बहुत समय के बाद पिछले कुछ महीने, विपक्ष के लिए सबसे अच्छे रहे हैं- जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के खिलाफ़, उठाने के लिए बहुत सारे मुद्दे मिल गए हैं लेकिन फिर भी, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने ख़ामोशी अपनाई हुई है और अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ भी खुलकर बोलते नज़र नहीं आ रहे हैं.
कहां हैं वो युवा यादव? वो इतने लो प्रोफाइल क्यों बने हुए हैं, जबकि उनके प्रदेश में चुनावों को दो साल भी नहीं बचे हैं? ऐसे महत्वपूर्ण समय में वो आक्रामक रूप से सामने क्यों नहीं हैं, ख़ासकर जब उनके पिछले दो चुनाव बिल्कुल तबाह करने वाले थे और एक लीडर के तौर पर ख़ुद को साबित करने के लिए उन्हें हर मुमकिन मौक़े को लपकने की ज़रूरत है?
अखिलेश यादव की दिक़्कत ये है कि युवा और ज़मीनी नेता होने की वजह से, शुरुआती उत्साह के अलावा, कोई चीज़ उनके पक्ष में नहीं गई है. वो बैसाखियों के कुछ ज़्यादा ही आदी हो गए- पहले उनके पिता मुलायम सिंह यादव और चाचा, बाद में कांग्रेस व बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी)- और अब बिना किसी खंभे के वो दिशाहीन लगते हैं. नाज़ुक अवसरों पर ‘साए में रहना’ उनके किसी काम नहीं आ रहा है. इधर अखिलेश बैसाखियों में बंधे हैं, उधर बीमार मुलायम सिंह यादव, संसद के चालू मॉनसून सत्र के पहले दिन ही नज़र आ गए.
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नियम बदल गए हैं
नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने सियासत के नियम ही बदल दिए हैं. ख़ामोशी के साथ परदे के पीछे रहकर काम करना, अब किसी भी महत्वाकांक्षी नेता का अंदाज़ नहीं रह गया है (नवीन पटनायक जैसे लोग एक दुर्लभ अपवाद हैं). मिलने-जुलने, दिखने और एक दूसरे से जुड़ाव की आज की सियासत में, आपका अच्छे से सुना और देखा जाना ज़रूरी है, ख़ासकर अखिलेश जैसे नेता के लिए, जिन्हें अपना अतीत पीछे छोड़कर, जो वैसे भी बहुत शानदार नहीं है, अपने आपको फिर से सामने लाना होगा और बीजेपी को चुनौती देने के लिए खुद को एक मज़बूत लीडर के तौर पर पेश करना होगा.
लेकिन अखिलेश यादव ख़बरों और लोगों के दिमाग़ से लगभग ग़ायब हो गए हैं. कहीं ज़्यादा अस्थिर और ग़ायब होने वाले राहुल गांधी भी, मोदी के खिलाफ आक्रामक अभियान चलाए रखने में कामयाब रहे हैं. पिछले 6 महीने में सरकार को घेरने के, बहुत से आसान मौक़े आए हैं लेकिन लगता है कि यूपी के पूर्व सीएम ने वो सब गंवा दिए हैं.
एक के बाद एक खोते अवसर
2014 में सत्ता में आने के बाद से, मौजूदा दौर मोदी सरकार के लिए काफी मुश्किल भरा रहा है. उस समय विपक्ष के पास, सरकार के खिलाफ कोई गोला-बारूद नहीं था, ख़ासकर राहुल गांधी के सूट-बूट की सरकार के ताने के बाद, जब उसने अपना रास्ता बदल लिया था. नोटबंदी जैसी दूसरी बड़ी विफलताओं की, मतदाताओं पर मिली-जुली प्रतिक्रिया रही, इसलिए वो भी विपक्ष के लिए कोई उपजाऊ ज़मीन नहीं बन सकी. यही कारण है कि कांग्रेस को राफेल आरोपों के रूप में, तिनके का सहारा मिल गया, हालांकि वो दांव भी उल्टा ही साबित हुआ.
लेकिन वर्तमान कार्यकाल अलग रहा है- तेज़ी से फिसलती अर्थव्यवस्था, एक स्वास्थ्य इमर्जेंसी जिसने उसे एक मानवीय संकट में बदल दिया, सरहद पर चीन, नीट-जेईई विवाद और उसके नतीजे में युवाओं का रोष. विपक्षी पार्टियां जिन मुद्दों पर मोदी को घेर सकती थीं, उनकी लिस्ट काफी लंबी है. और ये केवल पिछले 6 महीनों के हैं- नागरिकता संशोधन अधिनियम- नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़ंस के खिलाफ प्रदर्शन, इनसे कुछ पहले ही हुए थे.
ये सब मुद्दे अखिलेश यादव के लिए बिल्कुल उपयुक्त हैं. उनका चुनावी प्रदर्शन भले ही शानदार न रहा हो लेकिन उनकी छवि एक ज़मीन से जुड़े नेता की है. उन्हें प्रवासी संकट और लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था के, मतदाताओं पर पड़ने वाले असर को, बहुत आक्रामकता से और सामने आकर उठाना चाहिए था. युवा नेता के तौर पर, रोज़गार का नुक़सान और नीट-जेईई पर ग़ुस्सा, उनके लिए बहुत अच्छे हथियार बन सकते थे. अखिलेश को समझना होगा कि ख़ाली ट्वीट करने से कभी काम नहीं चलेगा.
प्रदेश स्तर पर, क़ानून व्यवस्था के मोर्चे पर योगी आदित्यनाथ का ख़राब प्रदर्शन, एक और अहम मुद्दा बन सकता है, जिसके सहारे अखिलेश अपनी राजनीति को आगे बढ़ा सकते हैं. अहम इलाक़े में खोए अखिलेश यादव नियंत्रण में होने की अपेक्षा, खोए हुए ज़्यादा लगते हैं. मोदी सरकार के खिलाफ उनका दिखने वाला आख़िरी अभियान सीएए-एनआरसी मुद्दे पर था. उसके बाद से वो जैसे एक खोली में वापस चले गए हैं. कहने का मतलब ये नहीं है कि समाजवादी पार्टी लीडर निष्क्रिय हो गए हैं. उनका ट्विटर हैंडल सक्रिय है और दिल्ली व लखनऊ दोनों जगह, सरकार को नियमित रूप से निशाने पर लेता रहता है. वो लखनऊ में मौजूद रहे हैं और आगे रहकर अपनी पार्टी की अगुवाई कर रहे हैं, जिसमें संगठनात्मक बदलाव करना, और वीडियो कॉनफ्रेंसिंग के ज़रिए, नियमित रूप से अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के संपर्क में रहना शामिल हैं.
अखिलेश जातियों के गठबंधन का संतुलन बिठाने का भी प्रयास कर रहे हैं और सुनिश्चित कर रहे हैं, कि 2017 विधान सभा चुनावों के उलट, समाजवादी पार्टी, राज्य में ओबीसी वर्ग की पसंद बनी रहे, ख़ासकर ग़ैर-यादव ओबीसी वर्ग की. उनकी ख़ामोशीइसलिए भी ज़्यादा गूढ़ हो जाती है, क्योंकि सरकार ओबीसी कोटे को पुनर्गठित करने पर विचार कर रही है, जो संभावित रूप से उनके जनाधार को ध्वस्त कर सकता है.
उत्तर प्रदेश स्थित पत्रकार बताते हैं कि अखिलेश की पूरी मशीनरी किस तरह पिछड़ रही है. उनका कहना है कि दीन-हीन दशा में पड़ी कांग्रेस और प्रदेश की सियासी बेबी आम आदमी पार्टी भी अपने संदेश भेजने और मीडिया को संभालने में, कहीं ज़्यादा तेज़ और कारगर हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव 2022 के शुरू में होना है- अब से क़रीब डेढ़ साल में. ये समय अखिलेश के लिए बहुत क़ीमती है, क्योंकि उनके चुनावी फैसले, राजनीतिक कौशल और अपना ख़ुद का ब्रांड बनाने की क्षमता, 2017 की चुनावी हार के बाद, गंभीर सवालों के घेरे में है.
वो 2012 में पार्टी संगठन, और पिता मुलायम सिंह यादव के एहतियात के साथ बिठाए, जातीय समीकरण की बदौलत सत्ता में आए थे, हालांकि इसमें उनकी अपनी अपील भी शामिल थी. 2017 के चुनाव में, उन्हें कांग्रेस के रूप में एक नया खंभा मिल गया, और 2019 के लोकसभा चुनावों में बीएसपी. ये दोनों ही बैखियां उन्हें ले डूबीं. 2017 ने साबित कर दिया कि चुनाव जीतने के लिए, केवल जातीय समीकरण से काम चलने वाला नहीं है, यूपी जैसे राज्य में भी नहीं, और आपको वो अतिरिक्त जोश चाहिए, जो मोदी बीजेपी में लाए हैं. तो फिर अखिलेश ख़ुद को वोटर के लिए ज़्यादा आकर्षक कैसे बना सकते हैं? उन्हें सड़कों पर उतरा हुआ दिखना चाहिए था.
यूपी कांग्रेस प्रमुख अजय कुमार लल्लू भी, ‘प्रवासियों के लिए बस’ के सियासी ड्रामे को लेकर, अपना संदेश देने में कामयाब रहे. दूसरे ‘यूपी के लड़के’ राहुल गांधी ने भी, यादव से कहीं ज़्यादा ख़राब छवि के बावजूद, एक रणनीति बना ली है, जिसमें वो अपने इंटरव्यूज़ के ज़रिए, प्रासंगिक और प्रकट बने रहते हैं.
आज भारत का वोटर अपेक्षा रखता है, निर्मम है, और उसकी याददाश्त बहुत बेसब्र और छोटी है. अखिलेश यादव ऐसा नहीं कर सकते, कि सुर्खियों से दूर बने रहें, और परदे के पीछे के, मैनेजर के रूप में देखे जाएं. लगभग एक साल पहले, मैंने इन कॉलम्स में एक पीस लिखा था कि समाजवादी पार्टी प्रमुख अपनी पार्टी के, राहुल गांधी बनने की राह पर हैं. अखिलेश यादव की बदक़िस्मती ये है कि राजनीतिक रूप से अयोग्य होने के मामले में, वो राहुल गांधी को पछाड़ने की राह पर नज़र आ रहे हैं और चट्टान की तरह मज़बूत बीजेपी से मुक़ाबला करने में अक्षम दिख रहे हैं.
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(व्यक्त विचार निजी हैं)
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Ye jhuta vichar dena band karo , itna jhut bolkar jinda kaise rahte hai