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Friday, 20 December, 2024
होममत-विमतखाने की चीजें हो या फिर व्यवसाय, कश्मीरियों ने हालात से निपटने के तरीके ईजाद कर लिए हैं

खाने की चीजें हो या फिर व्यवसाय, कश्मीरियों ने हालात से निपटने के तरीके ईजाद कर लिए हैं

अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद की परिस्थितियों में, कश्मीरी 2010 और 2014 के अपने अनुभवों, जिन्हें 2016 की अशांति के दौरान परिष्कृत किया गया था, को काम में ले रहे हैं.

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इस बात पर कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि अनुच्छेद 370 निरस्त किए जाने के बाद का कश्मीर किसी भी तरह से ‘सामान्य’ नहीं है. पर क्या कश्मीर 1989 के बाद कभी सामान्य रहा था? घाटी में 2010, 2014 और 2016 में अशांति के तीन दौर के बाद कश्मीरी हालात को सहने और असामान्य परिस्थितियों को नए सिरे से सामान्य बनाने के तरीकों में माहिर हो चुके हैं. हालात का सामना करने के ये तरीके तमाम तरह की अनिवार्य वस्तुओं और सेवाओं के संदर्भ में देखे जा सकते हैं – खाद्य पदार्थ और दवाओं से लेकर स्कूलों और दुकानों तक में.

खाद्य पदार्थों का भंडारण

श्रीनगर के सूरा इलाके में आमतौर पर यही माना जा रहा था कि शटडाउन अनिश्चित काल तक चलेगा. लोगों का काम कैसे चलेगा, इस सवाल पर ‘हमारे पास पूरे साल के लिए काफी है’ से लेकर ‘अभी तीन महीने के लिए, उसके बाद रास्ते पे आके मरेंगे और क्या’ तक के जवाब मिले. मुझे जल्दी ही इस बात का अहसास हो गया कि कश्मीर में जमाखोरी की नैसर्गिक प्रवृत्ति है क्योंकि वे सर्दियों के लंबे और कठोर मौसम के लिए ज़रूरी चीज़ों का भंडारण करते रहे हैं. घाटी में मैं जिस घर में भी गया, बिना अपवाद वहां चावल तथा सुखाए गए कद्दू और बैंगन (कुछ अन्य को मैं पहचान नहीं सका) जैसी सब्जियों की बोरियां दिखीं.

इसी तरह ठेलों पर सामान बेचने वालों का धंधा भी, चाहे वे मछली और मटन कबाब बेच रहे हों या सब्जियां, पहले ही की तरह चल रहा है. सबसे उल्लेखनीय बात तो ये है कि आपको ताजा केले और नारंगी भी बिकते दिख जाएंगे जो कि घाटी में नहीं उगाए जाते हैं. साफ है कि कश्मीरियों को जिन बातों को लेकर चिंता है, उनमें खाद्य पदार्थ शामिल नहीं हैं.

स्कूलों को अभिभावकों का साथ

स्कूल भी हालात से निपट रहे हैं. स्कूल खुले हैं, हालांकि मुख्य मार्ग पर खुलने वाले दरवाज़ों से वहां प्रवेश नहीं दिया जाता है. अंदर पहुंचने पर आपको सारे शिक्षक मौजूद मिलेंगे – जिस भी स्टाफ रूम में मुझे जाने का मौका मिला वहां चाय की चुस्की लेते शिक्षक मौजूद दिखे – पर छात्र लगभग पूरी तरह अनुपस्थित हैं. हर स्कूल में मुझे 20 से 40 बच्चे ही दिखे, और वे स्कूल यूनिफॉर्म में नहीं थे.

कई प्रधानाध्यापकों से बातचीत करने से मुझे शटडाउन से निपटने के स्कूलों के तरीकों की जानकारी मिली. स्कूलों ने 2010 और 2014 के अनुभवों के आधार पर, जिसे 2016 में ठोस रूप दिया गया, छात्रों के लिए विस्तृत अध्ययन मॉड्यूल बना रखे हैं. अभिभावकों को हर पखवाड़े अपने बच्चों के होमवर्क जमा कराने होते हैं और नए होमवर्क लेने के लिए उन्हें यूएसबी ड्राइव लेकर जाना होता है. ये सब कोई चोरी-चुपके नहीं होता है, बल्कि स्कूल स्थानीय अखबारों में होमवर्क वितरित करने और जमा कराने के बारे में अभिभावकों के नाम विज्ञापन प्रकाशित कराते हैं.

इससे ये मिथक भी टूट जाता है कि कश्मीर में अख़बार नहीं छप रहे हैं. स्कूलों के ऐसे विज्ञापन – और बांग्लादेश में एमबीबीएस की पढ़ाई के अवसरों वाले विज्ञापन – अखबारों की आमदनी के प्रमुख स्रोत हैं.

पर कक्षाओं के लिए सीमित संख्या में जो छात्र स्कूल पहुंचते हैं, वे मौजूदा हालात से नाखुश हैं. उनका कहना है कि उन्हें सौंपी जाने वाली अध्ययन सामग्री तो विस्तृत होती थीं, पर वो आमने-सामने की इंटरैक्टिव पढ़ाई का विकल्प नहीं हो सकती जहां कि आपकी जिज्ञासा को शांत करने के लिए शिक्षक मौजूद होते हैं. शिक्षकों ने नई व्यवस्था में अभिभावकों पर बोझ पड़ने की बात स्वीकार की, लेकिन साथ ही ये भी दावा किया कि पूरा किए जा रहे होमवर्क की गुणवत्ता में किसी तरह की गिरावट नहीं देखने को मिली है.

कश्मीर की परिस्थितियों – पूर्व की और मौजूदा दोनों ही – का शिक्षा व्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा है. सरकार ने सालाना परीक्षाओं के बगैर छात्रों को अगली कक्षा में प्रोन्नत करने का रास्ता चुना है, जैसा कि 2016 की अशांति के दौरान 5वीं से 9वीं और 11वीं के लिए किया गया था. स्वत: ही पास नहीं किए गए छात्रों को शटडाउन खत्म होने पर या छह महीने के बाद परीक्षा में बैठने का विकल्प दिया गया है. दोनों में से कोई भी तरीका ठीक नहीं कहा जा सकता. पहले में जहां सबको पास कर मेरिट की अनदेखी की जाती है, वहीं दूसरे में कमज़ोर छात्रों को पढ़ाई की अवधि बढ़ाने के लिए बाध्य किया जाता है जिससे उनके समय पर कॉलेज में एडमिशन पाने की संभावना कम हो जाती है.

निडर दुकानदारों के जुगाड़

कश्मीर में दुकानों की स्थिति का आकलन करना सर्वाधिक कठिन है क्योंकि विभिन्न ज़िलों में स्थितियों में भारी अंतर है. जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है कि रेहड़ी लगाने वालों के धंधे में अभूतपूर्व तेज़ी आई हुई है. पर, श्रीनगर में मौजूदा हालात से निपटने का एक और तरीका देखने को मिला. पोलो ग्राउंड के एक छोर पर लगने वाला संडे मार्केट अब पूरे सप्ताह मौजूद रहता है, जहां घरेलू काम की तमाम चीज़ें और कपड़े मिलते हैं. जबकि स्थाई दुकान वालों की शिकायत है कि ‘कर्फ्यू के कारण’ उन्हें अक्सर शटर गिराना पड़ जाता है. ये भी सुनने को मिला कि हर शाम गाड़ियों पर पुलिस वाले आकर दुकानों को बंद करा जाते हैं. हालांकि कोई दुकानदार इस बाबत वीडियो सबूत उपलब्ध नहीं करा सका.

जिस दिन मैं श्रीनगर पहुंचा, मैंने गौर किया कि दुकानें सुबह 10 बजे तक खुली थीं और दोबारा शाम में 6 से 8 बजे तक उन्हें खोला गया था. हालांकि सात दिनों के भीतर इस अवधि में बढ़ोत्तरी देखने को मिली– अब सुबह 11-11.30 तक और शाम को 4 बजे से 9 बजे तक दुकानें खुल रही थीं. बारी-बारी से दुकानों का खुलना भी दिखा. तीन-चार दुकानें खुली रहती थीं, पर आसपास की बाकी दुकानें बंद; एक घंटे के बाद खुली दुकानें बंद हो जाती थीं और बंद दुकानें खुल जाती थीं. कुछ दुकानदार पूरी अवधि दुकानों पर मौजूद दिखे, पर उनकी दुकानों के शटर आधे या तीन चौथाई गिरे रहते थे.

श्रीनगर के रेजिडेंसी मार्ग पर 80 प्रतिशत दुकानें दिन में कभी न कभी खुलीं और चार से आठ घंटे तक खुली रहीं. अपने प्रवास के दौरान दुकानदारों से बातचीत में स्पष्ट हो गया कि उन्हें उग्रवादियों का भय नहीं था, बल्कि वे पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस के ‘गुंडों’ से डर रहे थे जो कथित रूप से दुकानदारों को धमकाते हैं. हालांकि, पूरी अवधि खुली रहने वाली सारी दुकानें सीआरपीएफ या जम्मू कश्मीर पुलिस की चौकियों के 10-15 मीटर के दायरे में ही सीमित थीं.

बडगाम की स्थिति थोड़ी अलग है. यहां शियाओं के एक आध्यात्मिक नेता आगा हसन ने उन्हें घर में नज़रबंद किए जाने के विरोध में दुकानें बंद रखने का आह्वान किया है. पर हसन के एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी और जम्मू कश्मीर शिया संघ के अध्यक्ष इमरान रज़ा अंसारी के समर्थक मानो हसन समर्थकों को चिढ़ाने के लिए अपनी दुकानें खोलते हैं. इसी तरह बडगाम के सुन्नी बहुल ग्रामीण इलाकों में भी दुकानदार शिया नेता की अवहेलना में अपनी दुकानें (कम संख्या में और अधिकतर किराना की) खुली रखते हैं.

इसी तरह शोपियां और पुलवामा में परिस्थितियां अलग हैं और बेकरी की दुकानों के अपवाद के साथ ये घाटी का एकमात्र ऐसा इलाका है जहां पूर्ण शटडाउन नज़र आता है. हालांकि नज़रों को धोखा भी हो सकता है. क्योंकि कुछ बच्चों ने मुझसे कहा, ‘हम तो सब एक दूसरे को जानते हैं, जब कुछ चाहिए, उनके घर जाकर पूछते हैं.’ मतलब, आपको बाज़ार घूमने का मौका नहीं मिलेगा, पर यदि आपको कोई चीज़ चाहिए तो वो आपको मिल जाएगी.

जाहिर तौर पर, स्थितियां आदर्श नहीं हैं, पर निश्चय ही इतनी निराशाजनक भी नहीं हैं जैसा कि कुछ लोग साबित करना चाहते हैं. कश्मीरियों में विषम परिस्थितियों को सहने की ताकत है और वे बीते वर्षों में विपरीत हालात से निपटने के ठोस तरीके निकाल चुके हैं. खास कर दुकानदार शटडाउन को चुनौती देते नज़र आते हैं और हर खुला शटर स्थानीय बाहुबलियों के आदेश की अवज्ञा को दर्शाता है. हालात के बयान का सबसे बढ़िया तरीका होगा चार्ल्स डिकेंस की कालजयी कृति ‘ए टेल ऑफ टू सिटीज़’ की शुरुआती पंक्ति में थोड़ी फेरबदल करना: ‘ये सर्वश्रेष्ठ समय नहीं था, पर ये बदतरीन समय भी नहीं था.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज़ में वरिष्ठ अध्येता हैं. वह @iyervval से ट्वीट करते हैं. यहां प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)

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