नई दिल्ली: भारतीय जनता पार्टी के ज्यादातर लोगों ने आरएसएस को 2019 में सत्ता में वापसी का मुख्य आधार माना है, जो आम चुनाव को ठीक भाजपा की तरह नहीं देख रहा है.
आरएसएस के लिए यह चुनाव ‘मोदी बनाम बाकी’ के बारे में नहीं है. बल्कि वैचारिक शक्तियों की बड़ी लड़ाई है. यह माना जाता कि राष्ट्रीय पटल पर इस समय दो तरह की ताकतें हैं. इनमें वे लोग शामिल हैं जो ये नहीं मानते हैं कि भारत एक राष्ट्र है, और इसे छोटे -छोटे राष्ट्रों का एक समूह मानते हैं और इसलिए राष्ट्र को तोड़ना चाहते हैं. दूसरे वे लोग हैं जो राष्ट्रवादी ताकतों को मानते हैं और वे यह भी मानते हैं कि भारत 5,000 साल से अधिक इतिहास वाला देश है. और समाज को विभाजित करने के लिए जान-बूझकर गलत रेखाएं खींची जा रही हैं.
2019 के चुनावों पर अपने विचार को व्यक्त करते हुए आरएसएस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘ये गलतियां औपनिवेशिक काल के दौरान हुई थीं और कांग्रेस के शासनकाल के दौरान वामपंथियों के प्रभाव में थी, जोकि ज्यादातर संस्थानों में विशेषकर शिक्षाविदों के कब्जे में थी.
भाजपा की 2014 की जीत के बाद वे सभी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के खिलाफ आए हैं. नरेंद्र मोदी ने संस्थानों से अल्ट्रा-लेफ्ट को बाहर निकालने और राष्ट्रीय परिपेक्ष को बदलने के लिए एक ठोस प्रयास किया’.
अलग स्वरूप
आरएसएस 2014 के बाद से पूरे देश में होने वाली घटनाओं का सावधानीपूर्वक विश्लेषण कर रहा है और विशिष्ट संदर्भ देखता है- चाहे वह भीमा-कोरेगांव, मॉब लिंचिंग अभियान, जेएनयू विवाद या विभिन्न दलित आंदोलनों ने हिंसक मोड़ ले लिया हो.
संघ के एक दूसरे वरिष्ठ अधिकारी ने कहा ‘यह सब एक सोशल मीडिया अभियान के साथ शुरू होता है. इसके बाद एक सार्वजनिक रैली के रूप में जमीनी स्तर पर गतिविधियां होती हैं. जो अक्सर हिंसा का रूप लेककर ख़त्म होती हैं. इसके तुरंत बाद मीडिया में एक अभियान और विभिन्न अन्य सार्वजनिक मंचों पर बुद्धिजीवियों के अल्ट्रा-लेफ्ट लोगों द्वारा हिंसा को जायज ठहराने और हमारे समाज के विभिन्न वर्गों के बीच में गलत सोच को मजबूत करने का काम किया जाता है.
आरएसएस का मानना है कि इन कट्टरपंथी ताकतों को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. वे मजबूत राजनीतिक प्रभाव डालते हैं, जैसा कि पिछले साल तीन हिंदी भाषी राज्यों में विधानसभा चुनावों के दौरान हुआ था. भाजपा तीनों राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान से हार गई थी.
आरएसएस के लिए अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा ने छत्तीसगढ़ की 29 आदिवासी सीटों में से 26 को गंवा दिया और मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में भी लगभग आधी सीटें हार गई. इन क्षेत्रों को पार्टी का गढ़ माना जाता था आदिवासी लोगों के कल्याण के लिए स्वयंसेवकों द्वारा चलाए जा रहे अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम ने अच्छा काम किया है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विश्लेषण के अनुसार आदिवासी क्षेत्रों में ये हार मुख्य रूप से माओवादियों अल्ट्रा-वामपंथियों और ईसाई मिशनरियों के सांठगांठ के परिणाम थे.
आरएसएस का मानना है कि भाजपा की हार उसकी सरकारों के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर से नहीं हुई बल्कि इन सभी ताकतों के अभियान के कारण हुई, उन्होंने कांग्रेस का समर्थन किया था उन ताकतों का यह मानना है कि वे भाजपा को हराने वाले किसी भी व्यक्ति का समर्थन करेंगे.
‘प्रतिद्वंद्वी की ताकत कम करके मत आंके’
इस तरह से आरएसएस ने अपने कैडरों में सतर्क करते हुए कहा कि प्रतिद्वंदियों का की ताकत को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए. आरएसएस के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने कहा, ‘वो जो कर रहे हैं वो दूसरों को शायद नहीं दिखाई दे रहा लेकिन हमें पता है कि वो कितनी अच्छी तरह से संगठित हैं और इन चुनावों में वो बीजेपी को हराने के लिए वो किस हद तक जा सकते हैं, ताकि वो इस देश को तोड़ने के अपने एजेंडे को चलाते रहें और गैर-बीजेपी सरकार के संरक्षण में बिना किसी बाधा के समाज को तोड़ते का काम भी जारी रखें.’
‘प्रतिद्वंद्वी ताकतों’ पर नज़दीक से नज़र बनाकर रखने वाले एक और कार्यकर्ता ने कहा, ‘हमारे लिए ये साफ है कि अगर बीजेपी सरकार सत्ता में रहती है तो ये सुनिश्चित करेगी कि देश में कट्टरपंथी ताकतें जो काम करना चाहती हैं उन्हें इस सरकार के रहते संरक्षण नहीं मिलेगा. विचारधार से जुड़ी बाकी की लड़ाई हम लड़ेंगे.
ये चुनाव अहम है क्योंकि मोदी सरकार की ज़ोरदार जीत से एक अनुकूल वातावरण तैयार होगा, जिसकी वजह से राष्ट्रवादी विचारधारा वाले विचारों की इस लड़ाई को समाप्त कर सकें.’
ये विचारधाराओं की लड़ाई है
कुल मिलाकर आरएसएस 2019 की लड़ाई को एक बेहद अहम लड़ाई के तौर पर देख रहा है जिसका विचारधारा आधारित लड़ाई पर सबसे बड़ा प्रभाव पड़ेगा. आरएसएस को लगता है कि मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी की जीत इस बात को सुनिश्चित करेगी की केंद्र में किसी आरएसएस विरोधी सरकार से लड़ाई में उसे अपनी ताकत न झोंकनी पड़े. इसे लगता है कि यूपीए के एक दशक के राज के दौरान यही हुआ जब आरएसएस को निशाना बनाने के लिए ‘भगवा आतंकवाद’ जैसी शब्दाबली का इस्तेमाल किया गया.
बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार लंबे समय तक चलने वाली विचारधारा वाली लड़ाई पर इसे अपना ध्यान केंद्रित करने देगी. ये लड़ाई पहले से चली आ रही है और इसके और तीखे होने के आसार हैं, 2019 के चुनाव का अंजाम चाहे जो हो.
(लेखक इंद्रप्रस्थ विश्व संवाद केंद्र के सीईओ हैं)
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