प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में अपनी शानदार जीत के तुरंत बाद संसद में कहा था कि भारत में एक ‘क्रांतिकारी बदलाव’ – मौलिक अधिकारों की जगह मौलिक कर्तव्यों की केंद्रीय भूमिका की जरूरत है. मीडिया, संसद और आम जनता के बीच बहुतों ने इस बयान को सकारात्मक रूप से देखा और कुछ भी विवादास्पद नहीं पाया, मोदी संभवत: जॉन एफ केनेडी के आह्वान को अपने ढंग से दोहरा रहे थे कि ‘ये मत पूछो कि आपका देश आपके लिए क्या कर सकता है, सवाल ये है कि आप अपने देश के लिए क्या कर सकते हैं.’
इसके बाद ये खबर आई कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने उच्च शिक्षा के सभी संस्थानों को एक पत्र भेजा है, जिसमें संविधान दिवस मनाने के बारे में दिशा-निर्देश दिए गए हैं. पत्र की सबसे उल्लेखनीय बात ये है कि इसमें इस वर्ष के आयोजनों के संदर्भ में मौलिक कर्तव्यों पर बारंबार ज़ोर दिया गया है. लेकिन ये इस तरह का अकेला उदाहरण नहीं है. इससे पहले 2016 में भी एक पत्र भेजा गया था और उसमें भी मौलिक कर्तव्यों को समान रूप से विशेष महत्व दिया गया था. यह बिल्कुल स्पष्ट है कि मोदी और उनकी सरकार की मान्यता यही है कि संवैधानिक शिक्षा और संवैधानिक विमर्श मौलिक कर्तव्यों के इर्द-गिर्द केंद्रित होने चाहिए.
हाल ही में न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित अपने लेख में मोदी ने गांधी को उद्धृत किया ‘अधिकारों का असली स्रोत कर्तव्य है, यदि हम सभी अपने कर्तव्यों का पालन करें, तो हमें अधिकारों को ढूंढना नहीं पड़ेगा.’
इंदिरा कनेक्शन
विडंबना देखिए कि इस मामले में मोदी की राय पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलती-जुलती है. हमारे राष्ट्रनिर्माताओं ने 70 साल पहले जिस संविधान को अपनाया उसमें मौलिक कर्तव्य शामिल नहीं थे. इंदिरा गांधी ने इन्हें आपातकाल के दौरान 1976 में 42वें संविधान संशोधन के ज़रिए भाग-4ए के रूप में शामिल किया था. उन्होंने ‘अनुभवों के आधार पर संविधान में संशोधनों के लिए’ तत्कालीन विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था. अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (एआईसीसी) ने स्वर्ण सिंह कमेटी को ‘संविधान में शामिल करने के लिए नागरिकों के कतिपय मौलिक कर्तव्यों और दायित्वों की सूची तैयार करने’ का सुझाव दिया था.
इसके बाद समिति ने मौलिक कर्तव्यों की एक सूची तैयार की, जिसमें संविधान का पालन करना, भारत की संप्रभुता को अक्षुण्ण रखना तथा राष्ट्रीय सेवा में योगदान करना आदि शामिल थे, जिसमें कांग्रेस पार्टी ने थोड़ी फेरबदल की. उल्लेखनीय है कि कांग्रेस ने कमेटी के उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया, जिसमें संसद को मौलिक कर्तव्यों का पालन नहीं करने वाले नागरिकों को सजा देने और जुर्माना लगाने का कानूनी अधिकार देने की बात थी.
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नवंबर 1976 तक संसद के दोनों सदनों ने 42वां संशोधन पारित कर दिया, जिसमें संविधान में मौलिक कर्तव्यों का एक नया अध्याय शामिल था, 42वें संशोधन ने संविधान में कई महत्वपूर्ण बदलाव किए और इसलिए अक्सर इसे ‘लघु-संविधान’ या ‘इंदिरा संविधान’ कहा जाता है. इसने मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाने और शासन की शक्तियों का संतुलन इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार के पक्ष में करने का काम किया.
अधिकार हमेशा संविधान के केंद्र में रहे
कर्तव्यों पर ज़ोर देने के लिए मोदी का न्यूयॉर्क टाइम्स के अपने लेख में महात्मा गांधी को उद्धृत करना वैसे तो सही है, पर अधिकारों और कर्तव्यों पर गांधीवादी सोच भारत की संवैधानिक परंपरा का सिर्फ एक पहलू है. स्वतंत्रता आंदोलन की आग में तपकर निकली भारतीय संविधान की अधिकांश अवधारणाओं में अधिकारों पर ज़ोर दिया गया है न कि कर्तव्यों पर.
एक या दो उदाहरणों के अलावा, जब संविधान सभा के सदस्यों ने अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में गांधी के विचार को प्रतिध्वनित किया, हमें इस बात का कोई सबूत नहीं मिलता है कि जिससे किसी तरह का संकेत मिलता हो कि हमारे संविधान निर्माताओं ने किसी रूप में मौलिक कर्तव्यों को अपनाने पर गंभीरता से विचार किया हो. संभव है अधिकारों और कर्तव्यों के बीच संबंधों को लेकर उनका नैतिक और राजनीतिक विश्वास रहा हो, लेकिन उन्होंने भारतीय संविधान में इनको शामिल करना उचित नहीं समझा. मौलिक अधिकारों को सर्वाधिक महत्व दिया गया.
संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष बीआर आंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को- जिसमें मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध उपाय दिए गए हैं. ‘संविधान की आत्मा’ बताया था.
अधिनायकवादी शासनों का कर्तव्यों पर ज़ोर
इसका मतलब ये नहीं कि नागरिकों के अपने सह-नागरिकों और समाज के प्रति कतिपय कर्तव्यों संबंधी विचार महत्वपूर्ण नहीं है. हमारे संविधान के मौलिक कर्तव्यों के अध्याय की बहुत-सी बातें प्रशंसनीय हैं और उनके पालन की आकांक्षा की जानी चाहिए. लेकिन नेता और शासन जब कर्तव्यों को अधिकारों के समतुल्य बताने लगे या उससे भी आगे निकलकर कर्तव्यों को अधिकारों से अधिक महत्वपूर्ण बताने लगे, तो खतरे की घंटी बजनी चाहिए. खासकर जब ऐसा बहुसंख्यवादी राजनीतिक माहौल में और एक अधिनायकवादी नेता के शासन में किया जा रहा हो.
लेकिन, भला मोदी सरकार क्यों चाहती है कि हम स्वतंत्रता, समानता, गैर-भेदभाव, अल्पसंख्यक कल्याण आदि के अधिकारों पर कम ध्यान देते हुए इंदिरा गांधी के आपातकाल के दौरान संविधान में शामिल किए गए कर्तव्यों की अधिक परवाह करें? दरअसल अधिनायकवादी शासन जानता है कि इस तरह के ‘क्रांतिकारी बदलाव’ का वे खूब लाभ उठा सकते हैं.
सबसे पहले, यह बदलाव शासन को नागरिकों के अधिकारों के उल्लंघन पर एक मुखौटा डालने की अनुमति देता है. जब नागरिकों की मुख्य चिंता कर्तव्यों के पालन की हो, तो अधिकारों के मुद्दों पर उनका अधिक ध्यान नहीं जा पाता है. हम गलियों को स्वच्छ रखने की शासन की अपेक्षा पर ध्यान केंद्रित करेंगे और मैला ढोने वालों के अधिकारों से बेखबर रहेंगे.
शासन द्वारा अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में जवाबदेही की बात उठाने को, ‘कर्तव्यों’ वाली भाषा के सहारे, खुदगर्जी कहकर खारिज किया जा सकता है. जेएनयू-कन्हैया कुमार प्रकरण के दौरान ये बात सुनने को मिलती थी कि ‘आप अधिकारों की बात करते रहते हैं लेकिन कभी अपने कर्तव्यों के बारे में सोचा है?’ अभिव्यक्ति की आजादी और शासन की हिंसा से सुरक्षा के अधिकार के छात्रों के दावे के जवाब में इस तरह की बात की जाती थी कि ‘आप छात्र हैं, पढ़ाई करना आपका कर्तव्य है, न कि विरोध प्रदर्शन करना.’
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जब एक गणतंत्र को ये पट्टी पढ़ाई जाने लगे कि मौलिक कर्तव्य ही संविधान का सार तत्व हैं, तो फिर धीरे-धीरे लोग स्वयं ही कर्तव्य की अवधारणा की पूजा करना शुरू कर सकते हैं, भले ही इस कर्तव्य का संविधान में मौलिक कर्तव्यों वाले अध्याय की वास्तविक सामग्री से कोई लेना-देना नहीं है.
भाजपा सरकार भारत की संवैधानिक परंपरा की कतिपय गौण बातों, जो उसके विचारों से मेल खाती हैं- को चुनकर उन्हें संविधान की बुनियाद साबित करने में माहिर है. यह भारत के संवैधानिक और राजनीतिक इतिहास को लेकर आकर्षक समा बांधती है ताकि गणतंत्र के मूल आदर्शों के बारे में लोग भ्रमित हो जाएं. आज भारत के संविधान के मसौदे को अपनाए जाने की 70 वीं वर्षगांठ का दिन ये याद दिलाने का अच्छा अवसर है कि हमें खुद को इस बारे में शिक्षित करना होगा कि राष्ट्रनिर्माताओं ने हमारे लिए किस तरह के संवैधानिक गणतंत्र का सपना देखा था.
(लेखक बेंगलुरु स्थित सेंटर फॉर लॉ एंड पॉलिसी रिसर्च में कंस्टीट्यूशनल एंड सिविक सिटिज़नशिप के वरिष्ठ संपादक हैं। वह @vineethkrishnae हैंडल से ट्वीट करते हैं। यहां प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)
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