रिपोर्ट ज़ोर देकर कहती है कि ‘एक ऐसी लचीली शिक्षा नीति की जरूरत है जो बदलती परिस्थितियों के मुताबिक ढल सके. इसका अर्थ है प्रयोग और नवाचार के महत्व देना. आज जिस एक चीज़ की सबसे ज्यादा जरूरत है, वह है व्यवस्था की जकड़न से बाहर निकलना.’ इसके अलावा जरूरी है ‘कार्य के अनुभव को शामिल करना (इसमें शारीरिक श्रम, उत्पादन प्रक्रिया का अनुभव, आदि), और शिक्षा के लगभग हर चरण पर समाजसेवा को सामान्य शिक्षा का अभिन्न अंग बनाना’ और अंत में, ‘नैतिक शिक्षा पर ज़ोर देना और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना जगाना’ भी जरूरी है.
ये सारे शब्द रमेश पोखरियाल के नहीं हैं, जो उस मंत्रालय के मुखिया हैं जिसका नया नाम शिक्षा मंत्रालय रखा गया है. ये शब्द हैं डीएस कोठारी के, जो उन्होंने 1966 में तत्कालीन शिक्षा मंत्री को उस शिक्षा आयोग की रिपोर्ट पेश करते हुए लिखे थे जिसके वे अध्यक्ष थे. उस आयोग की सिफ़ारिश पर ही 10+2 वाली स्कूल सिस्टम लागू की गई थी. उसके तहत +2 वाले चरण में व्यावसायिक शिक्षा देने की बात थी लेकिन व्यवहार में उसने कुछ और ही रूप ले लिया. ऐसा ही हश्र व्यवस्था की जकड़न से बाहर आने के इरादों का भी हुआ.
पोखरियाल की नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) कोठारी की रिपोर्ट से कहीं ज्यादा महत्वाकांक्षी दस्तावेज़ है. इसमें कई सकारात्मक बातें भी हैं- मातृभाषाओं पर ज़ोर (जो कोठारी की रिपोर्ट में भी थी), स्कूल-पूर्व शिक्षा को मुख्य शिक्षा व्यवस्था में शामिल करना, पाठ्यक्रमों के ढांचों में पूरा लचीलापन. ये तमाम इरादे कितने पूरे होते हैं, यह इस पर निर्भर होगा कि 30 से ज्यादा राज्य व केंद्रशासित प्रदेश और इस नीति पर क्या प्रतिक्रिया करते हैं और 15 लाख स्कूल उसे किस तरह अपनाते हैं, 12 लाख आंगनवाड़ियों में कितना बदलाव लाया जाता है. किसी नीति दस्तावेज़ में जब ‘समग्रता’, ‘बहुअनुशासन’ जैसे भारी मुहावरे भरे पड़े हों तब उसको लेकर आशंकाएं बढ़ने लगती हैं.
यह भी पढ़ें : पीएम मोदी को समझना होगा कि भारत को मजबूत देश होने की जरूरत है, सिर्फ मजबूत सरकार नहीं
उदाहरण के लिए अंग्रेजी के सवाल को ही लें. क्या इसका वह हश्र होगा जो फ्रेंच भाषा का हुआ था, जो कभी रूसी सामंतों और दरबार की भाषा थी (आधुनिक रूसी साहित्य के जनक माने गए पुश्किन ने महिलाओं को अपने 90 प्रतिशत पत्र फ्रेंच भाषा में लिखे थे)? या क्या भारत में अंग्रेजी की वह स्थिति हो जाएगी जो लातीन अमेरिका में स्पेनी और पुर्तगाली भाषा की हुई, जो कभी विजेताओं की भाषा थी और बाद में 90 फीसदी लातीन अमेरिकिओं के लिए ‘नेटिवों’ की भाषा बन गई? ऐसा कुछ नहीं होगा. भारत की देसी भाषाओं का भी वह हश्र नहीं होगा जो क्वेचुआ, गुयारनी, आयमारा जैसी पूर्व-कोलम्बियाई भाषाओं का हुआ, जो अब दक्षिण और मध्य अमेरिका के चंद अल्पसंख्यकों की भाषाएं रह गई हैं. भारत के स्कूलों में अंग्रेजी जिस तेजी से पढ़ाई का माध्यम बनती जा रही है और कुल स्कूलों के छठे से ज्यादा स्कूलों में अपना ली गई है (हिंदी के बाद, जो कि आधे से ज्यादा में बनी हुई है), उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि दुनिया भर में सिक्का जमा चुकी अंग्रेजी भाषा से भारत मुंह नहीं मोड़ने वाला है.
अंग्रेजी को अपने स्कूलों में पढ़ाई का मुख्य माध्यम बनाकर आंध्र प्रदेश ने भी जम्मू-कश्मीर की तरह भूल की हो, मगर आप इस तथ्य का क्या करेंगे कि मुंबई के मराठी मीडियम स्कूलों से बच्चे गायब हो रहे हैं और अंग्रेजी की मांग बढ़ रही है? 14 करोड़ प्रवासी कामगारों के बच्चों को उनकी मातृभाषाओं में किस तरह पढ़ाएंगे? दिल्ली, बंगलूरू या मुंबई जैसे महानगरों में, जहां आधी से ज्यादा आबादी की मातृभाषा स्थानीय हिंदी, कन्नड या मराठी नहीं है वहां मातृभाषा का आग्रह मुश्किलें ही पैदा करेगा. दिल्ली के स्कूल कितनी मातृभाषाओं में पढ़ाने की व्यवस्था कर पाएंगे- बंगाली, मराठी, तमिल, गुजरती? तबादले वाली नौकरी करने वाले पिता की संतान के रूप में मैंने दो भाषाओं में तो किसी तरह पढ़ाई की लेकिन पांचवीं क्लास तक तीन अलग-अलग ‘तीसरी भाषा’ में फेल होता रहा.
सच यह है कि हिंदी की तरह अंग्रेजी को भी अपनी छोटे संख्याबल के बावजूद मातृभाषा जैसी ही हैसियत हासिल हो चुकी है. यह आकांक्षाओं की भी भाषा है, जिसका ताल्लुक हमारे औपनिवेशिक अतीत से नहीं है जो कि तीन पीढ़ी पहले खत्म हो चुका है. यह अधिकांश घरों में बोलचाल की, या राजनीति की प्रमुख भाषा नहीं बन सकती. यह भी याद रहे कि 10 सबसे लोकप्रिय अखबारों में अंग्रेजी का केवल एक ही अखबार है, टीवी के समाचार और मनोरंजन चैनलों में अंग्रेजी की हिस्सेदारी बेहद छोटी है. लेकिन कॉर्पोरेट और वित्त जगत, ऊंची अदालतों में अंग्रेजी अपनी जगह बनाए रखेगी. और लगता है कि आगे भी वह दो में से एक राजभाषा बनी रहेगी. शायद ऐसा होना भी चाहिए.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )