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Friday, 15 November, 2024
होममत-विमतमहिला आत्मघाती हमलावरों ने एक ‘खास’ तरह का डर पैदा किया, लेकिन यह बमों से नहीं पितृसत्तात्मकता से जुड़ा है

महिला आत्मघाती हमलावरों ने एक ‘खास’ तरह का डर पैदा किया, लेकिन यह बमों से नहीं पितृसत्तात्मकता से जुड़ा है

पुरुषों की तरह महिला आत्मघाती हमलावर भी कुछ कारणों—अच्छे हों या बुरे—से अपनी जान देती हैं और तमाम लोगों की जान ले भी लेती हैं. वे भी राजनीतिक नाराजगी, प्रतिशोध और आक्रोश की वजह से ऐसा कदम उठाती हैं.

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1994 में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम ने ‘मशाल जलाएं’ के संदेश के साथ प्रकाशित एक पोस्टर में महिलाओं को अपनी बेड़ियां तोड़ने के लिए प्रोत्साहित किया. इसमें एक ‘परंपरागत परिधान वाली महिला’ जेल की सलाखों जैसी नजर आ रही अपने घर की खिड़की में अपनी ही चूड़ियों की बेड़ी में जकड़ी दिखती है, और फिर उसे एक टाइगर बनते दिखाया गया है जिसके कंधे पर असॉल्ट राइफल लटकी है. पोस्टर में लिखी कविता कुछ इस तरह का संदेश देती है—‘हर धड़कन के साथ आकार ले रहे अपने देश के लिए मुक्ति और संघर्ष की मशाल उठाओ, …क्योंकि आपका शरीर ही वह ईंधन है जो आग को जलाए रखेगा.’

इस हफ्ते की शुरू में एक प्राणी विज्ञानी, स्कूली टीचर और बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी की आतंकवादी शैरी हयात बलोच ने कराची यूनिवर्सिटी के बाहर खुद को उड़ा लिया, जिसमें तीन चीनी भाषा टीचर और उनके ड्राइवर की मौत हो गई. उसकी कहानी एक चिंताजनक अक्स उभारती है—दो छोटे बच्चों की एक मध्यमवर्गीय मां आखिर आत्मघाती हमलावर कैसे बन सकती है?

वैसे तो यह एक गलत सवाल है. पुरुषों की तरह महिला आत्मघाती हमलावर भी कुछ कारणों—अच्छे हों या बुरे—से अपनी जान देती हैं और तमाम लोगों की जान ले लेती हैं. पुरुषों की तरह वे भी राजनीतिक नाराजगी, प्रतिशोध और आक्रोश की वजह से ऐसा कदम उठाती हैं. लेकिन शैरी हयात बलोच जैसी महिलाओं के कारण उपजा डरा पितृसत्ता से जुड़ा है, न की बमों से.

महिला आत्मघाती हमलावरों का उदय

अप्रैल 1985 की एक सुबह एक किशोरी लोला अब्बूद इजरायली सैनिकों का बेसब्री से इंतजार कर रही थी, जो करीब एक घंटे चली लड़ाई में उसके नेतृत्व वाले विद्रोहियों को पीछे धकेलने के बाद उस तरफ आ रहे थे जहां वह मौजूद थी. जैसे ही इजरायली सैनिक नजदीक पहुंचे अब्बूद ने खुद को उड़ा लिया. वामपंथी झुकाव वाली सीरियन सोशलिस्ट नेशनल पार्टी (एसएसएनपी) ने दक्षिणी लेबनान पर हमला करने वाले इजरायली सैनिकों के खिलाफ आत्मघाती हमले चार साल पहले शुरू किए थे. खास बात यह थी कि एसएसएनपी के 12 आत्मघाती हमलों में से छह को महिलाओं ने अंजाम दिया था.

1983 में फ्रांसीसी और अमेरिकी सैनिकों पर आत्मघाती हमले होने के बाद इन दोनों देशों ने अपने सैनिकों को लेबनान से वापस बुला लिया था. एसएसएनपी और लेबनानी कम्युनिस्ट पार्टी जैसे अन्य संगठनों को लग रहा था कि आत्मघाती बम हमलों के बाद इजरायल भी पीछे हट जाएगा.

एसएसएनपी के हमलावर विविध धार्मिक पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखते थे. अब्बूद एक कुलीन ईसाई परिवार से थी. सना मेहदियाली एक मुस्लिम हमलावर थी, इस 17 वर्षीय वीडियो स्टोर कर्मचारी ने लेबनान के जेनिन में एक इजरायली सैन्य काफिले के पास से गुजरते समय विस्फोटकों से भरी अपनी कार को उड़ा दिया था. हमलावरों में द्रूज, कैथोलिक, सुन्नी और शिया शामिल थे.

लिट्टे नेताओं ने भी लेबनानी रणनीति को अपनाया, जिसके बारे में उन्हें संभवतः क्षेत्र के प्रशिक्षण शिविरों में पता चला था. लिट्टे के दुष्प्रचार तंत्र के मुताबिक, पहला आत्मघाती हमला वल्लीपुरम वसंतन ने किया, जिसने जुलाई 1987 में विस्फोट भरा एक ट्रक सेना की चौकी में ले जाकर उड़ा दिया था. ब्लैक टाइगर्स आत्मघाती इकाई ने पहली बार जिस आत्मघाती महिला हमलावर का इस्तेमाल किया, वो पुष्पकला थुरैसिंघम थी. इसके बारे में दावा किया जाता है कि उसने 1994 में कांकेसंथुराई के पास श्रीलंकाई नौसेना का एक जहाज डुबो दिया था. लिट्टे के सबसे चर्चित ऑपरेशन को थेनमोझी राजारत्नम ने अंजाम दिया था जिसनें प्रधानमंत्री राजीव गांधी की जान ली.

हालांकि, कुछ ब्लैक टाइगर ऑपरेशन को लेकर दुष्प्रचार काफी हावी रहा लेकिन अर्जुन गुणावर्धन का अध्ययन बताता है कि लिट्टे की जंग में इसकी मामूली भूमिका ही थी. ब्लैक टाइगर्स ने लगभग 127 हमलों में 227 पुरुषों और 75 महिलाओं को गंवाया जबकि पारंपरिक लड़ाई में 18,000 से अधिक लिट्टे विद्रोही मारे गए.

इजरायली शोधकर्ता असफ मोघदम इस बात को रेखांकित करते हैं कि यह एक ग्लोबल पैटर्न है: केवल चार मामलों में ही आत्मघाती बमबारी अभियानों ने अपना लक्ष्य हासिल किया. यही नहीं, राजीव गांधी की हत्या लिट्टे के लिए एक रणनीतिक भूल साबित हुई.

इस दावे के बावजूद कि महिला आत्मघाती हमलावर पुरुषों पर केंद्रित सुरक्षा प्रणालियों को आसानी से धता बता सकती हैं, न्यासा फुलमर ने अपनी रिसर्च में दर्शाया है कि ‘2005 और 2016 के बीच पुरुष और महिला आत्मघाती हमलावरों ने बमबारी की घटनाओं में समान घातक क्षमता ही दिखाई है.’ बहरहाल, हमारे समय में सबसे बड़े आतंकवादी हमलों—9/11, मुंबई के 26/11 हमले और लंदन में बम धमाके—में सबमें केवल पुरुष ही शामिल थे.

बहरहाल, महिला आत्मघाती हमलावर आतंकवादी समूहों और उनके विरोधी राष्ट्र-राज्यों दोनों के लिए काफी अहम बनी रही हैं. यह समझ पाना थोड़ा मुश्किल जरूर है कि आत्मघाती हमले करने वाले एक पुरुष की तुलना में महिलाओं को औसतन आठ गुना अधिक प्रचार क्यों मिलता है.

जिहादी महिलाएं और पुरुषों का भय

सेक्युलर-नेशनलिस्ट लिट्टे और एसएसएनपी के अनुभवों को देखते हुए इस्लामी समूहों ने 9/11 से काफी पहले ही महिला आत्मघाती हमलावरों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था. मनोवैज्ञानिक ऐनी स्पेकहार्ड और खप्टा अखमेदोवा के रिकॉर्ड के मुताबिक, ऐसा पहला हमला वर्ष 2000 की गर्मियों में चेचेन जिहादी खावा बरयेवा ने किया था. फिर फिलिस्तीन में भी महिलाएं इस रास्ते पर चलीं. 2002 में यरुशलम में वफा इदरीस ने खुद को उड़ा लिया, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई जबकि 100 से अधिक घायल हो गए. रीम सालेह रियाशी की एक तस्वीर भी सुर्खियों में रही थी, शैरी बलोच की ही तरह दो बच्चों की मां रीम ने आत्मघाती मिशन पर रवाना होने से पहले अपने नवजात शिशु के साथ एक तस्वीर खिंचवाई थी.

इसके बाद अफगानिस्तान, पाकिस्तान, इराक, नाइजीरिया और कश्मीर में भी और हमले हुए. सबसे घातक अभियान को रूस में अंजाम दिया गया, जहां महिला आत्मघाती हमलावरों ने सार्वजनिक परिवहन, संगीत समारोहों और म्यूजिक कंसर्ट को निशाना बनाया. 2004 में अमानत नागायेवा ने एक रूसी विमान को उड़ा दिया, जिसमें 43 लोग मारे गए. उसकी बहन, रोजा नागायेवा बेसलान के एक स्कूल पर कब्जा करने वाली कई महिला आत्मघाती हमलावरों में शामिल थी, जहां सौ से अधिक बच्चे मारे गए थे.

स्कॉलर क्लाउडिया ब्रूनर का मानना है कि इन महिला आत्मघाती हमलावरों की कहानियां भी लैंगिक सोच से परे नहीं हैं. एक किताब में अब्बूद को ‘गहरी काली आंखों वाली उन्नीस साल की एक ऐसी लड़की बताया गया है, जिसके घने, काले बाल उसके नरम और अंडाकर चेहरे पर बिखरने के साथ उसकी खूबसूरती को और बढ़ा देते हैं.’ मिस्र के अखबारों ने इदरीस के बारे में लिखते हुए टिप्पणी की कि ‘उसकी आंखें सपनों से भरी थीं और होठों पर रहस्यमयी मुस्कान थी.’ जबकि, पुरुष आत्मघाती हमलावरों के बारे में इस तरह की कलात्मक उपमाएं नहीं दी जाती हैं.

इजरायली सूत्रों ने दावा किया कि रियाशी ने ‘एक रिश्ते के कारण अपने परिवार के सम्मान पर लगे कलंक’ से खुद को पाक-साफ साबित करने के लिए बमबारी को अंजाम दिया. वहीं, इदरीस के बच्चा पैदा करने में अक्षम होने के कारण आत्मघाती हमलावर बनने का दावा किया गया था.

अपने आत्मघाती हमलावर बनने तक अविवाहित ही रही वकील हनादी तैसीर जरदत के यह रास्ता अपनाने को लेकर रुढ़िवादी सोच को बदलने के लिए उसे ‘ब्राइड ऑफ हाइफा’ के तौर पर प्रचारित किया गया. वहीं शादी के बजाये आत्मघाती हमलावर बनना चुनने वाली अयात अल-अखरस को ‘ब्राइड ऑफ द हैवन्स’ करार दिया गया.

स्कॉलर वीजी जूली राजन ने इस मुद्दे पर एक चिंतनशील नई किताब में तर्क दिया है, ‘महिला हमलावरों के आत्मघाती कदम उठा लेने की मूल वजह उनकी राजनीतिक मंशा नहीं बल्कि मानसिक अस्थिरता होती है जिसमें उन्हें विशुद्ध व्यक्तिगत कारणों से आत्महत्या के लिए उकसाया जा सकता है.’

मीडिया कवरेज और ‘मुक्ति’

लिडिया डे बताती हैं कि कैसे हसन एतबौलाहसेन—जिनके बारे में 2005 में पेरिस में खुद को उड़ा लेने की गलत सूचना मिली थी—को वास्तविक आत्मघाती हमलावर चाकिब अक्रोह की तुलना में कहीं अधिक कवरेज मिला. उसके यौन जीवन और शराब पीने की आदत पर बड़े-बड़े रिपोर्ताज छप गए. दो प्रमुख अखबारों ने बबल बाथ में एक टॉपलेस महिला की तस्वीरें तक प्रकाशित कर दीं, जिस पर बाद में पता चला कि एतबौलासेन की नहीं थीं. डे जोरदार ढंग से कहती हैं, ‘महिलाओं के खिलाफ हर तरह से जोर-आजमाइश और उन्हें निशाना बनाना घिनौने मजाक की हद तक पहुंच चुका है..’

कभी-कभी और ज्यादा भ्रामक कहानियां फैलाई गईं—जैसे ब्रेस्ट इंप्लांट धमाका, वजाइनल इंप्लांट; यहां तक कि ढाल बनाकर बच्चों का इस्तेमाल करना आदि. दहशत में आए कुछ देशों में अधिकारियों ने पूरे चेहरे को ढकने पर प्रतिबंध लगा दिया—हालांकि कुछ ने अपनी पहचान छुपाने की कोशिश तो की थी लेकिन किसी ने भी अपने चेहरे पर विस्फोटक लगाने जैसा कदम नहीं उठाया है.

लिट्टे अपने दुष्प्रचार अभियान के तहत ब्लैक टाइगर महिलाओं को अक्सर भारतीय या श्रीलंकाई सैनिकों की यौन हिंसा पीड़ितों के तौर पर पेश करता है, जो उनके राजनीतिक इस्तेमाल को रुढ़िवादी समाज के बीच चिर-परिचित प्रतिशोध का रूप देने की कोशिश है. इस पर मिरांडा एलिसन का मानना है कि यौन हिंसा के खिलाफ गुस्सा निश्चित तौर पर तमाम लोगों को ऐसे कदम उठाने के लिए प्रेरित करेगा लेकिन ब्लैक टाइगर को प्रतिशोध की देवी बनाने वाली कहानियों की सच्चाई बताने वाले सबूत बहुत कम हैं.

यमुना संगाराशिवम ने जिन महिला लिट्टे विद्रोहियों का इंटरव्यू लिया, उनकी गवाही भी यह स्पष्ट करती है कि सैन्यीकरण ने महिलाओं को नई आजादी प्रदान की. लिट्टे से जुड़ी एक महिला के शब्दों में, ‘हम महिला कैडर और रोजमर्रा के काम के लिए सड़कों पर निकलने वाली महिलाओं के बीच काफी अंतर है. लड़के किसी स्थिति में हमारे पास आने की कोशिश नहीं करेंगे, उनकी हिम्मत नहीं ही पड़ेगी कि हमें उस तरह परेशान करें जैसे घर से बाहर निकलने वाली सामान्य लड़कियों को परेशान किया जाता है.’

बहरहाल, महिला टाइगर ने महिलाओं के लिए घर-परिवार की बेड़ियों को एक अन्य तरह की पितृसत्तात्मकता की कैद में तब्दील कर दिया है. एक एक्टिविस्ट ने स्कॉलर एना कटर को बताया था, ‘तमिल माताएं हर दिन अपने पुत्रों के लिए बड़ा त्याग करती हैं; अपने या अपनी बेटियों से पहले उनके लिए खाने की व्यवस्था करना, उनकी सेवा करना आदि. मानव बम बनना एक ऐसी महिला के लिए सोचा-समझा और स्वीकार्य प्रस्ताव है जो कभी मां नहीं बनेगी.’

आतंकवादी समूहों और जिस राष्ट्र-राज्य के लिए वे लड़ती हैं, दोनों के लिए महिला आत्मघाती हमलावरों के मामले में पितृसत्ता का बदला स्वरूप बेहद महत्वपूर्ण है. जीवन देने वालों के रूप में महिलाएं पितृसत्तात्मक समाजों की नींव हैं; जो महिलाएं मरती और मारती हैं वो दिखावटी तौर पर तबाही में शामिल होती हैं. खुद महिलाओं की कहानी धारणा-अवधारणा की इस जंग में कहीं खो गई है.

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

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