कोविड से जुड़े कार्यक्रम के तहत मुफ्त अनाज वितरण को बंद करने के फैसले को सार्वजनिक वितरण व्यवस्था (पीडीएस) के तहत दिए जाने वाले अनाज को मुफ्त देने के फैसले के पर्दे से ढक दिया गया है. पीडीएस के तहत अब तक चावल 3 रुपये प्रति किलोग्राम, गेहूं 2 रु. प्रति किलो और मोटा अनाज 1 रु. प्रति किलो दिया जाता रहा है.
इन सब पर वैसे भी 90 फीसदी सब्सिडी दी जा रही थी. उन्हें मुफ्त देने से मात्र 10 फीसदी ज्यादा सब्सिडी देना होगा. उपरोक्त पर्दे के नीचे झांकने पर यही दिखेगा कि मुफ्त या 90 फीसदी सब्सिडी के साथ बांटे जा रहे अनाज की मात्र में 50 फीसदी की कमी की जाएगी. इस सबका कुल नतीजा यह होगा कि केंद्र के इस खर्चे के बोझ में भारी कमी होगी. जो राज्य मुफ्त अनाज बांट रहे थे वे भी पैसा बचाएंगे क्योंकि अब केंद्र पूरा बिल भरेगा.
जहां तक वित्तीय अनुशासन की बात है, जो फैसला किया गया है उस पर इस लिहाज से सवाल नहीं उठाया जा सकता. खाद्य पदार्थ, खाद और पेट्रोलियम पर कुल केंद्रीय सब्सिडी जीडीपी के करीब 2.5 फीसदी के बराबर है. यह एक दशक पहले वाले स्तर पर ही है. इसकी कुछ वजह यह है कि पेट्रोलियम पर सब्सिडी (जो सब्सिडी के कुल बिल के एक तिहाई के बराबर हुआ करती थी) को लगभग खत्म कर दिया गया है.
नए फैसले के कारण अगले साल खाद्य पर सब्सिडी जीडीपी के अनुपात में और कम हो सकती है. खाद पर सब्सिडी में कमी यूक्रेन युद्ध की दिशा पर निर्भर होगी. यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सब्सिडी के कुल बिल में काफी कमी आएगी.
सरकार के फैसले के कारण समस्या वित्तीय गणित में नहीं पैदा होती बल्कि इस बात को लेकर है कि यह दो वास्तविकताओं का किस तरह सामना करेगा. एक वास्तविकता कृषि के अर्थशास्त्र से जुड़ी है और दूसरी भारत की कामगार आबादी की आमदनी के स्तरों से जुड़ी है.
पहले कृषि को लें. अधिकतर किसानों को बेहद रियायती दर पर खाद मिलता है, मुफ्त पानी और बिजली मिलती है. उन्हें दुनिया में सबसे सस्ते में मिलने वाले कृषि मजदूर मिलते हैं. केवल अनाज और गन्ना ही नहीं बल्कि कुछ सबसे महत्वपूर्ण फसलों के लिए भी किसानों को गारंटीशुदा खरीदार और कीमतें मिलती हैं, जो खेती के अधिकतर जोखिम को खत्म करती है. इस सबका नतीजा यह है कि खेती के सीमित और कीमती साधनों के इस्तेमाल में कुशलता बरतने का प्रोत्साहन नहीं मिलता. कई फसलों की पैदावार अंतरराष्ट्रीय स्तर से नीची है. किसी सेक्टर को थोक में सब्सिडी देने से उस सेक्टर में वह मजबूती नहीं आती, जो देश में 50 फीसदी रोजगार उपलब्ध कराता है, वह भी बेहद निम्न स्तर वाली मजदूरी पर.
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जहां तक आमदनी के स्तरों की बात है, सरकार के ई-श्रम पोर्टल पर रजिस्टर्ड अनौपचारिक क्षेत्र के 27.7 करोड़ कामगारों में से 94 फीसदी को 10,000 रु. से कम वेतन मिलता है. महज 1.5 फीसदी को 15,000 रु.से ज्यादा
वेतन मिल रहा है. गौरतलब है कि कुल कामगार आबादी का 80 फीसदी हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों का है. उनमें से दो तिहाई तो खेती से जुड़े हैं, जिसमें सर्वेक्षणों के मुताबिक आय का स्तर गैर-कृषि क्षेत्र में होने वाली आमदनी का चौथाई हिस्सा भर है. वास्तव में, पिछले पांच वर्षों में हुई महंगाई के हिसाब से कृषि मजदूरों की मजदूरी कम हुई है.
आय के आंकड़े स्वघोषित संख्याएं ही हैं और वे पिछले 40 साल में प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े में हुई पांच गुना वृद्धि से मेल नहीं खा सकते हैं. गरीबी जिस तरह घटी है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि जो अतिरिक्त आय बढ़ी वह ऊपरी तबके की जेब में नहीं गई. उपभोग की आदतों और उपभोग की टिकाऊ चीजों की खरीद के आंकड़े यही संकेत देते हैं कि मध्यवर्ग का आकार बढ़ा है.
खबरों के मुताबिक स्थिति बुरी भी है तब भी क्या मुफ्त अनाज देना कोई समाधान है? पीडीएस के तहत आज जिन कीमतों पर अनाज दिए जा रहे हैं उन्हें एक परिवार के वास्ते एक महीने की खातिर खरीद करने के लिए अधिकतर कामगारों का एक दिन का वेतन काफी है. इसलिए मुफ्त अनाज देने से बहुत फर्क नहीं पड़ता है. बल्कि यह लोकलुभावन तरीके अपनाने की होड़ को जन्म देता है जबकि कुछ राजनीतिक दल मुफ्त बिजली, मुफ्त दूसरी सुविधाओं की पेशकश कर रहे हैं. यह केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ही जोखिम में नहीं डालेगा. विकल्पों की खोज हमें व्यापक अर्थनीति की ओर ले जाएगी.
नीची कृषि मजदूरी और गैर-कृषि मजदूरी में अंतर तब तक कम नहीं होगी जब तक मैनुफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्र में ज्यादा रोजगार नहीं पैदा किए जाते ताकि कम लोग ही खेती पर निर्भर रहें. तब तक, गरीबों को आमदनी का सहारा देने से बचा नहीं जा सकता.
तीसरी बात यह कि ज्यादा लाभकारी रोजगार गारंटी स्कीम जैसे कार्यक्रम अपनी कहानी खुद बयान करते हैं, जैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्कूली शिक्षा, और रोजगार केंद्रित ट्रेनिंग में ज्यादा निवेश करने के तर्क अपनी कहानी बयान करते हैं. सब्सिडी और मुफ्त सुविधाएं अक्सर असली काम से ध्यान भटकाया करती हैं.
(संपादनः हिना फ़ातिमा)
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