मुझे याद आ रहा है, करीब दो दशक पहले मुंबई के ताजमहल होटल में अर्थशास्त्री रघुराम राजन की किताब ‘सेविंग कैपिटलिज्म फ्रॉम द कैपिटलिस्ट्स’ पर परिचर्चा चल रही थी. हॉल के एक तरफ से अचानक एक बेहद बुलंद आवाज़ उभरी, कोई कह रहा था कि भारत और उसके शेयर बाज़ार में अभूतपूर्व उछाल आने वाला है. इस बात का न तो वहां कोई संदर्भ था, और न वह इसके लिए उपयुक्त स्थान था. बाद में पता चला कि वह आवाज़ राकेश झुनझुनवाला की थी, जिनसे मैं कुछ दिनों बाद शराब के दौर के साथ मिला. बल्कि सही यह है कि दक्षिण मुंबई के ज्योफ्रे बार में कई दौरों के साथ उनसे मिला.
अपशब्दों और रंग-बिरंगी कहावतों से भारी एकतरफा बातचीत, जिसमें शेयर बाज़ार को महिलाओं के समान बताते हुए राकेश ने बताया कि वे भारत में आ रहे उछाल को लेकर इतने आशावादी क्यों हैं. उनका आशावाद उनकी बुनियादी समझदारी की देन थी, इसके पीछे कोई गहरी बात नहीं थी. लेकिन उन्होंने अच्छी-ख़ासी दौलत बना ली थी (उस शाम मुलाक़ात खत्म होने के बाद उन्होंने 1000 रुपये के नोटों की गड्डी से कुछ नोट निकालकर भुगतान किए), बाद में जो हुआ उसके सामने कुछ नहीं थी.
मैंने पाया कि राकेश अक्सर अपनी सबसे ऊंची आवाज़ में जोश के साथ बातें करते थे. शेयर खरीदने की अपनी रणनीति के बारे में वे कभी साफ-साफ नहीं बोलते थे, बस तीखी बातें करते थे, वह भी शायद जान-बूझकर. मुझे उन्होंने एक बार ही फोन करके निवेश का सलाह दी थी— ‘टाटा मोटर्स खरीद लो’. लेकिन मैंने सलाह नहीं मानी थी. बाद में उन्होंने मुझे मैसेज भेजा कि कंपनी के शेयर की कीमत कितनी बढ़ गई है इसलिए मैं याद रखूं.
शेयर बाजार से दूसरे के मुक़ाबले सबसे ज्यादा पैसे बनाने के कारण वे बाज़ार से ज्यादा भारत को लेकर ज्यादा आशावादी रहते थे और अपनी दौलत से ज्यादा देश की बातें करते थे. उनके राजनीतिक विचार हिंदुत्ववादी दावों की ओर झुके थे. और हमेशा की तरह उनकी भाषा और उनके हाव-भाव में संयम की कमी ही रहती थी. उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि उनके विचारों को मैं कच्चा मानता था, वे अपनी बात कह डालते थे. गौरतलब है कि अच्छे प्रयासों के लिए दान देने के मामले में वे राजनीतिक भेदभाव नहीं करते थे.
वे पूरी तरह पारिवारिक व्यक्ति थे. अपनी बातचीत में वे अपने पिता और पत्नी का जिक्र अक्सर किया करते थे. वे संतान पाने को बहुत इच्छुक थे और जब उन्हें बच्चे हुए तो वे खूब खुश थे. वे फिल्में खूब पसंद करते थे और कुछ फिल्मों में उन्होंने पैसे भी लगाए थे. अपने 60वें जन्मदिन पर व्हीलचेयर से बंधे होने के बावजूद बैठे-बैठे उन्होंने जो डांस किया था वह उनके निधन के बाद खूब वायरल हुआ. ज़िंदगी के प्रति उनके उत्साह का यह स्थायी सबूत है. मलाबार हिल इलाके में उन्होंने बड़ा प्लॉट खरीदकर कोठी बनवाई लेकिन वे खुल कर दान देने लगे थे और कहा करते थे कि वे और बहुत कुछ करना चाहते हैं.
लोगों पर उन्हें भरोसा था. जिस विश्वविद्यालय को उन्होंने दान दिया था वहां जाने से यह कहकर मना कर दिया कि उसे ठीक से चलाने वाले लोग वहां मौजूद हैं. उनका दावा था कि उन्होंने अपनी ‘आकासा एअर’ में प्रमुख लोगों को 40 फीसदी ‘स्वेट इक्विटी’ दे रखी है. ‘उनकी हिस्सेदारी काफी है इसलिए मुझे चिंता करने की जरूरत नहीं है. मुझे किसी को जवाब नहीं देना है.’ इस पर अमल करते हुए वे केवल अपना पैसा ही निवेश करते थे.
फिर भी, अपनी एअरलाइन के साथ राकेश एक निवेशक से एक उद्यमी बन गए थे. उनके करीबी दोस्त, उनके उलट मृदुभाषी राधाकृष्ण दमानी ने उनके लिए रास्ता बना दिया था. दमानी ने जब अपनी रिटेल चेन डीमार्ट शुरू नहीं की थी तभी वे दोनों दलाल स्ट्रीट में मिले थे. इस चेन का बाज़ार मूल्य आज 2.8 ट्रिलियन रुपये के बराबर है. इसमें दमानी की जो हिस्सेदारी है उससे राकेश की आश्चर्यजनक दौलत का अंदाजा लगाया जा सकता है.
एक बार एक दिलचस्प बातचीत में राकेश ने मुझसे कहा था कि देश उनके समुदाय के कब्जे में है. इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था कि वे बनिया समुदाय के अग्रवाल हैं, जैसे जिंदाल, बंसल, गोयल, मित्तल, सिंहल, आदि गोत्र हैं. इसके बाद उन्होंने ख्यात आला व्यवसायियों के नाम गिनाए, सभी अग्रवाल थे. उन्होंने पूछा था, ‘तो बोलो बॉस, देश हमारी मुट्ठी में है कि नहीं?’
हमारी आखिरी मुलाक़ात दिल्ली में हुई थी जहां वे प्रधानमंत्री से लेकर तमाम राजनीतिक दिग्गजों से मिलने आए थे. लंच में उन्होंने शेखर गुप्ता और मुझे भी बुलाया था. वे व्हीलचेयर में थे और बुरी हालत में थे. लेकिन वे ज़ोर देकर कह रहे थे उनके मेडिकल संकेतक दुरुस्त हैं. लेकिन उनका पुराना जज्बा गायब था. एक सेवक उन्हें कुछ-कुछ देर पर दवाइयां खिला रहा था. उन्हें इस तरह देखकर जीवन से बड़ी उनकी हस्ती को लेकर हम केवल पूर्वाभास ही लगा सकते थे.
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