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Friday, 1 November, 2024
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प्रधानमंत्री मोदी की सबसे बड़ी भूल नोटबंदी नहीं, योगी आदित्यनाथ हैं

योगी आदित्यनाथ मोदी-शाह के भस्मासुर हैं जो विभाजन पैदा कर सकते हैं पर फायदा नहीं दिला सकते. वह मोदी के तात्कालिक राजनीतिक भविष्य को भी बर्बाद कर सकते हैं.

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पंजाबी में एक सटीक कहावत है जो हर जगह लागू होती है: जो लाहौर के लिए बुरा है, वो पेशावर के लिए भी बुरा होगा. आज के राजनीतिक माहौल में यह बात उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर बिल्कुल फिट बैठती है. वह भाजपा के शीर्ष राष्ट्रीय ध्रुवीकारक के रूप में अन्य राज्यों में जाकर आग उगल रहे हैं. वह समर्थकों में जोश भरते हैं और हल्की बातों से उन्हें खुश कर देते हैं. पर ये समर्थक तो वैसे भी भाजपा को ही वोट देंगे. बाकियों में से किसी और वर्ग को अपने पाले में करने में उनकी असमर्थता अब जगज़ाहिर है.

अभी तक मैं प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी भूल नोटबंदी को मानता था. अब मेरी राय बदल गई है. नोटबंदी अब भी एक बड़ी भूल मानी जाएगी. लागू करने के तुरंत बाद उत्तर प्रदेश के चुनावों में इसका फायदा ज़रूर मिला, पर मोदी ने उस असाधारण सफलता को योगी आदित्यनाथ को सौंपने की गलती कर दी. नोटबंदी मोदी की सरकार के आर्थिक विकास में अवरोध बनी. योगी आदित्यनाथ उनके तात्कालिक राजनीतिक भविष्य को बर्बाद कर सकते हैं.

आदित्यनाथ से जुड़ी प्रमुख बात ये नहीं है कि जिस काम के लिए उन्हें चुना गया था वह उससे इतर कुछ कर रहे हैं. उनसे न सिर्फ उत्तर प्रदेश में बल्कि पूरे देश में, खास कर हिंदीभाषी इलाकों में ध्रुवीकरण की अपेक्षा की गई थी. वह भरोसे के साथ ऐसा कर रहे हैं.

बस वह पार्टी के शीर्ष नेताओं की दो धारणाओं पर खरे नहीं उतर रहे. पहला यह कि वे उन्हें नियंत्रित कर पाएंगे. और दूसरा, कट्टरपंथी-कमांडो के रूप में देश भर में छलांग लगाते हुए, वह अपने राज्य में सुशासन सुनिश्चित करेंगे और वहां सीटें दिला पाएंगे. उत्तर प्रदेश में कम-से-कम 50 सीटें जीते बिना भाजपा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर 250 का आंकड़ा छूना भी लगभग नामुमकिन होगा.


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अब वह इन दोनों ही मामलों में असमर्थ नज़र आते हैं. वह उत्तर प्रदेश में सीटें नहीं दिला सकते, और न ही दूसरे राज्यों में चुनावों को प्रभावित कर पा रहे हैं. इसलिए, लाहौर में भी बुरा और पेशावर में भी बुरा.

यह भी कहा गया था कि यदि मोदी राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव प्रचार करते हुए गुजरात को नियंत्रण में रख सकते थे, तो योगी भी ऐसा कर सकते हैं. पर एक तो मोदी गुजरात पर 12 वर्षों से काबिज़ थे, और दूसरे योगी में मोदी वाली बात नहीं है. मोदी 2013-14 में हिंदुत्व को गुजरात में छोड़ आए थे और उन्होंने शेष भारत के समक्ष शासन के एक उदारीकृत, विकास-केंद्रित गुजरात मॉडल के अधिक समावेशी विचार को पेश किया था. जबकि योगी अपने गोरखपुर स्टाइल गौभक्त हिंदुत्व, उत्तर प्रदेश के पूरी तरह खंडित शासन मॉडल और एक विभाजक विचार का प्रसार कर रहे हैं. उनके उदय से पूरे देश में एक अर्द्धशिक्षित और रोज़गार के नाक़ाबिल भगवा अविवेकी वर्ग के उभार को बल मिल रहा है. वह इतना खतरनाक भावनात्मक और वास्तविक विद्वेष फैला रहे हैं कि जिसे बेअसर करने के लिए बहुत कोशिशें करनी होंगी.

इसके अलावा, मोदी और शाह जहां कांग्रेस-मुक्त भारत की अपनी फंतासी पर काम कर रहे हैं, योगी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम-मुक्त शासन संरचना के अपने आदर्श को मूर्त रूप दे रहे हैं. वह इसे दूसरे राज्यों में भी ले जाने का मंसूबा रखते हैं.

वास्तव में, उनके अली बनाम बजरंगबली, हनुमान-दलित-हैं, ओवैसी-को-भारत-छोड़ना-होगा, कांग्रेस-को-टीपू-पसंद-है-हनुमान-नहीं, हैदराबाद-भाग्यनगर-बनेगा, पुलिस इंस्पेक्टर के महज एक ‘दुर्घटना’ में मारे जाने के बाद गाय-को-किसने-मारा आदि ने शायद उनके शीर्ष नेताओं को शर्मिंदा नहीं किया हो. उनको दी गई ज़िम्मेवारी, या की रिज़ल्ट एरिया केआरए (एचआर की शब्दावली) में ऐसी बातें कहना शामिल है जिन्हें शायद कोई और नहीं कहे. पर वह हदों को पार कर रहे हैं, और वो भी बहुत तेज़ी से और अकेले.


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यदि उनकी भाषा से उनके नेता शर्मिंदा नहीं होते, तो फिर वे शिकायत क्यों करें?

दो कारणों से. पहला यह कि वोट नहीं जुटा पाने के बावजूद वो पार्टी के स्टार चुनाव प्रचारक के रूप में बनकर उभरे हैं. चुनावी राज्यों की हाल की यात्रा में हमने पाया कि पार्टी प्रचारक के रूप में भाजपा उम्मीदवारों की सबसे प्रमुख पसंद वही थे. भारत के सबसे बड़े ध्रुवीकरण करने वाले के रूप में उन्होंने अपने गुरुओं को पीछे छोड़ना शुरू कर दिया है. आप उन्हें भाजपा का नवजोत सिंह सिद्धू कहकर खारिज नहीं कर सकते क्योंकि भारत का सबसे बड़ा राज्य उनके अधीन है. और जहां तक उनकी पार्टी की विचारधारा की बात है, वह किसी मोदी या शाह से कहीं ज़्यादा ‘सहज’ हैं.

कुछ-कुछ ऐसा ही भाव प्रदर्शित करने पर नरेंद्र मोदी ने प्रवीण तोगड़िया को सख़्ती से दबा दिया था. योगी को काबू करना उतना आसान नहीं है. वह कोई घुटे सिर वाला भगवाधारी तोगड़िया मात्र नहीं हैं. योगी एक बड़े हिंदू मठ-संप्रदाय के मौजूदा आध्यात्मिक और सांसारिक प्रमुख हैं. पार्टी समर्थकों के बीच उनकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है. अपनी खुद की महत्वाकांक्षा के बारे में उन्होंने अभी ज़्यादा कुछ नहीं कहा है. पर दैनिक जागरण के एक आयोजन में उनका दावा करना उल्लेखनीय है कि यदि उन पर छोड़ दिया जाए तो वह मंदिर मुद्दे का 24 घंटे में समाधान कर देंगे.

मोदी को उनसे तत्काल खतरा नहीं है. पर वह बड़ी समस्या बनते जा रहे हैं. मोदी के गुजरात से बाहर निकलने की स्थिति के विपरीत, योगी का खुद का राज्य उनकी पकड़ से निकलता जा रहा है. बेरोज़गारी और निराशा ने मोदी के चुनाव अभियान से उपजे आशावाद को खत्म कर दिया है, और याद रहे कि गोरखपुर को छोड़कर और कहीं किसी ने योगी को वोट नहीं दिया था. उनकी पार्टी शायद गाय से जुड़ी हिंसा की अनदेखी करेगी. यह उसके अनुकूल है. पार्टी नेताओं के लिए चिंता की बात होगी उनकी कमज़ोर होती राजनीतिक पकड़. सपा-बसपा का गठजोड़ न भी हो तो छह महीने के भीतर होने वाले आम चुनाव में भाजपा उत्तर प्रदेश में कितनी सीटें जीतने की उम्मीद करती है?

मोदी और शाह ने अपनी कथित चाणक्य-प्रतिभा के बावजूद अपने सामने एक भस्मासुर खड़ा कर लिया है. योगी अपने राज्य और देश में विभाजन तो पैदा कर सकते हैं, पर सीटें कहीं भी नहीं दिला सकते. फिर भी, यदि पार्टी 2019 में पर्याप्त सीटें नहीं जुटा पाती है, तो वह एक प्रमुख किरदार बन बैठेंगे. छह महीने और खुली छूट दी जाए तो वह पूरे देश में सामाजिक समरसता को तोड़ेंगे और अल्पसंख्यकों से घृणा करने वाले समर्थकों की तारीफें बटोरेंगे. चुनावी साल में मोदी के लिए योगी अब हर तरह से घाटे का सौदा हैं: खराब दिखते हालात, उससे भी खराब शासन, और सबसे खराब राजनीति.

यही कारण है कि अब हम भाजपा के इस तीसरे सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति को, मोदी की सबसे बड़ी गलती के रूप में नोटबंदी से भी ऊपर रखते हैं.

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