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Wednesday, 24 December, 2025
होममत-विमतआखिर, 2025 में मोदी के ‘अच्छे दिन’ का सपना क्यों टूट गया: पांच वजहें

आखिर, 2025 में मोदी के ‘अच्छे दिन’ का सपना क्यों टूट गया: पांच वजहें

मोदी सरकार की तथाकथित 'मजबूत छवि' को धक्का लगा है. भारत की विदेश नीति अस्त-व्यस्त है. और बीजेपी की चुनावी जीत की चमक भी फीकी पड़ गई है.

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पिछले 11 वर्षों में, नारे कभी खत्म न होने वाली भ्रांतियों की लहरों की तरह गूंजते रहे. जैसे हज़ारों मिस्टिंग फैंस से निकलती हवा की चमकती बूंदों की लहर. अच्छे दिन. नया भारत. विकसित भारत.

यह 11 साल नारेबाजी की राजनीति के रहे हैं—या कहें राजनीति का नाराबाजीकरण. मीडिया मशीन हमेशा तैयार खड़ी रही. विशेषज्ञों द्वारा सलीके से घुमाई और मैनेज की गई, अख़बारों के हेडलाइन और टीवी पर दिखाई जाने वाली लूप विज़ुअल्स रोज़ चमकते ‘विकास’, हाई-प्रोफाइल समिट और आक्रामक ‘मजबूत राज्य’ राष्ट्रवाद की कहानियां पेश करते रहे.

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी, कभी नई योजना का उद्घाटन करते, कभी ट्रेन को झंडा दिखाते, कभी पुल पर कदम रखते, कभी 597 फीट की सरदार पटेल की मूर्ति को सलाम करते, कभी वैश्विक नेताओं से मिलते, कभी फोटोज़ के लिए मुस्कुराते.

धार्मिक उन्माद, जो शीर्ष सरकारी नेतृत्व द्वारा तेज़ी से बढ़ाया गया—सैकड़ों सोशल मीडिया हैंडल्स, ऑन-ग्राउंड सतर्क, केसरिया वेश में सक्रिय लोग और चिल्लाते टीवी एंकरों के जरिए फैलाया गया—देशभर में फैल चुका था. धार्मिक नफरत के अनगिनत संदेश 24/7 कमजोर मनों में डाले जाते रहे.

मीडिया की चकाचौंध और तेज़ धार्मिक उथल-पुथल, गौरक्षक, ट्रिपल तलाक बिल, वक्फ बिल, अयोध्या मंदिर का उद्घाटन. एक घूमता हुआ बहुरंगी हिंदू राष्ट्र, एक वादा किया गया स्वर्ग, 2014 में एक नए भारतीय गणराज्य का उद्घाटन किया गया ताकि मैकाले के अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे बच्चों के ताबूत में कीलें ठोकी जा सकें, जिन्हें “खान मार्केट गैंग” या “छद्म धर्मनिरपेक्ष” कहकर कोसा गया. ये सभी कहानियां हैरान-परेशान ‘मोदी-भक्त’ आंखों के सामने सामने आईं.

नागरिक चकरा गए. सम्मोहित हो गए. ज़ोंबी जैसी स्थिति हो गई. निष्क्रिय और सुन्न, नागरिक बिना सवाल किए बैंक के बाहर लाइन में खड़े रहे, अचानक बेकार हुई नोटों का आदान-प्रदान किया, कोविड-19 को दूर करने के लिए बर्तन बजाए, और प्रधानमंत्री ने एक इंटरव्यू में कहा कि उनका जन्म “अजीविक” था, तब भी आंख नहीं झपकाई.

लेकिन 2025 ने यह जादू तोड़ दिया. मिस्ट फैंस अब हल्की भ्रांतियां नहीं उड़ाते. बल्कि जहरीली हवा फैला रहे हैं. और नागरिक गुस्से में हैं. रोज़मर्रा की शासन की विफलताएं—प्रदूषण प्रबंधन की कमी से लेकर आकाश में अराजकता, गोवा जैसे “डबल इंजन” राज्यों में प्रशासनिक ढहना, बीजेपी के उच्च स्तर में तीव्र भ्रष्टाचार की रिपोर्ट, आर्थिक मंदी और करोड़ों लोगों के लिए कठिनाई—सभी ने अच्छे दिन की भ्रांति को भेद दिया.

कहा जाने वाला “मोदी है तो मुमकिन है” सपना 2025 में टूट गया. इसकी पांच वजह हैं.

1. मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की खराब शासन व्यवस्था

चाहे इंडिगो एयरलाइंस से जुड़ी अव्यवस्था हो, वायु प्रदूषण को लेकर बढ़ता गुस्सा हो, भाजपा शासित राज्यों में बढ़ता भ्रष्टाचार हो या गिरता रुपया, मोदी सरकार अपनी ही अक्षमता में फंसी दिख रही है और रोजमर्रा के शासन की चुनौतियों से निपटने में जूझ रही है.

जिस सरकार में सभी फैसले पूरी तरह प्रधानमंत्री कार्यालय में केंद्रित हों, वह स्वाभाविक रूप से दबाव में आ जाती है और नीतिगत बदलावों से निपटने की रणनीति बनाने में असमर्थ रहती है. यही स्थिति इंडिगो संकट में भी दिखी. नागरिक उड्डयन महानिदेशालय ने नवंबर में फ्लाइट ड्यूटी टाइम लिमिटेशन नियम जारी किए और फिर दिसंबर में जल्दबाजी में उस अधिसूचना को अस्थायी रूप से वापस लेने की घोषणा कर दी, जबकि इस अव्यवस्था के दौरान करीब 4,500 उड़ानें रद्द हो गईं. नए नियम जारी होने के बाद डीजीसीए ने इंडिगो के संचालन की निगरानी क्यों नहीं की. मोदी सरकार की नियामक व्यवस्था अपने ही दिशानिर्देशों पर सही तरीके से नजर रखने और नीति बदलाव के दौरान इंडिगो को संभालने में विफल रही, जिससे लाखों यात्रियों को भारी परेशानी झेलनी पड़ी.

नागरिक उड्डयन मंत्री राम मोहन नायडू ने सरकार का बचाव करने की कोशिश की, लेकिन यह सच है कि मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के कार्यकाल में ही नागरिक उड्डयन क्षेत्र में दो कंपनियों का वर्चस्व बना.

संसद में मेरे एक सवाल के जवाब से यह साफ हुआ कि वायु प्रदूषण से निपटने के लिए कोई राष्ट्रीय योजना मौजूद नहीं है. उत्तर भारत के राज्यों के बीच एक संगठित अंतर-राज्यीय योजना बनाने के लिए बहुत कम बैठकें हुई हैं.

मोदी का “ना खाऊंगा, ना खाने दूंगा” का नारा खोखला साबित हुआ है. सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा कि यह “एक उल्लेखनीय संयोग” है कि अरुणाचल प्रदेश के भाजपा मुख्यमंत्री पेमा खांडू के दोस्तों और परिवार के लोगों को बड़े सरकारी ठेके मिल गए.

वीआईपी संरक्षण के एक चौंकाने वाले मामले में, बड़े घोटाले के आरोपी गुजरात के संदेसरा भाइयों को सुप्रीम कोर्ट ने राहत दे दी. अदालत द्वारा उनसे वसूला गया 5,100 करोड़ रुपये का एकमुश्त समझौता, उनकी कुल देनदारी का बहुत छोटा हिस्सा है. सरकार उन पर अपना मामला मजबूती से आगे बढ़ाने में नाकाम रही, जबकि उन पर भारतीय बैंकों से 1.6 अरब डॉलर की धोखाधड़ी का आरोप है. एक बार फिर यह धारणा बनी कि सरकार के करीबी कारोबारी, जैसे पहले नीरव मोदी और हीरा कारोबारी मेहुल चोकसी, जिन्हें मोदी ने कभी “हमारे मेहुलभाई” कहा था, देश से भागने में सफल हो गए.

2. सुस्त अर्थव्यवस्था और खराब जीवन स्थितियां

अर्थव्यवस्था की लगातार सुस्ती भी मोदी के सपने के टूटने की एक बड़ी वजह है. निजी निवेश में काफी गिरावट आई है और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी कम हुआ है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने हाल ही में मोदी सरकार के विकास आंकड़ों की सटीकता पर सवाल उठाए हैं.

भारतीय देश छोड़कर जा रहे हैं. पिछले पांच वर्षों में करीब 10 लाख लोगों ने भारतीय नागरिकता छोड़ दी है. एक वित्तीय सलाहकार ने हाल ही में लिखा कि जीवन स्थितियों के बिगड़ने के कारण अमीर भारतीय भारत छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं.

भारतीय आंकड़ों पर सवाल उठना बेहद परेशान करने वाला है. दशकों तक भारत के सांख्यिकीय मॉडल और डेटा संग्रह वैश्विक मानक रहे हैं. मोदी सरकार द्वारा प्रचारित तेज रफ्तार अर्थव्यवस्था और दो अंकों की विकास दर का सपना हर दिन एक मिथक साबित हो रहा है.

3. ‘मजबूत छवि’ को झटका

मोदी सरकार की तथाकथित “मजबूत छवि” को भी नुकसान पहुंचा है. ऑपरेशन सिंदूर के बाद मई में भारत-पाकिस्तान संघर्षविराम का श्रेय अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बार-बार खुद लिया. वहीं अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भारतीय विमानों के गिराए जाने की खबरों ने सरकार के दावों पर सार्वजनिक संदेह पैदा किया.

पहलगाम और दिल्ली के लाल किले में हुए आतंकी हमलों ने गृह मंत्री अमित शाह के उस दावे को गलत साबित कर दिया कि सीमा पार आतंकवाद की कमर तोड़ दी गई है. पहलगाम और दिल्ली में सुरक्षा की गंभीर चूक, खासकर यह तथ्य कि विस्फोटकों से भरी एक कार राष्ट्रीय राजधानी तक आसानी से पहुंच गई, ने चरमपंथ और उग्रवाद पर सख्ती से कार्रवाई करने वाली तथाकथित मजबूत सरकार की छवि को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया.

4. विदेश नीति की नाकामियां

भारत की विदेश नीति बिखरी हुई हालत में है. मोदी के ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ जैसे नारों के बावजूद, मोदी सरकार ट्रंप प्रशासन से निपटने में जूझ रही है, जिसने भारत पर दंडात्मक 50 प्रतिशत शुल्क लगाए हैं. सरकार बार-बार दावा करती है कि भारत अब वैश्विक मंच की ऊंची मेज पर बैठता है. लेकिन मोदी ने मलेशिया में हुए आसियान शिखर सम्मेलन से दूरी बनाई, जहां उनकी ट्रंप से मुलाकात हो सकती थी, और दक्षिण अफ्रीका में हुए जी20 शिखर सम्मेलन में तब ही शामिल हुए, जब अमेरिका ने बैठक का बहिष्कार करने की घोषणा कर दी थी.

खुद को ‘विश्वगुरु’ कहने वाले मोदी कभी व्हाइट हाउस में बेरोकटोक आते-जाते थे. आज वही व्हाइट हाउस भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तौलने में हिचकता नहीं है और पाकिस्तान के फील्ड मार्शल आसिम मुनीर को निजी लंच पर बुला चुका है.

पड़ोसी देशों में, नेपाल से लेकर बांग्लादेश तक, भारत की विदेश नीति की नाकामियों के चलते भारत विरोधी भावनाएँ बढ़ी हैं. हमारे पड़ोसी देश भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण और असुरक्षित हो गए हैं.

तैयार किए गए जनादेश

2025 में ‘मोदी सपना’ टूटने की एक बड़ी वजह वह तरीका है, जिससे आजकल भाजपा को जनादेश मिलते हैं. ये जनादेश स्वाभाविक नहीं, बल्कि तैयार किए हुए लगते हैं. भाजपा की चुनावी जीतें अब पहले जैसी ‘मोदी फैक्टर’ वाली चमक नहीं दिखातीं. विपक्षी दलों ने मतदाता सूचियों में हेरफेर के आरोप लगाए हैं. बिहार में खुलेआम वोटरों को रिश्वत दी गई, जहां चुनाव के दौरान ही 1.5 करोड़ महिलाओं को 10,000 रुपये दिए गए. मोदी कभी अपने विरोधियों द्वारा चुनाव से पहले दी जाने वाली ‘रेवड़ी’ का विरोध करते थे. बिहार में भाजपा ने जीत के लिए रेवड़ी का सहारा लिया.

भाजपा की चुनावी जीतों की चमक फीकी पड़ गई है. पहले ये जीतें मोदी व्यक्तित्व के भव्य प्रदर्शन जैसी होती थीं. आज ये किसी तरह कुर्सी पर बने रहने के लिए राज्य शक्ति के नीरस दुरुपयोग जैसी लगती हैं. एक आज्ञाकारी मीडिया सवाल नहीं पूछता, जज सरकार को मजबूती से जवाबदेह नहीं ठहराते, और एक आज्ञाकारी चुनाव आयोग भाजपा द्वारा आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन पर आंख मूंद लेता है. 2025 के दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले बजट घोषणाओं को चुनावी वादों की तरह इस्तेमाल किया गया.

संसद को रौंदा जा रहा है.

संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू भले ही दावा करें कि सरकार के पास बहुमत है, लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसा नहीं है. एनडीए सरकार एक गठबंधन है और आज मोदी अपने सहयोगियों पर काफी हद तक निर्भर हैं. इसके बावजूद, घमंड और शोर-शराबा कम नहीं हुआ है. बिना परामर्श के विधेयक लाए जाते हैं, बहुत कम विधेयकों को प्रवर समितियों के पास भेजा जाता है, दिन के असली मुद्दों पर बहस की इजाजत नहीं दी जाती, और विपक्ष को सरकार की लाइन पर चलने के लिए मजबूर किया जाता है.

नकाब उतर गया

कभी ताकतवर मानी जाने वाली मोदी मशीनरी में अब बचा ही क्या है. जिसे खेल बदलने वाली मोदी सरकार कहा जाता था, वह आज नाम बदलने वाली सरकार बनकर रह गई है. तेज़ी से फीकी पड़ती चमक को फिर से पाने और शायद हिंदुत्व के मूल समर्थकों को सक्रिय करने के लिए, सरकार को मनरेगा का नाम बदलने और एम. के. गांधी का नाम मिटाने तक पर मजबूर होना पड़ा है.

राष्ट्रीय सुरक्षा पर कमजोर, ट्रंप के मामले में भटकी हुई, अर्थव्यवस्था और प्रशासन में अक्षम, और अपनी ही बनाई जहरीली हवा में घुटती हुई, मोदी सरकार की पहले वाली चमक अब धीरे-धीरे बुझते पटाखे की तरह खत्म हो रही है. चाटुकार मीडिया का शोर अब भरोसेमंद नहीं लगता. सर्वोच्च नेता भाषणों में लड़खड़ा रहे हैं और बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय को ‘बंकिम दा’ कह रहे हैं. सत्तारूढ़ पार्टी भी अब ऊर्जावान नहीं दिखती. इसके बजाय वह एक नीरस, अनुशासित कमान और नियंत्रण वाली ताकत बन गई है, जहां अपेक्षाकृत अनजान कार्यकारी अध्यक्ष को प्रतिस्पर्धा से नहीं, बल्कि ऊपर से आदेश देकर नियुक्त किया गया है.

धार्मिक तनाव भड़काने की कोशिशें अब लोगों पर असर नहीं डाल पा रही हैं, क्योंकि थकान और असफलताएं बढ़ रही हैं. बंगाल में ‘बाबरी मस्जिद’ विवाद को उछालने की कोशिश जल्द ही सुर्खियों से गायब हो गई. देश भर में परेशानियां और तकलीफें इतनी व्यापक हैं कि किसी और धार्मिक युद्ध में लोगों की कोई खास दिलचस्पी नहीं बची है.

2025 में ‘विकास’ का नकाब उतर गया, ‘मोदी मैजिक’ खत्म हो गया, और अच्छे दिन का भ्रम पूरी तरह टूट गया.

लेखिका अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की सांसद (राज्यसभा) हैं. उनका एक्स हैंडल @sagarikaghose है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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