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Saturday, 21 December, 2024
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एपीएमसी कानूनों ने किसानों के हाथ बांध रखे थे, मोदी सरकार के अध्यादेश ने उन्हें दूसरे क्षेत्रों जैसी आजादी दी

मोदी सरकार ने एपीएमसी को खत्म तो नहीं किया है मगर नए अध्यादेश लागू करके किसानों को मंडियों से बाहर भी अपने उत्पाद बेचने की छूट दी है

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कृषि बाज़ारों के लिए कानूनी ढांचा तैयार करने के वास्ते सरकार ने जो तीन अध्यादेश लागू किए हैं उनमें तीसरा अध्यादेश निर्दिष्ट कृषि मंडियों यानी कृषि उत्पाद विपणन कमिटियों (एपीएमसी) के अधिकारों में कटौती करता है. इस अध्यादेश के जरिए आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करके और अनुबंध खेती के लिए नया कानून बनाकर भारतीय किसानों को आज़ादी देने की कोशिश की गई है.

यह किसानों को अपने राज्य में और दूसरे राज्यों में भी जाकर कहीं भी व्यापार करने की इजाजत देता है. इस अध्यादेश से एपीएमसी को खत्म तो नहीं किया गया है मगर किसानों को मंडियों से बाहर भी अपना उत्पाद बेचने की छूट दी गई है. यह अध्यादेश लाइसेंस-परमिट राज से किसानों की मुक्ति के रास्ते में मील के पत्थर के समान है.

अध्यादेश से क्या हासिल हुआ है

अनुबंध खेती वाला अध्यादेश किसानों को फसल उगाने के लिए अनुबंध करने की इजाजत देता है, एपीएमसी से संबंधित अध्यादेश किसानों को बिना पूर्व अनुबंध के अपने उत्पाद बेचने की छूट देता है. यह भारत में उगाई जाने वाली ज़्यादातर फसलों पर लागू होगा. किसान जब फसल बोता है तब आम तौर पर उसका कोई निश्चित खरीदार नहीं होता. जब वह फसल की कटाई कर लेता है तभी खरीदार की खोज शुरू करता है.

अध्यादेश इस लेन-देन को तीन तरह से प्रभावित करेगा—
1. यह कृषि मंडियों के लिए राज्यों द्वारा बनाए गए एपीएमसी क़ानूनों के दायरे को सीमित करेगा.
2. यह निजी पार्टियों को कृषि उत्पादों के व्यापार के लिए ऑनलाइन ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म बनाने की छूट देगा.
3. यह खरीदारों और किसानों के बीच विवाद निपटारे की व्यवस्था बनाएगा, जिसका संचालन जिले का सब-डिवीज़नल मजिस्ट्रेट करेगा.

अध्यादेश की मुख्य विशेषता यह है कि यह किसानों को एपीमसी के उपयोग की बंदिश से मुक्त करता है. अब तक कुछ राज्यों ने तो किसानों को एपीमसी के उपयोग से छूट दी है लेकिन वे उन्हें एपीएमसी का लाइसेंस रखने वाले व्यापारियों से ही व्यापार करने, और एपीएमसी को फीस देने के लिए बाध्य कर सकते हैं.

अध्यादेश स्पष्ट करता है कि एपीएमसी की मंडी के बाहर हुई लेन-देन के लिए किसी लाइसेंस की या फीस देने की जरूरत नहीं होगी. कोई भी किसानों से सीधे ख़रीदारी कर सकेगा और उसे एपीएमसी को फीस देने की जरूरत नहीं होगी.

यह कानून निजी इकाइयों को कृषि उत्पादों के लिए इलेक्ट्रॉनिक व्यापार प्लेटफॉर्म बनाने की अनुमति भी देता है, यह राज्य के अंदर और दूसरे राज्यों में भी किया जा सकता है. केंद्र सरकार इसके संचालन के नियम तय करेगी लेकिन बाजारों के गठन के लिए किसी लाइसेंस की जरूरत नहीं होगी.

अंत में, यह किसानों और ख़रीदारों के लिए विववाद निपटारे की व्यवस्था भी बनाएगा. विवादों का निपटारा सामान्य न्यायिक व्यवस्था के द्वारा नहीं बल्कि जिले के सब-डिवीज़नल मजिस्ट्रेट के द्वारा होगा.


यह भी पढ़ें: क्यों अनुबंध खेती का अध्यादेश किसानों, खरीदारों और व्यापारियों के लिए लाएगा फायदा ही फायदा


किसानों पर असर

यह कानून किसानों को एपीएमसी की जकड़ से आज़ाद करेगा, जो व्यापारियों के संघ जैसे बन गए हैं. (जैसा कि हमने पहले चर्चा की है) यह कानून किसानों को अपना उत्पाद सीधे किसी को भी बेचने की छूट देगा. इससे ख़रीदारों में प्रतियोगिता बढ़ेगी, और किसानों को बेहतर दाम मिलेंगे. अब कानूनी रूप से मान्य बिचौलिये के न होने से किसान सीधे उपभोक्ताओं (मसलन रेस्तराओं) को अपना उत्पाद बेच सकेंगे. इससे उपभोक्ताओं के लिए खाद्य सामग्री सस्ती हो सकती है.

किसानों को अपने उत्पाद की जो कीमत मिलती है और उपभोक्ताओं को थाली में खाने के लिए जो कीमत देनी पड़ती है उन कीमतों में अंतर को ‘फार्म-टु-फोर्क’ (खेत से थाली के बीच) कीमत वृद्धि कहा जाता है. ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ की एक रिपोर्ट कहती है कि यह वृद्धि भारत में 65 प्रतिशत तक की हो सकती है, जबकि उत्तरी यूरोप में 10 फीसदी और इंडोनेशिया जैसे विकासशील देशों में 25 फीसदी की होती है.

अध्यादेश बिचौलियों के कारोबार पर रोक नहीं लगाता है. एपीएमसी राज्य सरकारों के नियमों के तहत काम कर सकेंगे और अपनी सेवाओं के लिए फीस वसूल सकेंगे. सभी मौजूदा एपीएमसी को अध्यादेश द्वारा प्रस्तावित ढांचे से पूरी तरह अलग रखा गया है. यह अध्यादेश किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिए एक और विकल्प उपलब्ध कराता है.

संविधान का उल्लंघन करने वाली आपत्तियां

पंजाब सरकार और कुछ उत्साही जानकारों ने अध्यादेश पर इसलिए आपत्ति की है कि यह देश की संघीय व्यवस्था का उल्लंघन करता है. भारतीय संविधान ने राज्य विधानसभाओं को मंडियों और मेलों को संचालित करने के अधिकार दिए हैं (देखें संविधान की सातवीं अनुसूची में राज्य सूची की 28वीं प्रविष्टि को). उनका कहना है कि चूंकि एपीएमसी कृषि बाज़ारों को संचालित करता है, इसलिए केंद्र सरकार को उसमें दखल नहीं देना चाहिए.

यह तर्क दो आधार पर कमजोर साबित होता है— एपीएमसी कानूनों का दायरा और राज्यों के बीच व्यापार पर इन क़ानूनों द्वारा लगाए गए प्रतिबंध. राज्यों ने एपीएमसी का अधिकार क्षेत्र कानून के उचित दायरे से ज्यादा बढ़ा दिया है और वे बाज़ार क्षेत्र की सीमा तय करके तथा अनिवार्य फीस लगाकर बाज़ारों को नियंत्रित कर रहे हैं.

जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, किसी जिले या प्रखण्ड के किसान को एक ही एपीएमसी में जाने की इजाजत है. यह ऐसा ही जैसे किसी जिले के इंजीनियर को यह कहा जाए कि वह जिले की ही लाइसेंसशुदा सॉफ्टवेयर कंपनी में काम कर सकता है.

दूसरी पाबंदी फीस को लेकर है. किसान अगर किसी एपीएमसी का उपयोग नहीं भी करता है तो भी उसे या व्यापारी को एपीएमसी की फीस देनी ही है. यह ऐसा ही जैसे आप अपने घर में खाना बनाएं लेकिन आपको पड़ोस के रेस्तरां में पैसे देने ही पड़ेंगे.

आज़ादी किसी भी बाज़ार का मूल आधार है. बाज़ार का नियमन किया जा सकता है लेकिन बाज़ार में भागीदारी की तो छूट होनी ही चाहिए. लोगों से बाज़ार के लिए फीस वसूलना या उन्हें किसी खास बाज़ार में ही लेन-देन करने को बाध्य करना एपीएमसी क़ानूनों को उन उचित क़ानूनों का उल्लंघन करने वाला माना जाएगा जिनके अनुसार मंडियों या मेलों को चलना चाहिए. राज्यों को भी इस बात का एहसास है.

संविधान का पार्ट XIII देशभर में व्यापार-कारोबार करने की आज़ादी देता है. कोई भी राज्य राष्ट्रपति की मंजूरी के बिना राज्यों के बीच व्यापार पर प्रतिबंध लगाने के कानून नहीं बना सकता. एपीएमसी के ज़्यादातर क़ानून अपने प्रतिबंधात्मक प्रावधानों के कारण इस संवैधानिक आज़ादी को छीनते हैं. कई राज्यों ने ऐसे कानूनों को लागू करने के लिए राष्ट्रपति से मंजूरी मांगी है (मसलन पश्चिम बंगाल का कानून कहता है कि उसे अनुच्छेद 304(बी) के तहत राष्ट्रपति से मंजूरी मिल गई है).

अगर ये कानून केवल मंडियों और मेलों के नियमन के लिए होते तो राष्ट्रपति के पास जाने की जरूरत नहीं होती.
भारत का किसान लंबे समय से कठोर और असामान्य तरह के क़ानूनों में पिसता रहा है. यह अध्यादेश भारत में खेतीबाड़ी को सामान्य बनाने और किसानों को उस आज़ादी का लाभ दिलाने की दिशा में एक कदम है, जो आज़ादी दूसरे क्षेत्रों को भी हासिल है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(इला पटनायक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर और शुभो रॉय शिकागो विश्वविद्यालय में रिसर्चर हैं.यहां व्यक्त विचार निजी हैं. )

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