उत्तर प्रदेश की 17 अति पिछड़ी जातियों के आरक्षण का विवाद एक बार फिर सामने आ रहा है. अब तक बीजेपी कह रही थी कि पिछड़ी जातियों में बंटवारा करके इन जातियों को अलग कटेगरी में डाला जाएगा, ताकि इन्हें आरक्षण का लाभ मिल सके. इसके लिए उत्तर प्रदेश में एक आयोग भी बनाया गया, जिसने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है. रिपोर्ट में ओबीसी को तीन हिस्सों में बांटने की सिफारिश की गई है. लेकिन उस रिपोर्ट पर कार्रवाई करने की जगह, ताजा घटनाक्रम में योगी आदित्यनाथ सरकार ने इन सभी जातियों को एससी यानी अनुसूचित जाति का सर्टिफ़िकेट जारी करने का आदेश दिया है.
इन जातियों को पिछली तीन सरकारों (मुलायम सिंह, मायावती, अखिलेश यादव) ने भी अनुसूचित जाति में शामिल कराने की कोशिश की थी, लेकिन ये मामला कभी हल नहीं हो पाया. इस विवाद के ऐतिहासिकता को देखते हुए, बीजेपी सरकार के इस निर्णय को समझने की ज़रूरत है.
इस लेख में अतिपिछड़ी जातियों की समस्याओं को ऐतिहासिक परिपेक्ष में समझने के साथ उनकी अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की मांग पर भी प्रकाश डाला गया है, साथ ही अनुसूचित जाति में किसी जाति को शामिल करने के संवैधानिक प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए सपा-बसपा और अब भाजपा सरकार की कोशिशों की पड़ताल की गयी है.
अतिपिछड़ी जातियों की ऐतिहासिक मांग
उत्तर प्रदेश में अतिपिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की कोशिश नई नहीं है. 2012 में अखिलेश यादव सरकार ने जब इसकी पहल की थी, तब मैंने ख़ुद इस मुद्दे को समझने के लिए फ़ील्डवर्क करके डाटा इकट्ठा किया. उस दौरान विवाद से जुड़ी चार बातें निकलकर आयीं.
बेहद पुरानी मांग
एक, अतिपिछड़ी जातियों की अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग आज़ादी के बाद से ही चली आ रही है.नब्बे के दशक में केंद्र सरकार ने जब महाराष्ट्र के नव बौद्धों को अनुसूचित जाति के आरक्षण का लाभ देने के लिए राष्ट्रपति के आदेश में संशोधन किया था, तब इस माँग ने एक बार फिर ज़ोर पकड़ लिया था. उस दौर में इन जातियों को केंद्र सरकार की सेवाओं में किसी भी प्रकार का आरक्षण नहीं मिलता था. क्योंकि तब तक मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू नहीं हुई थी.
छुआछूत की शिकार
दूसरा तथ्य यह निकला कि ये जातियां भी छूआछूत की शिकार हैं. बेशक अनुसूचित जाति में शामिल वर्तमान जातियों से कहीं कम, तो कहीं ज़्यादा. उस दरम्यान ही यह भी पता चला कि कई प्रदेशों में इनमें से कुछ जातियां अनुसूचित जाति में शामिल हैं,मसलन, पश्चिम बंगाल में मछुआरा समुदाय की ज़्यादातर जातियों अनुसूचित जाति में हैं. अविभाजित उत्तर प्रदेश में लोहार जाति पहाड़ पर तो अनुसूचित जाति थी, जबकि मैदानी क्षेत्र में अन्य पिछड़ा वर्ग. इसी तरह धोबी जाति उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति में शामिल है, जबकि कई राज्यों में पिछड़े वर्ग में है। ऐसी व्यवस्था किस सिद्धांत से बनी, समझ से बाहर है.
बेगारी करनी पड़ी
तीसरा, अनुसूचित जाति की भांति इन जातियों को आज़ादी के बाद भी बेगारी और जातिगत पेशे में रहने के लिए मजबूर किया गया. अनुसूचित जातियों जैसी प्रताड़ना झेलने के बाद भी इनको अनुसूचित जातियों जैसा क़ानूनी संरक्षण नहीं मिला, इसलिए ये जाति-व्यवस्था के ख़िलाफ़ उस तरह बगावत नहीं कर पायीं, जिस तरह अनुसूचित जातियों ने किया. उक्त कारण से आज भी इनकी सामाजिक और शैक्षणिक हालत ख़राब है.
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परंपरागत रोजगार से वंचित
आख़िरी और वर्तमान समय में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य. पिछले तीस वर्षों से जिस तरह से नव उदारवादी आर्थिक नीतियों लागू हुईं, उससे इन जातियों का पारम्परिक रोज़गार भी छीन गया, जिससे इनको खेतिहर मज़दूर बनने पर मजबूर होना पड़ा है. खेतिहर मज़दूरी में इनके साथ ख़ासकर महिलाओं के साथ जातिगत भेदभाव होता है. अनुसूचित जाति/जनजाति अधिनियम जैसा क़ानूनी संरक्षण न होने की वजह से ये मुखर होकर अपना बचाव भी नहीं कर पातीं. इसलिए ये जातियां अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने के लिए प्रयासरत हैं.
अनुसूचित जाति/जनजाति में शामिल किए जाने का संवैधानिक प्रावधान
नागरिकों के मूलभूत अधिकार में शामिल संविधान का अनुच्छेद- 16(4) पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने का प्रावधान करता है, लेकिन पिछड़े वर्ग में कौन-कौन शामिल होगा, इसको यह अनुच्छेद परिभाषित नहीं करता. संविधान सभा में पिछड़े वर्ग की परिभाषा को लेकर काफ़ी बहस हुई थी, जिसको सुलझाने के लिए संविधान में तीन और अनुच्छेद- 340, 341, और342 जोड़े गए.
इसमें अनुच्छेद-340 ने आने वाली सरकारों को ज़िम्मेदारी दी कि वो एक कमीशन बनाकर अन्य पिछड़े वर्ग की पहचान करे, जिसके तहत पहले काका काकेलकर आयोग और बाद में मंडल आयोग बना. अपने पिछले कार्यकाल में नरेंद्र मोदी सरकार ने इसी अनुच्छेद 340 के तहत जस्टिस रोहिणी आयोग का गठन किया और उसे पिछड़े वर्ग में विभाजन का आधार ढूंढने को कहा.
अनुच्छेद- 341 किसी जाति को अनुसूचित जाति और अनुच्छेद-342 किसी जनजाति को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने का प्रावधान करता है. ताज़ा विवाद का सम्बंध अनुच्छेद-341 से ज़्यादा है, इसलिए इसे व्यापक तरीक़े से समझने की ज़रूरत है.
इस अनुच्छेद में दो उप-उपबन्ध हैं, जिसमें पहला यानी 341(1) कहता है कि राष्ट्रपति, राज्यपाल की सलाह से किसी जाति/नस्ल को सम्बंधित राज्य की अनुसूचित जाति की लिस्ट में शामिल करने की अधिसूचना जारी कर सकते है. दूसरा उप-उपबन्ध 341(2) कहता है कि संसद क़ानून बनाकर किसी राज्य की किसी जाति/नस्ल को अनुसूचित जाति से बाहर कर सकती है.
कैसे कोई जाति एससी की लिस्ट में शामिल होती है?
ध्यान देने वाली बात है कि कोई जाति/नस्ल अनुसचित जाति में राष्ट्रपति के आदेश से ही शामिल की जा सकती है, और संसद के बनाए क़ानून से ही बाहर हो सकती है. कोई भी राज्य सरकार अपने स्तर से किसी जाति/नस्ल को अनुसूचित जाति/जनजाति में शामिल नहीं कर सकती. राज्य सरकार राज्यपाल के माध्यम से राष्ट्रपति को केवल प्रस्ताव भेज सकती है. राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सलाह पर जब तक उस प्रस्ताव पर अपनी सहमति देकर, उसको भारत सरकार के गेजेट में प्रकाशित नहीं कर देता, तब तक कोई भी जाति/नस्ल अनुसचित जाति में शामिल नहीं मानी जाती.
सुप्रीम कोर्ट ने इस संवैधानिक व्यवस्था को अपने निर्णयों में बार-बार दोहराया है, यहां तक कि अभी हाल ही में आए प्रमोशन में आरक्षण के निर्णय में भी इसी व्यवस्था को दोहराया है.
संवैधानिक व्यवस्था पर सपा-बसपा और भाजपा की नूराकुश्ती
किसी जाति को अनुसूचित जाति/जनजाति में शामिल किए जाने की स्पष्ट संवैधानिक व्याख्या के बावजूद उत्तर प्रदेश में उक्त अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की ईमानदारी से कोशिश नहीं की गयी. इस दिशा में सबसे पहली कोशिश मुलायम सिंह यादव ने 2004 में राज्य विधानसभा से क़ानून बनाकर किया, जो कि असंवैधानिक था, क्योंकि इस विषय पर राज्य की विधानसभा को क़ानून बनाने का अधिकार ही नहीं है. नतीजन तब यह मामला क़ानूनी दावपेंच में फंस गया.
2007 में आयी मायावती सरकार ने नए सिरे ये प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास भेजा, लेकिन उन्होंने प्रस्ताव के साथ शर्त लगा दी कि अनुसूचित जातियों का आरक्षण प्रतिशत बढ़ाया जाए. यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन देने के बावजूद मायावती ने इस मामले को लेकर केंद्र सरकार पर कोई दबाव नहीं बनाया और इस वजह से ये प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ पाया.
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2012 में बनी अखिलेश यादव सरकार ने मुलायम सिंह यादव सरकार से एक क़दम आगे जाते हुए बिना राष्ट्रपति का अनुमोदन प्राप्त किए ही, इन जातियों को अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र जारी करने का आदेश दे दिया. उस आदेश पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्टे लगाते हुए कहा कि जो भी सर्टिफ़िकेट जारी हुए हैं, उनकी वैधता, उसके फैसले पर निर्भर करेगी. इन सबके बीच केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय अपनी तरफ़ से बार-बार परिपत्र जारी करके सरकार को चेतता रहा है कि उसका यह क़दम असंवैधानिक है.
उत्तर प्रदेश सरकारों के ‘असंवैधानिक कृत्य’ की भरपायी इन्हीं जातियों को समय-समय पर करनी पड़ी, क्योंकि बिना संवैधानिक प्रक्रिया का पालन किए जारी हुए सर्टिफ़िकेट के अदालत के आदेश पर अवैध हो जाने के डर की वजह से लोग नौकरी या एडमिशन में इनका इस्तेमाल नहीं करते हैं. क्योंकि इसमें कभी भी कानूनी पेंच फंस सकता है.
अतिपिछड़ी जातियों पर बीजेपी का रुख बदल गया है
जब अतिपिछड़ी जातियां अनुसूचित जाति में शामिल होने के लिए संघर्ष कर रही थीं, तब बीजेपी ओबीसी आरक्षण में विभाजन का फ़ार्मूला लेकर आई. राजनाथ सिंह सरकार ने इसके लिए हुकुम सिंह कमेटी का गठन किया. वर्तमान यूपी सरकार भी ओबीसी के विभाजन के प्रस्ताव पर काम कर रही है, हालांकि, इस बारे में कोई फैसला नहीं हुआ है. पिछली नरेंद्र मोदी सरकार ने केंद्रीय ओबीसी लिस्ट में विभाजन के लिए जस्टिस रोहिणी कमेटी का गठन किया, जिसकी रिपोर्ट आने वाली है.
अतिपिछड़ी जातियों को एससी में शामिल करके उनकी समस्या का समाधान करना बीजेपी के एजेंडा में कभी नहीं था. अब जब अचानक से बीजेपी इस दिशा में पहल कर रही है और इन्हें एससी सर्टिफिकेट देने की बात कर रही है, तो इसका मतलब है कि वह ओबीसी आरक्षण में विभाजन के अपने पुराने स्टैंड से पीछे हट रही है. ऐसा शायद वह इसलिए कर रही है क्योंकि जिन ओबीसी जातियों- कुर्मी, यादव, जाट आदि पर वह पूरा आरक्षण हड़प लेने का आरोप लगाती रही है, उनमें से कई जातियां अब उसकी वोटर बन गयी हैं. ऐसे में ओबीसी आरक्षण के बंटवारे का उसका दांव उल्टा पड़ सकता है.
अब देखना है कि केंद्र और राज्य में पूर्ण बहुमत की सरकार होने के बावजूद, क्या बीजेपी सही संवैधानिक प्रक्रिया अपनाकर अति-पिछड़ों को अनुसूचित जाति में शामिल कराती है या फिर मामले को कोर्ट में फंस जाने देती है?
(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं )