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Friday, 1 November, 2024
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स्वास्थ्य सेवाएं: देश में तमिलनाडु और पड़ोस में बांग्लादेश से सीखिए

गोरखपुर या मुजफ्फरपुर में जितनी मौते हुई हैं या हो रही हैं, उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बिलकुल कमजोर है. उनके पास प्राइवेट सेक्टर में इलाज करा पाने का विकल्प ही नहीं है.

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पिछले साल गोरखपुर और इस साल मुजफ्फरपुर में बड़ी संख्या में बच्चों की मौत ने उत्तर भारत के बदहाल और जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था की सच्चाई को एक बार फिर सामने ला दिया है. भारत में स्वास्थ्य का मसला ऐसे संकट काल में ही चर्चा में आ पता है वरना सामान्य स्थितियों में, हालांकि वह भी कहने को ही सामान्य है. भारत के सार्वजनिक और राजनीतिक विमर्शों में स्वास्थ्य का मसला लगभग गायब रहता है. संसद में न इस बारे में चर्चा होती है और न ही नेता इस बारे में भाषण देते हैं. टीवी स्टूडियो में भी ये बहस का मुद्दा नहीं बन पाता.

ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट 2018 के अनुसार दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे भारत में रहते हैं. कुपोषण के मामले में हम अपने पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी पीछे हैं. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे राउंड-4 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 5 साल से कम उम्र के 35.7 प्रतिशत बच्चे कम वजन के यानी अंडरवेट हैं. इस उम्र के 38.4 बच्चे अपने स्वाभाविक कद से छोटे हैं. 6 साल से कम उम्र के लगभग 60 फीसदी बच्चों में खून की कमी है.

स्वास्थ्य पर खर्च के मामले में भारत फिसड्डी

बच्चों के टीकाकरण में भी भारत दक्षिण एशिया के कई पड़ोसी देशों से पीछे है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के नवीनतम आंकड़े के अनुसार भारत अपनी जीडीपी का मात्र 1.7 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च कर रहा है. भारत के मुक़ाबले चीन जीडीपी का 6 प्रतिशत और नेपाल अपनी जीडीपी का 6.29 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च कर रहा है. विकसित देशों में ये आंकड़ा और बेहतर है. विश्व के देशों का इस बारे में औसत आंकड़ा 6.7 प्रतिशत है. जाहिर है कि भारत में विभिन्न दलों की सरकारों ने लोगों की सेहत को अपनी प्राथमिकता में काफी पीछे रखा है. इस मामले में किसी भी पार्टी की सरकार निर्दोष नहीं है.


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यदि भारत और बांग्लादेश को तुलनात्मक रूप से देखें तो बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति जीडीपी भले भारत से कम है लेकिन जीवन प्रत्याशा (लाइफ एक्सपेक्टेंसी) का आंकड़ा भारत से बेहतर है. शिशु मृत्यु दर का बांग्लादेश का आंकड़ा भी भारत से नीचा है. बीसीजी, डीपीटी, पोलियो और खसरा इत्यादि टीकाकरण में भी बांग्लादेश ने 95 प्रतिशत के करीब कवरेज कर लिया है, जबकि भारत उससे पीछे है.

केरल और तमिलनाडु का प्रदर्शन बेहतर

भारत में केरल और तमिलनाडु ने सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में बेहतर उपलब्धि हासिल की है. नीति आयोग द्वारा तैयार स्वास्थ्य सूचकांक रिपोर्ट में केरल एक बार फिर से अव्वल आया है. इस रैंकिंग में यूपी, बिहार और ओडिशा सबसे पीछे हैं.

हाल के अध्ययन बताते है कि तमिलनाडु ने पब्लिक हेल्थ के क्षेत्र में पिछले 10 वर्षों में न केवल तेज प्रगति की है बल्कि उसकी उपलब्धियां तुलनात्मक रूप से रचनात्मक और समावेशी भी हैं. तमिलनाडु की स्वास्थ्य सेवा प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों के व्यापक जाल पर आधारित है. उसके प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र काफी सक्रिय और जीवंत हैं. तमिलनाडु ने समेकित बाल विकास योजना (आईसीडीएस) को अपनाया और इसमें बड़े पैमाने पर वित्तीय और मानवीय संसाधनों को लगाया है. उदाहरण के लिए तमिलनाडु में आंगनबाड़ी केंद्र रोज छह घंटे से अधिक खुलते हैं जबकि उत्तरी राज्यों में वे औसतन तीन घंटे ही खुलते हैं. तमिलनाडु ने ही सबसे पहले स्कूलों में बच्चों को मुफ्त में भोजन देना शुरू किया था.

तमिलनाडु ने बच्चों के टीकाकरण की सबसे ऊंची दर हासिल की गई. इसी तरह सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों में समय पर मुफ्त दवाओं की आपूर्ति के लिए सरकार ने औषधि निगम बनाया है और कम्प्युटरीकृत रेकार्ड के साथ एक आधुनिक सप्लाई चेन भी तैयार की है, तमिलनाडु के स्वास्थ्य केन्द्रों में मुफ्त दवा का अनिवार्य प्रावधान है.

वहीं, खासकर उत्तर भारतीय राज्यों की चिंताओं में स्वास्थ्य बहुत पीछे हैं. राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श का भी हाल बुरा है. भारतीय संसद में पूछे गए सवालों के एक विश्लेषण में पाया गया कि केवल तीन प्रतिशत सवाल ही बच्चों (जिनकी संख्या कुल आबादी के चालीस प्रतिशत से ज्यादा है) से सम्बन्धित थे. इसी तरह भारत के एक बड़े अखबार में वर्ष 2000 में जनवरी से जून के बीच 300 से ज्यादा लेख प्रकाशित हुए, लेकिन एक भी लेख स्वास्थ्य से सम्बन्धित नहीं था. (‘भारत और उसके विरोधाभास’ लेखक – ज्यां द्रेज, अमर्त्य सेन)

स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के खतरे

भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था का निजीकरण भविष्य के लिए खतरे की घंटी है. चीन ने भी कभी ऐसी ही गलतियां की थीं. अस्सी और नब्बे के दशकों में चीन में सामाजिक स्वास्थ्य सेवा को समाप्त कर दिया गया था. बहरहाल, चीनी अधिकारियों को एहसास हो गया कि उन्होंने कितनी मूल्यवान चीज खो दी है. फिर उसे दुबारा 2004 में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की तरफ लौटना पड़ा. सबको स्वास्थ्य सेवा का सिद्धान्त चीन में फिर से लागू हो गया है.


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वहीं भारत में, जहां 30 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे है, वहां लोग महंगे प्राइवेट अस्पतालों में महंगा उपचार कैसे करवा पाएंगे? गोरखपुर या मुजफ्फरपुर में जितनी मौते हुई हैं या हो रही हैं, उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर है. उनके पास प्राइवेट सेक्टर में इलाज करा पाने का विकल्प ही नहीं है. वे मजबूरी में सरकारी अस्पताल में आते हैं, जिन्हें पंगु बनाया जा चुका है. समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति को बेहतर इलाज की सुविधा तो सरकारी क्षेत्र में ही मिल सकती है. अगर सरकार नागरिकों के स्वास्थ्य को लेकर गंभीर है तो उसे सरकारी अस्पतालों पर ध्यान देना होगा.

ज्यां द्रेज और अमर्त्य सेन ने अपनी किताब ‘भारत और उसके विरोधाभास’ में बच्चों को लेकर सरकार के रुख पर टिप्पणी की है- ‘जरा कल्पना कीजिये कि कोई माली ऐसा है जो फूल उगाता है, मगर उन्हें रौंदने की छूट आपको देता है और फिर इस गलती को ठीक करने के लिए पौधे में खूब पानी–खाद देने की कोशिश करता है. भारत में सरकार बच्चों के साथ ऐसा ही कर रही है.’

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से पीएचडी कर रहे हैं)

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