नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (इसाक मुइवा) की जो टीम वार्ता के लिए दिल्ली आई है उसकी मांग थी कि नागालैंड के राज्यपाल आरएन रवि के बदले किसी दूसरे को वार्ताकार बनाया जाए. यह टीम रवि के सख्त रुख से नाराज थी, क्योंकि उन्होंने साफ कह दिया है कि नागालैंड के लिए अलग संविधान बनाने का कोई सवाल नहीं है, न ही नागालैंड से सटे राज्यों में नागाओं की आबादी वाले सीमावर्ती क्षेत्रों को नागालैंड में शामिल किया जाएगा.
नागालैंड की सबसे बड़ी समस्या आज यह नहीं है कि शांति समझौते का प्रारूप नहीं तय हो पाया है बल्कि यह है कि वहां राज्यतंत्र का धीरे-धीरे लोप होता जा रहा है.
याद रहे कि समझौते के एक प्रारूप पर 3 अगस्त 2015 को बागी नागाओं के साथ दस्तखत किए गए थे. उम्मीद यह थी कि इसके बाद जल्दी ही अंतिम समझौता हो जाएगा और नागालैंड में बगावत का अंत हो जाएगा, शांति का दौर शुरू होगा. लेकिन एनएससीएन (आइएम) की हठधर्मिता के कारण ऐसा नहीं हो पाया.
राज्यपाल रवि सभी मसलों को सुलझाने के अथक प्रयास कर रहे थे मगर वे ऐसी कोई मांग मानने को तैयार नहीं थे जिससे भारत की संप्रभुता पर कोई आंच आए या पड़ोसी राज्यों की भौगोलिक अखंडता को कोई चोट पहुंचे. नरेंद्र मोदी सरकार अगर उन्हें वार्ता से हटाती है तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा.
रवि की सख्ती से परेशानी
अतीत में जब एक पूर्व गृह सचिव वार्ताकार थे तब एनएससीएन (आइएम) काफी खुश था. दुर्भाग्य से ये नौकरशाह विद्रोही
नेताओं से वार्ता के लिए दुनियाभर की यात्राएं करने और उन नेताओं को किसी तरह की परेशानी में न डालने में ज्यादा दिलचस्पी रखते थे, बल्कि उन्हें रिझाने में लगे रहते थे.
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रवि ने मुख्यमंत्री नेईफ़्यू रियो को एक पत्र लिखकर राज्य सरकार और एनएससीएन (आइएम) को परेशानी में डाल दिया था, क्योंकि पत्र में उन्होंने ‘हथियारबंद गिरोहों द्वारा जबरन वसूली’ और ‘समानांतर सरकार’ चलाए जाने पर नाखुशी जाहिर की थी. यही नहीं, उन्होंने सभी सरकारी अधिकारियों को निर्देश दिया था कि वे गृह विभाग को अपने परिवारों के उन सदस्यों और रिश्तेदारों के बारे में सूचना दें जो भूमिगत संगठनों में शामिल हैं. सरकारी अधिकारियों को अपनी पोल खुलने का डर सताने लगा. एनएससीएन (आइएम) को लगा कि उसका आधार सिकुड़ जाएगा. इसलिए वे सब रवि और उनके कदमों के खिलाफ हो गए.
जबरन वसूली जारी
पिछले 23 साल से यानी 25 जुलाई 1997 को जब अलगाववादियों के खिलाफ ऑपरेशंस को रोकने का समझौता हुआ था तब से राज्यतंत्र ने दयनीय रूप से अपना कामकाज छोड़ दिया और बागी संगठनों को हावी होने दिया है. इससे भी बुरी बात यह है कि वहां केवल एक समानांतर सरकार ही नहीं चल रही है बल्कि, जैसा कि पूर्व मुख्यमंत्री एससी जमीर ने कहा, ‘कई सरकारें, कई प्रधानमंत्री, कमांडर-इन-चीफ हैं और वे सब अपने को बॉस मानते हैं. एनएससीएन (आइएम) बेशक सबसे ताकतवर है लेकिन यह यूंग गुट और कोन्याक गुट में बंटा हुआ है. नागा नेशनल काउंसिल समझौतावादी और गैर-समझौतावादी गुटों में बंटी हुई है. इसके अलावा, नागा नेशनल पॉलिटिकल ग्रुप और नागा होहो, आदि कई गुट सक्रिय हैं.
पिछले दो दशकों में इन गुटों ने विभिन्न सरकारी विभागों में घुसपैठ कर ली है या उन पर दबदबा बना लिया है और सरकारी अधिकारियों तथा जनता से जबरन वसूली कर रहे हैं. यह वसूली ‘चंदा’ या ‘टैक्स’ के नाम पर की जाती है. केंद्र विकास के लिए जो पैसे देता है उसका काफी हिस्सा इस तरह निकाल लिया जाता है. ठेकेदारों को विद्रोहियों को कुछ हिस्सा देना पड़ता है. भ्रष्टाचार और वसूली आम है. जैसा कि जमीर ने कहा है, ‘वे इसे टैक्स कहते हैं लेकिन यह जबरन वसूली है, और यह कि ‘एक नागा परिवार इतने कथित विद्रोही संगठनों का पेट भर रहा है कि दुर्भाग्य से उसके पास कुछ नहीं बचता.’
कुछ लोग तमाम बागी गुटों की मांगों से इतने तंग आ चुके हैं कि उन्हें युद्धविराम खत्म किए जाने से खुशी ही होगी. ऑपरेशंस के दौरान बागी जंगलों में भाग जाते हैं लेकिन आजकल वह शहरों-कस्बों में खुल कर घूम रहे हैं और उन्होंने आम लोगों का जीना दुर्लभ कर रखा है.
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लेकिन बागी गुट युद्धविराम समझौते से काफी खुश हैं और इसकी शर्तों का मनमर्जी उल्लंघन कर रहे हैं. युद्धविराम निगरानी ग्रुप (सीएफएमजी) का गठन किया गया है मगर वह बेअसर है. इसके प्रवक्ता के मुताबिक, विद्रोहियों को लोगों से जबरन वसूली करने का कोई अधिकार नहीं है मगर यह ग्रुप ‘दान’ के मामले में कोई कार्रवाई नहीं कर सकता. इसी तरह, विद्रोही किसी को अपने गुट में भर्ती नहीं कर सकते लेकिन लोग जब ‘स्वेच्छा’ से भर्ती होते हैं तो यह ग्रुप कुछ नहीं कर सकता. शर्तें और नियम ढीलेढाले हैं जिनका बागी लोग पूरा फायदा उठाकर पैसे की उगाही और स्त्री-पुरुषों को भर्ती करके अपने गुटों की ताकत बढ़ा रहे हैं. दुर्भाग्य की बात यह है कि भारत सरकार इस तमाशे को दो दशक से ज्यादा से मूक दर्शक बनकर देखती रही है.
अब और दादगीरी नहीं
यहां एक वाजिब सवाल यह उठता है कि भारत सरकार बागी नागाओं से कितने समझौते करती रहेगी? 1957 में हुए नागा पीपुल्स कन्वेंसन ने मांग की थी कि असम के नागा हिल्स जिले और उत्तर-पूर्व सीमा एजेंसी (नेफ़ा) के त्वेनसांग फ़्रंटियर डिवीजन को मिलाकर एक किया जाए. इस मांग को मान कर नागा हिल्स त्वेनसांग एरिया (एनएचटीए) का गठन किया गया.
1959 में दूसरे नागा पीपुल्स कन्वेंसन ने अलग नागालैंड राज्य बनाने की मांग की. यह मांग भी मान ली गई और 1963 में नागालैंड भी बना दिया गया. 1975 में शिलांग समझौता हुआ जिसके तहत भूमिगत गुटों ने हथियार डालने पर सहमति दी और सरकार ने गिरफ्तार विद्रोहियों को रिहा करने तथा उनके पुनर्वास के लिए उदारता से अनुदान देने का फैसला किया.
कट्टर बागियों ने बाद में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (एनएससीएन) का गठन किया. लेकिन समझौते की शर्तों पर अमल नहीं किया. अब मुइवा और उनके गुट ने अलग झंडा, अलग संविधान: असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के नागा बहुल क्षेत्रों को नागालैंड में विलय करने की नयी मांग रख दी है. इसकी क्या गारंटी है कि मांगें यहीं खत्म हो जाएंगी? दरअसल, एनएससीएन (आइएम) भारत सरकार को ब्लैकमेल करता रहा है और वक़्त आ गया है कि सरकार सख्त रुख अपनाए और साफ-साफ कह दे कि अब बस! बहुत हो चुका!
राज्यपाल रवि नागालैंड की 14 जनजातियों को एक मंच पर लाने और एक स्वर में यह कहलवाने में सफल हुए हैं कि वे सब स्थायी शांति चाहते हैं. नागालैंड गाओं बुरा फेडरेशन (एनजीबीएफ) ने हाल में बयान जारी करके शांति वार्ता में मुइवा गुट की भूमिका की आलोचना की है और कहा है कि ‘वार्ताकार को बदलने की मांग गलत और अस्वीकार्य है.’
जाहिर है, उत्तर-पूर्व में एनएससीएन (आइएम) की दादगीरी खत्म करने का वक़्त आ गया है. यह गुट न केवल पैरों में चुभा कांटा बन गया है बल्कि नागालैंड के बाहर उत्तर-पूर्व के विभिन्न भागों में अलगावादी गुटों को मदद भी दे रहा है.
(लेखक पूर्व में महानिदेशक, सीमा सुरक्षा बल और डीजीपी असम रह चुके हैं व्यक्त विचार निजी हैं.)
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