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Friday, 22 November, 2024
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मोदी सरकार के 3 कृषि कानूनों के बाद के किसानों के पहले सर्वेक्षण के नतीजे बीजेपी के लिए बुरी ख़बर

अगर मीडिया और सरकार किसानों के रोष और विरोध को सुविधाभोगियों के विद्रोह के रुप में देखते-बताते हैं तो यह सच्चाई से इनकार करना होगा.

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एक सवाल: ‘क्या खेती-बाड़ी करना फायदे का धंधा है?’ अब जरा दिमाग के घोड़े दौड़ाइए, सोचिए कि भारत के किस हिस्से में आपको इस सवाल का जवाब ‘हां’ में मिलेगा. मैं दावे के साथ कहता हूं, आप कहेंगे कि इस सवाल का ‘हां’ में जवाब मुझे पंजाब और हरियाणा में मिल सकता है, महाराष्ट्र में भी मिल सकता है और इसके बाद देश के पश्चिम अंचल के राज्यों में. दक्षिण के राज्यों में भी इस सवाल का जवाब हां में मिल सकता है लेकिन उनका नंबर इन राज्यों के बाद ही आयेगा. और, आप यह तो खैर मानकर ही चल रहे होंगे कि देश के पूर्वी अंचल के राज्यों जैसे कि उत्तरप्रदेश और बिहार में इस सवाल का जवाब एक पुरजोर ‘ना’ के रुप में ही मिलना है.

लेकिन आपका यह अनुमान गलत है. इस माह के पहले हफ्ते में ‘गांव कनेक्शन’ ने ऊपर दर्ज सवाल 16 राज्यों के 54 जिलों के कुल 5,022 किसानों से पूछा और नतीजे बड़े चौंकाने वाले रहे. पंजाब, हरियाणा और हिमाचलप्रदेश यानि पश्चिमोत्तर के राज्यों के अधिकतर किसानों का जवाब था ‘ना’: इन राज्यों में 53 फीसद किसानों ने कहा कि खेती-किसानी मुनाफे का धंधा नहीं है जबकि 40 प्रतिशत किसानों का कहना था कि हां, खेती-बाड़ी का धंधा फायदेमंद है. पश्चिमी भारत में ऊपर दर्ज सवाल के जवाब में 44 प्रतिशत किसानों ने ‘ना’ कहा जबकि 50 प्रतिशत का जवाब ‘हां’ में था यानि हां और ना कहने वाले किसानों की तादाद के बीच फासला ज्यादा ना था और इसके बाद कुछ इसी तर्ज पर जवाब रहा दक्षिण और पूरब के राज्यों के किसानों का. सवाल का सबसे सकारात्मक जवाब दिया यूपी और बिहार के किसानों ने : यहां 63 प्रतिशत किसानों ने कहा कि खेती-बाड़ी मुनाफे का धंधा है जबकि ‘ना’ में जवाब देने वाले किसानों की संख्या महज 23 प्रतिशत रही.

अब इस नतीजे के बाद आपकी पहली प्रतिक्रिया तो खुद सर्वेक्षण पर ही सवाल उठाने की होगी. मैंने सर्वेक्षण की पद्धति की जांच-परख की और सर्वेक्षण में लगी टीम से बात की. यह सर्वेक्षण भले ही रैंडम सैम्पलिंग के उच्चतम मानकों पर वैसा खरा ना उतरे या फिर मौका-मुआयना (फील्डवर्क) की जो रीत-नीत समाज-विज्ञानों में प्रचलित है, उसके हिसाब से आपको यह सर्वेक्षण उतना चुस्त-दुरुस्त ना जान पड़े लेकिन ध्यान देने की एक बात यह है कि सर्वेक्षण में नमूने के आकार बड़ा था और उसे क्षेत्र, जाति तथा भूमि की मिल्कियत के एतबार से पर्याप्त प्रातिनिधिक कहा जा सकता है. सर्वेक्षण के सवाल अपने स्वभाव में तटस्थ कहे जायेंगे और यह भी लगता है सवाल ठीक रीति से पूछे गये. सर्वेक्षण के आंकड़ों को दशकों तक देखने के अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि नरेन्द्र मोदी सरकार के कृषि संबंधी तीन कानूनों के बाबत हुए इस अखिल भारतीय सर्वेक्षण के निष्कर्ष मोटा-मोटी ठीक हैं.


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ज्यादातर किसान नाखुश हैं

सर्वेक्षण ने किसानों की मनोदशा भांपने की कोशिश की है और बेढ़ब जान पड़ते ये निष्कर्ष उस मनोदशा को समझने की कुंजी की तरह हैं. जो किसान अपेक्षाकृत समृद्ध हैं, वे अपनी नियति की सोच ज्यादा नाखुश हैं, आगे के दिनों को लेकर वे कहीं ज्यादा चिन्तित हैं और मोदी सरकार ने हाल के दिनों में जो ये तीन कानून पास किये हैं उसे लेकर ऐसे किसानों के मन में कहीं ज्यादा गुस्सा है. देशभर के किसानों को ये अहसास हो रहा है कुछ बड़ा और बुरा होने वाला है, कुछ ऐसा जिसे वे पूरी तरह समझ नहीं पा रहे हैं. वे ये भी जानते हैं कि किसान भाई गुस्से में हैं और देश के कई हिस्सों में विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं. लेकिन इस साझे अहसास के बावजूद किसानों की प्रतिक्रिया में अन्तर है. पश्चिमोत्तर के किसान गुस्से में हैं, पश्चिमी हिस्से के किसान चिन्तित हैं, दक्षिण के किसानों के मन में अनिश्चय का भाव है, पूरब के किसान शांत और धीर बने हुए हैं जबकि यूपी और बिहार के उनके किसान-बंधु बेखबरी के आलम में हैं: ‘मूंदहुं आंख कतहूं कछु नाहीं’.

मुझे हैरत हुई ये देखकर कि किसान मोदी सरकार के इन तीन कृषि-कानूनों को लेकर कितने जागरूक हैं, उनके विरोध-प्रदर्शन ने भी मुझे अचरज में डाला. दो तिहाई किसान (पंजाब और हरियाणा में तो 91 प्रतिशत) इस बात से आगाह हैं कि किसान-बंधु देश के अलग-अलग अंचलों में विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं. सर्वेक्षण में ये पूछने पर कि आखिर ये विरोध-प्रदर्शन हो क्यों रहा है, लगभग 50 प्रतिशत किसानों का जवाब था कि खेती-किसानी के बाबत जो तीन नये कानून बने हैं, उन्हीं को लेकर विरोध-प्रदर्शन हो रहा है. मुझे लगा, किसानों की जागरूकता का पता देता यह आंकड़ा तो अच्छा-खासा है! नोट करने की एक अहम बात ये भी है कि लगभग दो-तिहाई किसानों ने नये कृषि-कानूनों के बाबत सुन रखा है (पश्चिमोत्तर में ऐसे किसानों की तादात 82 प्रतिशत है लेकिन पूरब के अंचल में मात्र 48 प्रतिशत). हालांकि एक बात ये भी है कि तीन नये कानूनों में प्रत्येक के बारे में अलग-अलग पूछो तो उन्हें लेकर किसानों की जानकारी बहुत कम है. ज्यादातर किसान ये नहीं बता पाते कि इन कानूनों में दरअसल मोटी बात कही क्या गई है. एक दिलचस्प तथ्य ये भी है कि किसानों को आगाह करने में ह्वाटस्एप्प, फेसबुक और यू-ट्यूब की भूमिका लगभग उतनी ही है जितनी कि टीवी या अखबार की.

सरकार के लिए बुरी खबर ये है कि नये कृषि-कानून किसान के बीच बदनाम हैं. सर्वेक्षण में ये पूछने पर कि आप इन कानूनों के पक्ष में हैं या विरोध में, जवाब नकारात्मक था: 52 प्रतिशत किसानों ने कहा ‘विरोध में’ जबकि अपने को कानून के पक्ष में बताने वाले किसानों की तादाद 35 प्रतिशत थी. लेकिन एक तथ्यगत बात ये भी है कि इन कानूनों के हिमायती या मुखालिफ किसानों में लगभग 50 प्रतिशत तादात ऐसे किसानों की है जो इन कानूनों के ब्यौरों से अनजान हैं. और, जैसा कि जाहिर है, अगल-अलग क्षेत्रों तथा अलग-अलग वर्गों के हिसाब से देखें तो किसानों की प्रतिक्रिया में अन्तर है. लेकिन, किसानों के मन में नये कृषि कानूनों को लेकर सकारात्मक राय नहीं बनी है और राजनीति में यही बात मायने रखती है.

क्या कहते हैं किसान

सर्वेक्षण से पता चलता है कि इन तीन कानूनों को लेकर किसानों के मन में बनी धारणा उनकी तीन मुख्य चिन्ताओं के घेरे में बनी है. एक तो ये कि किसानों को चिन्ता लगी है कि नये कानूनों के कारण अभी की मंडी-व्यवस्था का खात्मा हो जायेगा. राष्ट्रीय फलक पर देखें तो 39 प्रतिशत किसानों को लगता है कि इन कानूनों से कृषि-उपज की मंडी-प्रणाली खत्म हो जायेगी जबकि 28 प्रतिशत ऐसा नहीं मानते और लगभग एक तिहाई किसानों के मन में इस मुद्दे पर कोई राय नहीं बनी है. दूसरी बात, किसानों की लगभग इतनी ही तादात के मन में डर समाया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कुछ फसलों की उपज को खरीदने की सरकार की मौजूदा प्रणाली अब खत्म हो जायेगी. तीसरे, किसानों को मन में ये भय घर कर गया है (46 प्रतिशत ने कहा हां, 23 प्रतिशत ने न) कि इन कानूनों के कारण बड़ी कंपनियों के हाथों किसानों के शोषण का रास्ता खुल जायेगा. ये तीन भय और भी ज्यादा पुष्ट होंगे क्योंकि सूबे में कांग्रेस की सरकारों ने नये केंद्रीय कृषि-कानूनों के खिलाफ राज्य स्तर पर कानून बनाने शुरू कर दिये हैं. हो सकता है, ये कानून कभी अमल में न आयें क्योंकि राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने की संभावना नहीं लेकिन कांग्रेस के शासन वाले राज्यों में बन रहे ये कानून जनमत के निर्माण में तो भूमिका निभायेंगे ही.

किसान उम्मीद लगाये बैठे हैं और वे एकस्वर से कुछ मांग कर रहे हैं. इस बात पर कोई विवाद नहीं हैं कि किसानों की मांग है कि सरकार: कृषि-उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी करे. पूछा गया कि क्या न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानून में गारंटी होनी चाहिए तो 59 प्रतिशत किसानों ने कहा कि हां, ऐसा तो हर हाल में होना चाहिए जबकि न कहने वाले किसानों की तादाद महज 16 प्रतिशत रही. इस सवाल के मामले में भी जाहिर है कि समर्थन उन इलाकों में ज्यादा (पश्चिमोत्तर में 81 प्रतिशत, पश्चिम में 80 प्रतिशत) है जहां कृषि-उत्पाद के उपार्जन की व्यवस्था सचारू है और जहां किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर उपज बेच पा रहे हैं. लेकिन जिन जगहों और किसानों के बीच कृषि-उत्पाद के सरकारी उपार्जन की व्यवस्था ठीक नहीं, उनमें भी न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी के मुद्दे पर हां कहने वालों की तादात न कहने वालों की तुलना में बहुत ज्यादा है. आश्चर्य नहीं कि इस विशेष मुद्दे पर बीजेपी के नेताओं से किसानों को जवाब देते नहीं बन पा रहा. इस मुद्दे पर बीजेपी के नेताओं का काम और भी ज्यादा मुश्किल हो गया है क्योंकि पंजाब की विधानसभा ने कानून पास कर दिया है.

विपक्ष के लिए बुरी खबर यह है कि इन कानूनों को लेकर किसानों में रोष तो साफ जाहिर है लेकिन इसके बावजूद ज्यादातर किसान ये नहीं मानते कि मोदी सरकार किसान-विरोधी है. मोदी सरकार को किसान-विरोधी कहने वाले खेतिहरों की तादात 28 प्रतिशत है जबकि किसानों की हिमायती सरकार मानने वालों की तादाद 44 प्रतिशत. लेकिन, यहां भी अपवाद के तौर पर हरियाणा और पंजाब का नाम लिया जा सकता है. किन्तु इसी सवाल को जब तनिक बदलकर पूछा गया तो जवाब की रंगत में हल्का बदलाव देखने को मिला. किसानों से पूछा गया कि मोदी सरकार किस तबके का सबसे ज्यादा ध्यान रखती है तो 35 प्रतिशत किसानों ने कहा कि मोदी सरकार किसानों का सबसे ज्यादा खयाल रखती है जबकि 41 प्रतिशत का कहना था कि मोदी सरकार व्यापारियों, बड़ी कंपनियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सबसे ज्यादा ध्यान रखती है. अब बस एक और आंदोलन की जरूरत है, उसके बाद मोदी सरकार का लकब किसान-विरोधी सरकार का हो जायेगा.

देश के किसान संगठनों के सबसे बड़े गठबंधन अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआइकेएससीसी) ने किसानों का आह्वान किया है कि 26 और 27 नवंबर को ‘दिल्ली चलो’. (यहां एक खुलासा ये कि इन पंक्तियों का लेखक एआइकेएससीसी की शीर्ष कार्यकारिणी का सदस्य है). सड़क पर चलने जा रहे इस संघर्ष से पहले के एक माह में लड़ाई ये चलनी है कि किसानों के मन और सोच पर रंग किसका जमता है.

सरकार और मीडिया अगर इस संघर्ष को खाये-पीये-अघाये के विद्रोह के रूप में देखती और प्रस्तुत करती है तो फिर यह सच्चाई से इनकार करना होगा. अगर विपक्ष और कृषि-क्षेत्र के कार्यकर्ता इस संघर्ष को खूब जानकार और समझदार तबके की क्रांति के रूप में देखते-बताते हैं तो फिर ऐसा करना एक खामख्याली कहलायेगा. अभी की हालत में आप किसान की भावदशा को समर्थ और सक्षम लोगों की रोष भरी आवाज के रूप में देख सकते हैं, ऐसे लोगों की आवाज के रूप में जिनके पास उठ खड़े होने और ऐतराज में जुबान खोलने का दमखम है, न इससे कम और न ही इससे ज्यादा. हां, ऐसी रोष भरी आवाज अपनी गूंज पैदा करती है, दायरा बढ़ता जाता है. रोष भरी इस आवाज का दायरा बढ़ता है तो मोदी सरकार के पांव डावांडोल हो सकते हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)


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