भारत में मोहनदास करमचंद गांधी को ‘महात्मा’ भी कहते हैं. और ‘राष्ट्रपिता’ भी. एक पदवी आध्यात्मिक है. दूसरी राजनीतिक है. इस तरह, एक ओर गांधी संत-महात्मा की श्रेणी में हैं. दूसरी ओर ऐसे राजनेता जिस ने मानो अकेले ब्रिटिश साम्राज्य को झुका दिया.
ध्यान दें कि ये दोनों उपाधियां मुख्य रूप से स्वतंत्र भारत की सरकार की ताकत और संसाधनों का उपयोग करके बनाई और प्रचारित की गई हैं. जैसे पूरे सोवियत शासन काल में व्लादिमीर इल्यीच लेनिन की छवि बनाए रखी गई थी. उस के पीछे सोवियत सत्ता की ताकत हटते ही वह छवि जल्द ही गुम हो गई.
वही स्थिति भारत में गांधी की छवि की है. राजकीय बल से सालों भर किसी न किसी बहाने गांधी-पूजा का अनुष्ठान चलता है. गांधी जी की राजनीतिक या आध्यात्मिक देन का वास्तविक मूल्यांकन हतोत्साहित रहता है. राजसत्ता का बल इस में भी लगा रहा है. गांधीजी की आलोचना को दंडनीय अपराध तक बनाने का प्रस्ताव कई बार आ चुका है. 2011 में जोसेफ लेलीवेल्ड की पुस्तक ‘ग्रेट सोल…’ के बाद तो केंद्र सरकार ने स्वयं सार्वजनिक रूप से वैसा विचार किया था. सो, गांधी की अनिंद्य छवि मुख्यतः सत्ताबल से बनाई गई है.
इसीलिए, गांधी की दोनों छवि कसौटी से परे रखी जाती है. यदि कोई गांधी की कथनी-करनी को किसी संत के लिए अनुचित बताए, तो कहा जाता है कि गांधी नेता भी थे और नेताओं को बहुत से उल्टे-सीधे काम करने पड़ते हैं. उसी तरह, जब नेता के रूप में गांधी के ऊट-पटांग और हानिकारक कामों या विचारों की आलोचना हो, तब कहा जाता है कि गांधी तो संत थे जिन की परख आम नेताओं जैसी नहीं की जा सकती. इस प्रकार, गांधी की दोनों छवि को आलोचना की कसौटी से मुक्त रखा गया है.
इस तरह, गांधी के प्रति केवल भक्ति बनाई गई है. चूंकि हिन्दुओं में देवी-देवताओं, अवतारों की पूजा, भक्ति सदियों से स्थापित है. गांधी को भी एक अवतारी पुरुष जैसा दिखा कर, ऊपर से 2 अक्टूबर को सार्वजनिक अवकाश, जगह-जगह चरखा, गांधी-चश्मा आदि की मूर्तियां, असंख्य प्रकार के राजकीय संस्थान बनाकर, और राजघाट पर बड़े राजकीय अनुष्ठान, आदि विविध तरीकों और धार्मिक आडंबर से उन्हें जबरन वह महत्व दे रखा गया है, जैसी सोवियत सत्ता ने लेनिन को दे रखी थी.
पर सच्चाई यह है कि किसी भी कसौटी पर कसने पर गांधी जी की दोनों छवि तुरत टूटने लगती है. यहां केवल राजनीतिक गांधी को लेकर देखें.
राजभक्त से खलीफा का रक्षक
भारत में नेता के रूप में गांधी का कैरियर 1915 ई. से शुरू हुआ. पर वे 1920 के कुछ बाद तक भी ब्रिटिश राज के पैरोकार थे. स्वयं अपने शब्दों में ‘राजभक्त’. ब्रिटिश सत्ता ने उन्हें दो बार मेडल (1901, 1915) भी दिया था. गांधी ने अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में लिखा भी था कि अंग्रेजों को भारत के शासक के रूप में हटाने की जरूरत नहीं. यही नहीं, प्रथम विश्व युद्ध में गांधी ने ब्रिटिश सेना में भारतीयों को भर्ती करने का अभियान चलाया था. यह न केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद की सेवा थी, बल्कि अपने घोषित ‘अहिंसा’ सिद्धांत के विरुद्ध था. सो, यह तो गांधी का सिद्धांत और सिद्धांत-निष्ठा रही.
ब्रिटिशराज-भक्ति की गांधी जी की वह टेक 52 वर्ष की परिपक्व आयु तक रही. यह उस जमाने के भारतीय व्यक्ति की औसत पूरी आयु होती थी. इस प्रकार, गांधीजी उस आयु तक राजभक्त ही रहे, और तब भी रहे जब पंद्रह वर्ष पहले ही यहाँ स्वदेशी राज की भावना देश-भर में फैल चुकी थी.
फिर, जब गांधी ने ब्रिटिश विरोधी आंदोलन शुरू किया, तब से उन के सभी बड़े राजनीतिक निर्णय और अभियान लगातार हानिकारक या विफल साबित होते रहे. इसे 1915 के बाद उन के राजनीतिक निर्णयों, अभियानों की विफलता या दुष्परिणाम से भी देख सकते हैं. उन का पहला बड़ा राजनीतिक अभियान खलीफत आंदोलन में कूदना और तमाम वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं के विरोध के बावजूद कांग्रेस को जबरन उस में झोंकना था. यह 1919-21 में चला.
गांधी का वह सब से बड़ा पहला आंदोलन ही इतना हानिकारक साबित हुआ कि उस की लीपापोती कर केवल उसे ‘असहयोग आंदोलन’ कहकर झूठा इतिहास प्रचारित किया गया है. इस की पूरी झलक अकेले डॉ आंबेडकर की पुस्तक ‘पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया’ (1940) से मिल जाती है. वह आंदोलन तुर्की स्थिति इस्लामी खलीफा की मदद के खालिस अंतरराष्ट्रीय इस्लामी आंदोलन था, जिस में गांधी अपने चित्र-विचित्र मनसूबों से कूदे. उस में भारत के हिन्दुओं को बहला कर झोंका गया. ‘खलीफा’ के बदले ‘खिलाफ’ शब्द को प्रचारित करके. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने लिखा है कि आम हिन्दुओं को कांग्रेस कार्यकर्ता समझाते थे कि यह अंग्रेजी राज के ‘खिलाफ’ है. फिर, उस आंदोलन के दौरान और उस की विफलता के बाद और भी, इस्लामी हुजूमों ने देश भर में जहां-तहां हिंदुओं का संहार किया. मोपला मुस्लिमों द्वारा हिंदुओं का संहार उस में सबसे कुख्यात हुआ. उस आंदोलन के सारे तथ्य डॉ. आंबेडकर की पुस्तक के अलावा भी सभी सच्चे इतिहास विवरणों में है, लेकिन इसे भारतीय नेताओं ने जबरन तहखाने में डाल रखा है, ताकि गांधी की छवि बचाई जा सके.
यह भारत में गांधी की राजनीतिक शुरुआत थी. मनमानी कल्पनाओं से, और कांग्रेस पर अपनी तानाशाही थोप कर. वही अंत तक चलता रहा. गांधी राजनीति को सदैव अपनी कल्पनाओं से समझते और चलाते रहे. अपनी उदारता और महत्ता से हर किसी को प्रभावित कर लेने और चमत्कारी परिणाम पाने की आशा उन्हें सदैव बनी रही थी.
वे राजनीति में सक्रिय राक्षसी शक्तियों को ‘प्रेम’ और ‘सत्याग्रह’ से जीत लेने का दावा रखते थे. चाहे इन धारणाओं का मतलब भी उन का अपना ही होता था.
असफलता की लगातार कड़ी, नुकसान
गांधी की ऐसी कल्पनाएं और दावा, दोनों बुरी तरह चूर-चूर होते रहे. लेकिन उन्होंने कभी समीक्षा नहीं की, न कभी अपने विचारों या तरीकों में बदलाव किया. न बार-बार विफलता के बाद भी नेतृत्व किंही और को लेने दिया. यह सब राजनीति में अक्षम्य गलतियां हैं. पर गांधी के मामले में इतिहास का मिथ्याकरण कर तथा ऊपर से ‘महात्मा’ का वजन डालकर सब रफा-दफा किया गया है. मामूली परख से भी यह साफ दिखता है.
भारत में गांधीजी के जो कार्य गिनाकर उन्हें महान बताया जाता है, वैसे कार्य अनेक भारतीय महापुरुषों ने किए थे. कई गांधी से बड़े ही साबित होते हैं. यह डॉ. लोहिया ने अपने विचारपूर्ण लेख ‘गांधीजी के दोष’ में लिखा है.
कुछ लोग कहते हैं कि गांधी ने कांग्रेस की एलीट, ड्राइंग-रूम राजनीति को आम-जनता की राजनीति में बदला. किन्तु ठीक यही कार्य घोर हानिकारक था. जिस की कड़ी आलोचना गोपाल कृष्ण गोखले, एनी बेसेंट, जिन्ना जैसे वरिष्ठतम कांग्रेस नेताओं ने ही नहीं, रवींद्रनाथ टैगोर तथा श्री अरविंदो जैसे समकालीन मनीषियों ने भी की थी. गांधी ने तब तक की संयत, संवैधानिक लोकतांत्रिक राजनीति करने लाली कांग्रेस को उत्तेजक भीड़वादी (मॉब) राजनीति में बदल दिया. जिस में पंडाल में भीड़ जुटाकर उन राजनीतिक मसलों पर हामी भरवाई जाती थी, जिस से संबंधित पूरी जानकारी उस भीड़ को नहीं होती थी. यह आलोचना कितनी सटीक थी, यह गाँधी द्वारा कांग्रेस को खलीफत आंदोलन से जबरदस्ती जोड़ने के भयावह नतीजों से भी देख सकते हैं.
इसीलिए, गांधी के भारतीय राजनीति में प्रवेश से अंत तक की परख करें, तो उन के अधिकांश राजनीतिक अभियान अनावश्यक, हानिकारक या विफल रहे. जैसे ‘अहिंसा’ की भरपूर विरुदावली गाने के बाद गांधी ने प्रथम विश्व-युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य के लिए सैनिक भर्ती कराई (1917-18). गांधी ने वैश्विक इस्लामी मुद्दे के लिए, एनी बेसेंट के शब्दों में ‘गांधी-खलीफत एक्सप्रेस’ (1919-21) चलाई. फलस्वरूप देश भर में एकतरफा सांप्रदायिक हिंसा हुई. गांधी ने मुस्लिमों को ‘ब्लैंक-चेक’ देने की पेशकश की. उन्होंने 1931 का खोखला गांधी-इरविन पैक्ट किया. गांधी मुस्लिम लीग की राजनीति के सामने सदा निरुपाय साबित हुए. उन्होंने 1942 का कुसमय ‘भारत-छोड़ो’ आंदोलन छेड़ा, जिस से अनजाने केवल हिटलरी फासिज्म की ही मदद होनी थी.
गांधी ने भारत एक बनाए रखने के लिए 1942 के क्रिप्स मिशन और 1946 के कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव ठुकराए, जिसे मुस्लिम लीग ने मान लिया था. गांधी ने ‘भारत का विभाजन मेरी लाश पर होगा’ की अपनी घोषणा से पलटने का विश्वासघात किया जिस से लाखों पंजाबी, बंगाली हिंदू-सिख बेमौत मारे गए. उन्होंने कांग्रेस को भंग करने की सलाह दी, जो बेकार रही. फिर, ‘जब मैं नहीं रहूंगा तब जवाहर मेरी भाषा बोलेगा’ जैसे कई वक्तव्य गांधी ने दिए, जिन की सचाई देते समय ही संदिग्ध थी.
यह कुछ बड़े उदाहरण हैं जो भारत में गांधीजी का राजनीतिक कैरियर हानियों और विफलताओं की अटूट श्रृंखला दिखाते हैं. कुछ विफलताएं ऐसी जिन से लाखों निरीह भारतवासियों की बलि चढ़ गई. किसी नेता द्वारा इतने बचकाने, खतरनाक फैसले और इतनी बड़ी गलतियों का लोकतांत्रिक दुनिया की राजनीति में दूसरा उदाहरण ढूंढना मुश्किल है.
बैकसीट से राजनीति
इसके बाद, गांधी का संगठन बनाने का तरीका कांग्रेस को हमेशा के लिए कमजोर और जिम्मेदारी से खाली बना दिया. और यही तरीका अन्य भारतीय पार्टियों ने भी बिना सोचे-समझे अपनाया. यह मॉडल था: दोहरी सत्ता या ‘बैक-सीट ड्राइविंग’, जिस का हानिकारक बोझ गांधी की ही देन है. कांग्रेस का निर्वाचित नेतृत्व एक सत्ता थी, मगर उसे गांधी रूपी अघोषित सत्ता के अनुसार चलना पड़ता था. सीधे प्रत्यक्ष नेतृत्व करने का जिम्मेदार रूप ठुकरा कर, गांधीजी ने परोक्ष, किन्तु पर्दे के पीछे से तानाशाही सत्ता चलाई. गांधी की इसी आदत ने कांग्रेस में अनुत्तरदायी परंपरा स्थापित की. एक सर्वोच्च नेता द्वारा बिना पद लिए सभी पदों पर नियंत्रण.
जब पट्टाभि सीतारमैया कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव हार गए तो गांधी ने ‘पट्टाभि की हार मेरी हार है’ कह कर विजेता सुभाषचंद्र बोस को पद छोड़ने पर मजबूर किया. इसी तरह, देश भर की कांग्रेस कमिटियों की इच्छा के विरुद्ध ‘जवाहर मेरा उत्तराधिकारी’ जैसे बयान देकर गाँधी ने योग्यता को दरकिनार कर निजी प्रेम-पात्र देश पर थोपा. ऐसी दोहरी सत्ता, उत्तरदायित्व-हीनता, और भाई-भतीजावाद को प्रश्रय के गांधी-मॉडल ने कांग्रेस को विचारहीन, पाखंडी, और एक-नेता-निर्भर बनाया. कांग्रेस के अग्रणी दल होने के चलते अधिकांश अन्य भारतीय दलों ने भी वही सब मजे से अपना लिया.
लीडर की पूजा करने की यह नई बुरी परंपरा
इसीलिए सोचें—राजनीतिक गांधी के विचारों और कामों में कोई भी ऐसा उदाहरण नहीं है जिसे दूसरों के लिए सही मानकर अपनाया जा सके. पर गांधी की अंध-पूजा यहां स्थापित की गई. इसे राजकीय नीति बना दिया गया. लोकतांत्रिक विश्व या हिन्दू-परंपरा में भी नेता-पूजा जैसी कोई चीज नहीं. बड़े-बड़े सम्राट तक इस के अपवाद नहीं रहे. राजा भरत से लेकर पृथ्वीराज चौहान तक, किसी भारतीय राजा का स्मारक, मूर्ति, छवि, आदि नहीं रखी गई. तब यह गाँधी-पूजा भारत में कहाँ से आई. यह क्षुद्र राजनीतिक कर्मकांड है. इस से राजनीति में गलत विचारों और तरीकों को महत्ता दिलाई गई.
जबकि गांधीजी का जीवन यह दिखाता है कि राजनीति कैसे नहीं करनी चाहिए. राजनीतिक गांधी में कुछ भी अनुकरणीय नहीं है. गांधीजी के सामने ही भारत के अधिकांश मनीषियों, ज्ञानियों ने उन की बातों, कामों को उचित नहीं माना था. पर सभी असुविधाजनक सच्चाइयों को दबा-छिपा कर स्वतंत्र भारत में गांधी-भक्ति जमाई गई है. इस से केवल नेताओं ने लाभ उठाया. जबकि देश और समाज की भारी हानि हुई. यह आज भी जारी है.
लेखक हिंदी के कॉलमनिस्ट और पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: भारत की भाषा नीति ने हिंदी को नुकसान पहुंचाया, न कि स्टालिन या ठाकरे भाइयों ने