 1988-1989 में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के समक्ष कारगिल पर कब्जा कर ग्लेशियर को हथियाने की योजना पेश की. इस पर उन्हें फटकार झेलनी पड़ी.
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1998 में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल जहांगीर करामत को बर्खास्त कर दिया. और उनके शक्तिशाली उत्तराधिकारी की तलाश में मुशर्रफ ही नवाज शरीफ की पसंद बनकर उभरे. जबकि दो अन्य वरिष्ठ उम्मीदवारों लेफ्टिनेंट-जनरल अली कुली खान और खालिद नवाज को दरकिनार कर दिया गया.
लेकिन नवाज शरीफ की यह पसंद आने वाले समय में उन पर ही भारी पड़ने वाली थी. मुशर्रफ लंबे समय से कारगिल को लेकर जिस साजिश का ताना-बाना बुन रहे थे, उसे उन्होंने 1999 में प्रधानमंत्री की जानकारी के बिना ही अंजाम दे दिया. नाराज नवाज ने अपने सेना प्रमुख को बर्खास्त कर दिया लेकिन जनरल मुशर्रफ, जो उस समय श्रीलंका से फ्लाइट से घर लौट रहे थे, उनकी ही सरकार का तख्ता पलटने की पूरी तैयारी कर चुके थे. आखिरकार प्रधानमंत्री को जेल जाना पड़ा और फिर देश से निर्वासन झेलना पड़ा. इसके साथ ही जनरल ने पाकिस्तान की कमान अपने हाथ में ले ली.
कारगिल के बाद कश्मीर में बढ़ी हिंसा इस बात का स्पष्ट संकेत थी कि जनरल अपने भारत विरोधी एजेंडे से पीछे नहीं हट रहे हैं. फिर 9/11 का हमला हुआ और अमेरिका ने पाकिस्तान को बमबारी करके ‘पाषाण युग में’ पहुंचा देने की धमकी दे डाली, बशर्ते उसने तालिबान पर काबू पाने में उसकी मदद नहीं की.
इसके बाद तो जनरल मुशर्रफ दोनों ही पक्षों की तरफ से खेल खेलने में सफल साबित हुए. उन्होंने तालिबान और कुछ सहयोगी जिहादी गुटों का समर्थन करना जारी रखा. और ठीक उसी समय वह अमेरिका को सैन्य और खुफिया सहायता भी मुहैया कराते रहे. हालांकि, जैसा अमूमन किसी भी डबल गेम में होता है, यह भी एक खतरनाक खेल साबित हुआ. उन्होंने जिन जिहादियों को डबल-क्रॉस किया, उनकी तरफ से कई बार हत्या की साजिशें रची गईं और पाकिस्तानी सेना के खिलाफ हिंसा में भी तेजी आ गई.
ये सारा घटनाक्रम चल ही रहा था कि इस बीच जैश-ए-मोहम्मद के जिहादियों ने नई दिल्ली में संसद भवन पर हमला कर दिया, जिससे भारत-पाकिस्तान के बीच एक संकट उत्पन्न हो गया. हालांकि, जनरल मुशर्रफ भारत को जंग छेड़ने से रोकने रोकने में सफल रहे, इस धमकी के साथ कि यह टकराव परमाणु संघर्ष में बदल जाएगा. बहरहाल, उन्हें जल्द ही एहसास हो गया कि इस संकट की पाकिस्तान को भी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है.
मुशर्रफ के सबसे करीबी सलाहकारों में से एक लेफ्टिनेंट-जनरल मोइनुद्दीन हैदर ने बाद में उन्हें यह सलाह देने की बात याद की कि ‘अगर आप चरमपंथियों से छुटकारा नहीं पाते तो आपकी कोई आर्थिक योजना काम नहीं करेगी, लोग आपके यहां निवेश नहीं करेंगे.’
हैदर को पूर्व खुफिया प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल जावेद अशरफ काजी सहित अन्य प्रभावशाली हस्तियों का समर्थन हासिल था. जनरल काजी ने 2001-2002 के भारत-पाकिस्तान सैन्य संकट के मद्देनजर कहा था, ‘हमें यह स्वीकारने में हिचकिचाना नहीं चाहिए कि जैश हजारों निर्दोष कश्मीरियों की मौत में शामिल है, भारतीय संसद पर हमले, (पत्रकार) डेनियल पर्ल की हत्या में भी उसका हाथ था और यहां तक कि उसने राष्ट्रपति मुशर्रफ की हत्या की साजिशें भी रचीं.’
भारत के साथ टकराव के खात्मे के लिए मुशर्रफ ने पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ पर्दे के पीछे की कूटनीति का एक महत्वाकांक्षी रास्ता अपनाया. हालांकि, इस योजना को बेहद मामूली सफलता ही मिली.
एक समय ऐसा आया जब पाकिस्तानी सैन्य नेतृत्व को आशंका सताने लगी कि मुशर्रफ की नीतियों और हमेशा सेना की मददगार रही इस्लामी ताकतों के साथ उनके टकराव की वजह से पाकिस्तान में आंतरिक संकट उत्पन्न हो सकता है, इसलिए उसने 2007 में चुपचाप उन्हें सैन्य दफ्तर से बाहर निकालने में अहम भूमिका निभाई. इसके बाद घटनाक्रम तेजी से बिगड़ने लगा. 2007 में न्यायपालिका के साथ टकराव के बीच मुशर्रफ को आपातकाल लगाने पर बाध्या होना पड़ा. उसी वर्ष बाद में पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो स्वदेश वापस लौट आईं, हालांकि इसका नतीजा केवल उनकी हत्या के रूप में ही सामने आया. फिर बाद में संयुक्त राष्ट्र की एक जांच में इसमें अधिकारियों की मिलीभगत होने की बात कही गई.
मुशर्रफ पर चलाया गया महाभियोग
2008 में कमान संभालने वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी-पाकिस्तान मुस्लिम लीग की नई सरकार ने मुशर्रफ पर महाभियोग चलाया, और उन्हें निर्वासन पर मजबूर किया, जैसा कि उन्होंने शरीफ के साथ किया था. राष्ट्रपति भवन में 9 साल बिताने के बाद मुशर्रफ एडगवेयर रोड से कुछ दूर तीन कमरों वाले एक अपार्टमेंट में रहने चले गए थे, जिसकी कीमत करीब 1 मिलियन पाउंड थी जो पाकिस्तान के अभिजात्य वर्ग के मानकों के लिहाज से बहुत मामूली था. लंदन के अरब बहुल इस क्वार्टर की आबोहवा में कबाब की दुकानों और शीशे के बने बार की गंध घुली रहती थी और जनरल मुशर्रफ कभी-कभार ही गोल्फ खेलने या डोरचेस्टर में डिनर करने के लिए घर से बाहर निकलते थे.
अपना देश छोड़ने के तीन साल बाद मुशर्रफ पाकिस्तान लौट आए लेकिन उनके राजनीतिक करिअर की सारी संभावनाएं खत्म हो चुकी थीं. 2013 में उन्हें घर में नजरबंद रखा गया. सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ के साथ घनिष्ठ व्यक्तिगत संबंधों के कारण अगले साल उन्हें इलाज के लिए देश छोड़ने की अनुमति मिल गई.
जनरल मुशर्रफ के आखिरी साल उनके कार्यकाल की गतिविधियों को लेकर कानूनी कार्यवाहियों के नतीजों से प्रभावित रहे. दिसंबर 2019 में, एक विशेष अदालत ने उन्हें देशद्रोही करार दिया और संविधान को रद्द करने और आपातकाल घोषित करने के लिए उनकी गैरमौजूदगी में ही मौत की सजा सुनाई. हालांकि, बाद में दोष सिद्धि रद्द कर दी गई, लेकिन मुशर्रफ कभी अपने वतन नहीं लौट पाए.
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