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Friday, 22 November, 2024
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क्या स्वास्थ्य मंत्रालय को बीमारियों को रहस्यमयी बनाने की बीमारी है

बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में चमकी बुखार ने देश को हिलाकर रख दिया है. हकीकत ये है कि केंद्र और बिहार के स्वास्थ्य विभाग संजीदगी दिखाता तो शायद ऐसी नौबत ही नहीं आती.

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चमकी बुखार, जिसने तकरीबन 150 बच्चों की सांसें छीन लीं. यहां तक कि एक बच्चे ने तो स्वास्थ्य मंत्री के सामने दम तोड़ दिया. बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में इस कहर ने देश के लोगों को हिलाकर रख दिया है. सियासत भी हो रही है इस मुद्दे पर, क्योंकि जिम्मेदारों ने संवेदनशील माहौल में जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई अब तक, वे सरकार में हों या विपक्ष में. कई दिन बाद स्वास्थ्य मंत्रालय ने महामारी पर शोध के लिए भी टीम भेजी है. हकीकत ये है कि केंद्र और बिहार राज्य का स्वास्थ्य विभाग संजीदगी दिखाता तो शायद ऐसी नौबत ही नहीं आती.

हर महामारी को रहस्यमयी तरीके से पेश करके नियति पर छोड़ देने का तरीका सरकारों ने ईजाद कर लिया है. सालभर पहले उत्तर प्रदेश के रुहेलखंड क्षेत्र में रहस्यमयी बुखार ने 300 से ज्यादा लोगों की जान ले ली. कभी कोई बीमारी बताई गई तो कभी कोई संकेत जताया गया. आखिरकार मलेरिया फाल्सीपेरम का ढोल बजा और उसी आधार पर इलाज तब तक चला, जब तक कि बुखार का प्रकोप मौसम ठंडा होने से ठंडा नहीं हो गया. इस रहस्य को रहस्य ही रहने दिया गया. इतने बड़े प्रकोप के बावजूद इस बार प्रदेश की योगी सरकार ने लाखों आबादी पर प्रतिरक्षा के लिए क्लोरोक्वीन की कुछ सौ गोलियां और कुछ मच्छरदानियों का इंतजाम किया है.

कभी दानी सम्राट हर्षवर्धन की रियासत का हिस्सा रहे मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार को भी कुछ ऐसा ही रहस्यमयी बनाने की कोशिश हो रही है. इस काम में मेन स्ट्रीम मीडिया सबसे ज्यादा भ्रम पैदा कर रहा है. स्वास्थ्य विभाग की भाषा में चमकी बुखार को एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम बताया जा रहा है. इसी के इर्द-गिर्द महामारी की चर्चा है. हालांकि इस रहस्य पर अभी भी पर्दा है कि वास्तव में इसका कारण क्या है. अगर चर्चा में है तो ये नई बात बिल्कुल भी नहीं है. न महामारी और न ही इस आधार पर होने वाली मौतें. शिकार होने वाले बच्चे भी उसी दलित-गरीब पृष्ठभूमि के हैं, जो हमेशा ही होते हैं.


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इतना नासमझ कैसे हो सकता है स्वास्थ्य मंत्रालय!

चमकी बुखार या एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम (एईएस) और जापानी इंसेफलाइटिस (जेई) के प्रकोप पर स्वास्थ्य मंत्रालय ऐसे हतप्रभ है, जैसे इससे पहले कुछ पता ही न हो. ऐसा हो भी सकता है, क्योंकि हमारे देश में गंभीर मसलों पर लंबी कसरत करने की न आदत है और न मंशा. ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि जो हो रहा है, उसकी आशंकाएं, जरूरतों और बंदोबस्त के लिए कई शोध हो चुके हैं, लेकिन उस आधार पर कभी तैयारी नहीं की गई. भारत सरकार को न शोध कराने में अब कोई दिलचस्पी है और न ही मुफ्त के शोध से जनहित की कवायद में. निराशाजनक ये है कि धूल फांक रहे शोधों पर सरकार ने नजर डालना अभी भी मुनासिब नहीं समझा.

अमेरिकी विश्वविद्यालय की एक टीम सिर्फ इस बात के लिए डेढ़ दशक से जुटी है कि अटलांटिक महासागर में होने वाली उथल-पुथल से भारत में मलेरिया के प्रकोप की क्या स्थिति रहती है, लेकिन भारत सरकार इस शोध के अध्ययनों से कोई मतलब नहीं रखती. इसको भी देखना गंवारा नहीं समझा गया कि कितने तापमान पर कौन सा वायरस फैलाने वाले मच्छरों का संबंध है.

अनदेखा करने के बाद अब शोधकार्यों को अलविदा

हालत ये है कि मोदी सरकार पहले कार्यकाल में ही शोध कार्यों को लगभग अलविदा कर चुकी है. शोध के लिए अब जो बजट दिया जा रहा है, उससे परखनली और स्प्रिट का खर्चा भी निकल आए, वही बहुत है. सूत्रों का कहना है कि विश्वस्तरीय शोध संस्थान इंडियन वेटनरी रिसर्च इंस्टीट्यूट को इस बार शोध कार्यों के लिए तीन वैज्ञानिकों पर एक लाख रुपये का बजट मिला है. यही हालत बाकी शोध संस्थानों की भी है. फिर भी कुछ सिरफिरे वैज्ञानिक-शोधकर्ता अपनी जेब से या जुगाड़-तुगाड़ से संसाधनों को जुटाकर मगजमारी कर देश की इज्जत बचाने की कोशिश कर रहे हैं.

कपड़े फटने के बाद सूत कातने बैठने का कोई मतलब नहीं है. केंद्र में मोदी सरकार का पहला कार्यकाल शुरू होने से पहले जेई और एईएस पर कई अध्ययन हुए, जिनके आधार पर बचाव की तैयारी हो सकती थी. इन्हीं में से एक शोध में बताया गया कि बिहार से एईएस और जेई पर डेटा की कमी है, जबकि उत्तर प्रदेश और असम के बाद जेई मामलों की रिपोर्टिंग में ये राज्य तीसरे स्थान पर है. अध्ययन के दौरान वर्ष 2009-2014 की अवधि में एईएस के लिए 30 प्रतिशत घातक दर (केस फैटेलिटी रेट-सीएफआर) के साथ कुल 4400 मामले (733 मामले प्रति वर्ष) पाए गए. अध्ययन के दौरान ही लगभग 14 प्रतिशत सीएफआर के साथ जेई के कुल 396 मामले सामने आए, 56 मौतें हुईं.

इतने व्यापक अध्ययन धूल फांक रहे

एईएस और जेई महामारी गर्मियों और मानसून के महीनों के शुरू और अंत में हुई थी. पटना, जहानाबाद, नवादा, गया और पूर्वी चंपारण जैसे जिलों में एईएस और जेई मामलों की अधिकतम संख्या दर्ज की गई. शोध का नतीजा बताता है कि 2009 के बाद से बिहार में एईएस और जेई मामलों की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई है.

2009 से 2014 तक, एईएस के मामले अप्रैल-मई में दिखाई देने लगे और जून के दौरान चरम पर पहुंच गए, अक्टूबर से गिरावट आई. हर साल एक समान पैटर्न देखा जाता है. दो बार महामारी चरम पर होती है, एक जून में और दूसरी सितंबर और अक्टूबर में. गंभीर केसेज का उच्चतम शिखर 2014 में था. वर्षों से जेई (पुष्ट) मामलों की प्रवृत्ति के साथ एईएस को भी दिखाती है.

अधिकांश पिछले अध्ययनों ने मई और अक्टूबर के बीच महामारी की सूचना दी, ऐसे क्षेत्र ज्यादातर भारत के उत्तरी और पूर्वी हिस्सों थे. सक्सेना एट अल में एईएस मामलों की प्रवृत्ति का अध्ययन किया गया और सुझाव दिया कि जेई उत्तर भारत में बढ़ रहा है, जिसकी वजह से भविष्य में महामारी हो सकती है.

कर्नाटक में प्रत्येक वर्ष दो महामारियां होने की सूचना है, अप्रैल से जुलाई तक एक गंभीर रूप में और शेष भारत के साथ सितंबर से दिसंबर तक. तमिलनाडु में 561 एईएस केस एक अध्ययन के दौरान रिपोर्ट किए गए, जेई की पुष्टि 4.9 प्रतिशत में थी, जो 2007 में 4.1 प्रतिशत से बढ़कर 2009 में 5.3 प्रतिशत की बढ़ती प्रवृत्ति के साथ थी. पटना, नालंदा, जहानाबाद, नवादा, गया, औरंगाबाद, वैशाली, मुजफ्फरपुर, शेहर और पूर्वी चंपारण जिलों में एईएस के मामलों की अधिकतम संख्या 4.7 से 24.8 प्रति एक लाख जनसंख्या पर थी. दिनेश एट अल और मिश्रा एट अल ने भी मामलों की लगभग यही सूचना दी.

हाई अलर्ट कर दिए दरकिनार

डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों के अनुसार, दुनिया भर से 2013 में जेई के 3187 मामले सामने आए थे. इनमें से 42 प्रतिशत दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र के देशों से थे, जिसमें शीर्ष पर भारत दिखा. 2011 में कैम्पबेल समीक्षा में भारत को विस्तृत टीकाकरण कार्यक्रम की जरूरत बताई गई, ये भी कहा गया कि भारत मध्यम से उच्च घटनाओं वाले क्षेत्रों में आता है, श्रीलंका, थाईलैंड और वियतनाम की स्थिति में है.

भारत में जेई का पहला मामला 1955 में वेल्लोर, तमिलनाडु से सामने आया था और पहला बड़ा प्रकोप 1973 में पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले से सामने आया. तब से 19 राज्यों के 171 जिलों से एईएस और जेई केस रिपोर्ट किए गए. भारत में जेई वायरस 15 से अधिक प्रजातियों के मच्छरों से फैल सकते हैं जो कि क्यूलेक्स, एडीज और एनाफिलीज से संबंधित हैं. विशेष रूप से क्यूलेक्स ट्राइटेनियोरिन्चस के काटने से मनुष्यों में फैलता है. क्यूलेक्स को मुख्य वेक्टर माना जाता है. 2005 के दौरान 6000 से अधिक मामलों और 1500 मौतों के साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश (यूपी) में जेई का बड़ा प्रकोप देखा गया. पूर्वी यूपी से सटे बिहार में, मुजफ्फरपुर जिले सहित कुछ जिलों में समय-समय पर महामारी के साथ एईएस और जेई के रोगियों की संख्या में वृद्धि हुई है.

डॉक्टरों के सिर ठीकरा फोड़ना गलत

जेई वायरस फैलाव मुख्य रूप से ग्रामीण कृषि क्षेत्रों में होता है, जो अक्सर चावल उत्पादन और बाढ़ सिंचाई से जुड़ा होता है. शोध बताते हैं कि एईएस का प्रेरक एजेंट मौसम और भौगोलिक स्थिति के साथ बदलता भी रहता है. रोगजनकों की विस्तृत श्रृंखला और रोगजनन के कारण तेजी से न्यूरोलॉजिकल हानि होती है, चिकित्सकों को संक्रमण की पहचान और उपचार के बीच बहुत कम वक्त की चुनौती का सामना करना पड़ता है. बिहार में एईएस की महामारी के पैटर्न को जानने के लिए बाकायदा अध्ययन हुआ है. इस आधार पर तो सरकार ही व्यवस्थाओं को ठीक कर सकती है, डॉक्टरों पर ठीकरा फोड़ने से क्या होगा.


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संक्रमण की बारीकी से पहचान की कोशिश

पटना मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के बाल रोग विभाग ने वर्ष 2016 में 1 जनवरी से 31 दिसंबर तक इस अध्ययन को किया. अध्ययन में जनांकिकीय, एटिऑलॉजिकल विश्लेषण और एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम के मामलों के नतीजे के साथ-साथ जापानी इंसेफेलाइटिस को भी जांचा गया.

अध्ययन में रोगियों की कुल संख्या में 105 मेल और 81 फीमेल थे. आयु वर्ग में सबसे अधिक 5-10 वर्ष 37.7 प्रतिशत थी, 2-4 वर्ष आयु समूह में 26.4 प्रतिशत थी, मेल बच्चों में रोग की प्रबलता आयु समूह 5-10 वर्ष में देखी गई थी. मई में मामलों की संख्या अधिकतम 36 (19.4 प्रतिशत) थी, दिसंबर के महीने में एईएस के मामलों की संख्या काफी कम थी. अधिकतम मामले पटना और इसके पड़ोसी जिले के थे.

एटिऑलॉजिकल विश्लेषण से पता चलता है कि 36.5 प्रतिशत बच्चों को एईएस के इलाज के लिए भर्ती कराया गया था, 36.5 प्रतिशत को एक्यूट बैक्टीरियल मेनिंगोएन्फेलाइटिस और 22.04 प्रतिशत का निदान जापानी एन्सेफलाइटिस, 7.5 प्रतिशत को ट्यूबरकुलस मेनिन्जाइटिस, 6.4 प्रतिशत सेरेब्रल मलेरिया, 5.4 प्रतिशत हर्पीज सिम्प्लेक्स इन्सेफेलाइटिस और 3.2 प्रतिशत के साथ भर्ती किए गए.

शोध के नतीजे में बताया गया कि एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम मृत्यु दर की उच्च रही, जबकि जेई सकारात्मक मामलों में मृत्यु दर कम थी. एईएस के एटियोपैथोजेनेसिस के बारे में अधिक जानने के लिए व्यापक अध्ययन की आवश्यकता है, ताकि इस बीमारी के कारण मृत्यु दर को नीचे लाने के लिए भविष्य की रणनीतियों को अंजाम दिया जा सके. इसके बाद क्या हुआ? हृदयविदारक नतीजा सामने है.

शोध ये भी बताते हैं कि भारत में एईएस का इतिहास जापानी इंसेफेलाइटिस वायरस के साथ घुल-मिल गया है. जेई एंडेमिक क्षेत्रों का विकास गंगा के मैदानों के पास और डेक्कन और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में हुआ. वर्ष 2000 और 2010 के बीच, एईएस परिदृश्य में एक नाटकीय बदलाव देखा गया, जिसमें गैर-जेई प्रकोपों में वृद्धि देखी गई जो ज्यादातर वायरस के कारण थे, जैसे चंदीपुरा वायरस (सीएचपीवी), निप्पा वायरस (एनआईवी) और अन्य एंटरोवायरस.

जेईवी के पास अपने स्थानिक क्षेत्र हैं जो गंगा की धाराओं के साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल के अलावा असम और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में चल रहे हैं. 2003 में महाराष्ट्र के नागपुर जिले और गुजरात के पूर्वी हिस्से में सीएचपीवी ने अपना असर दिखाया. वर्ष 2001 में इसका पहला प्रकोप सिलिगुड़ी, पश्चिम बंगाल में हुआ था. फिर इसी राज्य में 2007 में नादिया जिले में प्रकोप हुआ. एंटरोवायरस का प्रकोप पहली बार गोरखपुर, यूपी से 2006 में दर्ज किया गया. लिची वायरस उस सूची में नवीनतम वायरस था, जिसके कारण 2013 से 2014 तक पश्चिम बंगाल के मुजफ्फरपुर, बिहार और मालदा में एईएस का प्रकोप दिखाई दिया.

2013 में, मानसून के महीने नवंबर के अंत तक होने से 2,205 लोग जेई से प्रभावित होने की सूचना दी गई थी, और जेई के कारण मरने वालों की संख्या 590 तक बढ़ गई (इंडियन एक्सप्रेस, 26 नवंबर, 2013). वर्ष 2014 में यूपी से एईएस के कई मामले सामने आए (3,329 मामले, 627 मौतें), असम (2,194 मामले, 360 मौतें), पश्चिम बंगाल (2,381 मामले, 169 मौतें) और बिहार (1,313 मामले, 355 मौतें) ( इंडियन एक्सप्रेस, 22 सितंबर, 2015). जेई इन मौतों का प्रमुख कारण था.

जांचकर्ताओं ने लीची फल में जहरीले तत्व के रूप में कारक एजेंट की परिकल्पना भी की (इंडियन एक्सप्रेस, 14 अक्टूबर, 2014). इन मामलों में, हालांकि एन्सेफलाइटिस की पुष्टि नहीं की गई, लेकिन रोगजनन से हाइपोग्लाइकेमिया के साथ एन्सेफैलोपैथी होती है. विष की पहचान की गई मिथाइलीन साइक्लोप्रोपाइल ग्लाइसिन के रूप में, जो लीची के बीज में वृद्धि के लिए पाया गया. हालांकि बाद में पुष्टि नहीं की गई.

पांच साल पहले बिहार का हाल

2009-2014 की अवधि में एईएस और जेई के मासिक महामारी संबंधी आंकड़ों को एकत्र किया गया. जिसमें एईएस और जेई मामलों के रुझान व मृत्यु दर के मामले में वार्षिक घटना दर (प्रति 100000 जनसंख्या की संख्या) और सीएफआर (प्रति वर्ष रिपोर्ट किए गए मामलों की कुल संख्या के खिलाफ मौतों का अनुपात) का अनुमान लगाया गया.

पटना, नालंदा, जहानाबाद, नवादा, गया, औरंगाबाद, वैशाली, मुजफ्फरपुर, शेहर और पूर्वी चंपारण जिलों में एईएस के लिए उच्चतम वार्षिक घटना दर (प्रति 100000 जनसंख्या पर 4.7-25) थी. सारण, सीवान, भोजपुर, बक्सर, पश्चिम चंपारण, जमुई और सीतामढ़ी जैसे जिलों में प्रति 100 जनसंख्या पर 2.2 से 4.73 की वार्षिक घटना दर थी. पटना, जहानाबाद, नवादा, गया, लखीसराय, गोपालगंज, सीवान, पूर्वी चंपारण और पश्चिम चंपारण जिलों में जेई की वार्षिक घटना दर 0.546 से लेकर 1.78 प्रति 100000 जनसंख्या है. कैमूर, रोहतास, वैशाली, शेहर, बेगूसराय, मुंगेर, सुपौल, अररिया, पूर्णिया, कटिहार और किशनगंज में जेई के किसी भी मामले की रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई. हालांकि, औरंगाबाद, अरवल, भोजपुर, बक्सर, सारण, नालंदा, खगड़िया और बांका तीसरे पायदान के घेरे में थे. एईएस में औसत सीएफआर 30 प्रतिशत और जेई के पुष्टि मामलों में 13 प्रतिशत था. एईएस के लिए सीएफआर 5.3 प्रतिशत से 34.8 प्रतिशत तक था. 2013 में बिहार के एक अन्य अध्ययन में घातक दर 20 से 36 प्रतिशत बताई गई.

बीमारी की भयावहता

जेई केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (सीएनएस) को प्रभावित करता है और गंभीर जटिलताओं और मृत्यु का कारण बन सकता है. घातक दर (सीएफआर) अधिक है. जो जीवित रहते हैं, वे न्यूरोलॉजिकल समस्याओं से जूझते हैं. प्रभावित बच्चों में 25 फीसद का इस बीमारी से मर जाने का अनुमान है. जो बच जाते हैं, उनमें से 30-40 प्रतिशत शारीरिक और मानसिक रूप से पीडि़त हो सकते हैं. प्राकृतिक संक्रमणों से संचयी प्रतिरक्षा की कमी के कारण बच्चों पर हमले की दर सबसे अधिक होती है. बुखार की तीव्र शुरुआत और मानसिक स्थिति में बदलाव (भ्रम, भटकाव, कोमा या बात करने में असमर्थता जैसे लक्षण को मुख्य रूप से भारत में एईएस के कारण माना जाता है, हालांकि पिछले कुछ वर्षों में अन्य बैक्टीरिया, कवक, परजीवी, स्पाईरोसाइट्स, लेप्टोस्पाइरा, टॉक्सोप्लाज्मा, रिकेट्सिया, रासायनिक और विषाक्त पदार्थों की मौजूदगी भी कारण का हिस्सा बताई गई है. जेई वायरस पहली बार 1924 में जापान में दर्ज किया गया. 1960 के दशक के उत्तरार्ध से, जापान और चीन में महामारी की सीमा में लगातार गिरावट आई है. यह अनुमान लगाया गया है कि तीन बिलियन लोग इस वजह से जोखिम में हैं और यह बीमारी नए क्षेत्रों में फैल गई है.

(आशीष सक्सेना स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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