पांच महीनों तक कन्याकुमारी से कश्मीर तक 3570 किमी पैदल चलने की योजना किसी नेता और पार्टी के लिए आसान विकल्प नहीं हो सकती है. यह राजनीतिक परिश्रम, धैर्य और दृढ़संकल्प के साथ-साथ देश के प्रति गहरे लगाव और सामयिक चुनौतियों से निपटने के बड़े उद्देश्य के साथ ही बनाई और चलाई जा सकती है. इसकी प्रेरक शक्ति निश्चय ही तात्कालिक राजनीतिक महत्वाकांक्षा से परे देश के सामने मुंह बाये खड़ी समस्याओं और खतरों से देश को बचाने की राजनीतिक ‘तपस्या’ ही हो सकती है. यह राजनीति का कठिनतम मार्ग है और अंतिम विकल्प भी.
पिछले 7 सितंबर से कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा कर रहे हैं. यह यात्रा अगले पाच महीनों में कश्मीर तक पहुंचेगी. यात्रा के मार्ग में 12 राज्य और दो केंद्रशासित प्रदेश पड़ रहे हैं. शुरुआत कन्याकुमारी से हुई है जो भारत की धरती का दक्षिणी छोर है. यात्रा की योजना प्रकाश में आने के बाद से ही इसके औचित्य पर कांग्रेस के दोस्त और दुश्मन विचार कर रहे हैं. ज्यों-ज्यों यह यात्रा आगे बढ़ती जा रही है त्यों-त्यों औचित्य का यह प्रश्न राष्ट्रीय बहस का बिंदु बनता जा रहा है.
यात्रा आरंभ करने से दो दिन पहले कांग्रेस मुख्यालय में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने कहा था कि लोकतंत्र संस्थाओं की मर्यादा और स्वतंत्रता से चलता है. विपक्ष भी लोकतंत्र का उतना ही जरूरी हिस्सा है जितना कि सत्तापक्ष. विपक्ष संवैधानिक संस्थाओं द्वारा दिये गये स्पेस में काम करता है. संसद में हमें बोलने नहीं दिया जाता, मीडिया और प्रचारतंत्र को विपक्ष के विरूद्ध दुष्रचार और चरित्रहनन के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. न्यायपालिका सरकार के दबाव में हैं, वे आजादी से काम नहीं कर पा रही है. कार्यपालिका का पूरा उपयोग लोकतंत्र को कुचलने के लिए किया जा रहा है. आज जब वह स्पेस सरकार खत्म कर चुकी है तो हमारे पास इसके सिवा अब कोई रास्ता नहीं बचा है कि हम सीधे जनता के बीच जाएं और उन तक अपनी बात पहुंचाए.
यह भी पढ़ें: ममता ने मोदी को दी ‘क्लीन-चिट’, आखिर इसके पीछे क्या है असली वजह
भारत की एकता और अखंडता
भारत की एकता और अखंडता को बड़ी जतन और बलिदान से सुनिश्चित किया गया है. इसमें कांग्रेस की भूमिका सबसे अधिक रही है. आजादी के बाद दुनियाभर के बहुत से राजनीतिशास्त्री यह भविष्यवाणी कर रहे थे कि इतनी विविधता, बहुलता और किसी हद तक आपस में टकराते भारत को लंबे समय तक एकजुट करके नहीं रखा जा सकता. वह जल्द ही बिखर जाएगा, कई टुकड़ों में खंडित हो जाएगा. धार्मिक आधार पर पाकिस्तान का निर्माण उन्हें ऐसा सोचने का कारण भी दे रहा था. कई और देश विखंडित हुए. पर आजादी के बाद भारत ने कई हिस्सों में अलगाववाद और आतंकवाद का कड़ाई से मुकाबला किया और राष्ट्रीय एकता के सूत्र को मजबूत किया.
विविधता और बहुलता का सम्मान, संतुलित क्षेत्रीय विकास, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता ही वे आधार रहे हैं जिनसे भारत को एक रखने में सफलता मिली है.
ऐतिहासिक रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भाजपा उक्त सभी तत्वों के विरोधी रहे हैं जो भारत की एकता और अखंडता के लिए सीमेंट का काम करते रहे हैं. ये तत्व भारत को न केवल एक रखते हैं बल्कि उसकी तरक्की और विकास के लिए भी बड़ी भूमिका तैयार करते हैं. ये मूल्य भारत को अतीत के अंतर्विरोधों और समस्याओं से निकालकर उसे एक आधुनिक और प्रगतिशील राष्ट्र के रूप में स्थापित करते हैं.
तमाम ढांचागत सामाजिक बुराइयों और अन्यायपूर्ण व्यवस्थाओं को मिटाकर भारत को समता और भाईचारे के सूत्र में बांधते हैं. इन मूल्यों और आदर्शों के खिलाफ भारत में यदि कोई बड़ी और सुसंगठित शक्ति लगातार प्रभुत्वशाली होती रही है तो वह आरएसएस ही है. आजादी के बाद भारत के लिए हर उस चीज़ का इसने विरोध किया जो एक देश के रूप में भारत की उपलब्धियां रही हैं.
इन क्रांतिकारी परिवर्तनों से समाज के जिन प्रभुत्वशाली तबकों को अपने विशेषाधिकार खोने का डर था वे धीरे-धीरे वे सभी प्रतिक्रियावादी तत्व आरएसएस के झंडे के नीचे एकत्रित होने लगे. कहीं-न-कहीं इन तबकों के मन में एक ऐसे समाज का सपना है जो कभी अतीत की सच्चाई थी और जो इस देश के अधिकांश लोगों को वंचित और पिछड़ा रखने में ही सध सकता है. इसलिए वे भारत को पीछे ले जाना चाहते हैं. इसके लिए राजनीतिक शक्ति चाहिए. तो दलीय राजनीति में उतरकर उसे अपने अनुकूल करने के लिए संघ ने पहले जनसंघ और फिर भाजपा का गठन किया. कांग्रेस द्वारा स्थापित प्रगतिशील, लोकतांत्रिक और जनवादी मूल्यों को अपनाने का दिखावा करके वे जनमत हासिल करते हैं लेकिन उसका इस्तेमाल भारत को आगे ले जाने के बजाय पीछे ले जाने के लिए करते हैं.
सरकार में आने के बाद पिछले आठ सालों में मोदी सरकार के कामकाज को इस परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा जाए तो पता चलता है कि देश के लिए जो असफलता है वही संघ के लिए सफलता है. संवैधानिक मूल्यों और भारत के विराट स्वप्न में भरोसा रखनेवालों के मन में जिन बातों के लिए चिंता और रोष है उन्हीं के लिए संघ-भाजपा के लिए खुशी और उपलब्धि का विषय है.
यह भी पढ़ें: कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव में गहलोत, थरूर का नाम, कांग्रेस को लेकर लोग 5 सवालों का जवाब चाह रहे हैं
भारत जोड़ो यात्रा की जरूरत क्यों पड़ी?
जिन कारणों से कांग्रेस ने भारत जोड़ो पदयात्रा की आवश्यकता महसूस की उन्हें उसने अधिकृत रूप से तीन बिंदुओं के अंतर्गत रखा है. पहला, अर्थव्यवस्था का विनाश. दूसरा, राजनीतिक केंद्रीयकरण और तीसरा सामाजिक ध्रुवीकरण. ये तीन कारण भारत की एकता और स्थिरता को आघात करने के लिए पर्याप्त हैं.
बेराजगारी, महंगाई, गरीब और अमीर के बीच बढ़ती खाई किसी भी देश की शांति और प्रगति के दुश्मन हैं. देश के संसाधनों पर गिने-चुने लोगों का एकाधिकार बढ़ा है. सरकारी नीतियों ने जहां एक बड़ी जनसंख्या को गरीबी रेखा से निकालकर विशाल मध्यवर्ग और निम्न-मध्यवर्ग का निर्माण किया था उससे देश की अर्थव्यवस्था को जीवनशक्ति मिल रही थी. मोदी सरकार में करोड़ों लोग वापस गरीबी रेखा के नीचे धकेल दिये गये हैं. आर्थिक असमानता कभी-भी आंतरिक अशांति और क्षेत्रीय विघटन का कारण बन सकती है.
राजनीतिक केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. देश के संघीय ढांचे को कमजोर किया जा रहा है. सरकार के सभी फैसले दो व्यक्ति ले रहे हैं और मंत्रिमंडलीय सामूहिकता खत्म हो चुकी है. मंत्रियों के अधिकार व्यावहारिक रूप से प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के हाथ में जा चुके हैं. सरकारी एजेंसियों के माध्यम से राजनीतिक दलों को तोड़ा जा रहा है और चुनी हुई सरकारों को धनबल से खरीद कर गिराया जा रहा है. बहुलदलीय संसदीय प्रणाली को समाप्त कर एकदलीय तानाशाही की दिशा में तेजी से देश को धकेला जा रहा है. इसके लिए तमाम संवैधानिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक मर्यादाओं को कुचला जा रहा है.
सामाजिक ध्रुवीकरण अभूतपूर्व रूप से बढ़ा है. धार्मिक बहुमत को राजनीतिक बहुमत में बदला जा रहा है. बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों को खुलेआम एक दूसरे के विरुद्ध भड़काया जा रहा है. सांप्रदायिकता, अल्पसंख्यकों के प्रति अत्याचार-दमन, हिंसा और घृणा की महामारी लायी जा चुकी है. देश के नागरिक के रूप में अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों के अधिकार छीने जा रहे हैं. सरकारी दबाव में एजेंसियां और न्यायालय उनको उनके अधिकारों से वंचित करने में रिकार्ड तोड़ रहे हैं.
इन प्रश्नों पर देश में बेचैनी है और इन पर सबकी नजरें हैं. लेकिन जाति, लिंग और सामाजिक न्याय के प्रश्न अक्सर परिदृश्य के पीछे धकेल दिये जाते हैं. दलितों, आदिवासियों, पिछड़ी जातियों और स्त्रियों के प्रति हिंसा और अत्याचार भी बढ़े हैं. साथ ही उनके कल्याण और उत्थान के लिए निर्धारित उपायों और रास्तों को भी रोकने की कोशिश की जा रही है. आरक्षण का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है.
भाजपा और संघ ने योजनाबद्ध तरीके से जहां एक ओर कुछ बड़े पदों पर पिछड़ों, दलितों व आदिवासियों को बिठाया है वहीं दूसरी ओर जातिव्यवस्था को पुनर्स्थापित करके सामाजिक न्याय को सिर के बल खड़ा करने की कोशिशें कर रही हैं. इसका जो कोर समर्थक सामाजिक समूह है उसका बड़ा हिस्सा किसी भी रूप में वर्णव्यवस्था की बहाली चाहता है. दुर्भाग्य की बात यह है कि देश के पूंजीपति वर्ग को इस सामाजिक प्रतिक्रांति का भरपूर समर्थन हासिल है.
सुनियोजित रूप से एक ऐसी क्रूर, धर्मांध और हिंसक भीड़ तैयार की गयी है जो कभी किसी एक धर्म के खिलाफ, कभी किसी दूसरे धर्म के खिलाफ, कभी स्त्रियों के खिलाफ, कभी किसी नेता के खिलाफ, कभी किसी शिक्षण संस्था के खिलाफ, कभी दक्षिण के राज्यों के खिलाफ, कभी कश्मीर के खिलाफ तो कभी पूर्वोत्तर के राज्यों और उसके निवासियों पर ऑनलाइन हिंसक युद्ध छेड़ती है. इस भीड़ को भाजपा और संघ ने पैदा किया है और जरूरत के हिसाब से उसका इस्तेमाल करती है. सत्तापोषित यह आवारा और हिंसक भीड़ देश को घुन की तरह खोखला करने में लगी है.
यात्रा आरंभ करने के पहले सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने कहा था, ‘केवल कांग्रेस ही नहीं बल्कि करोड़ों भारतवासी भारत जोड़ो यात्रा की जरूरत महसूस कर रहे हैं.’ निश्चय ही यह जरूरत बहुत बड़े पैमाने पर महसूस की जा रही है.
राहुल गांधी की यह पदयात्रा न केवल समकालीन राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं को रेखांकित करने के लिए है बल्कि यह भारत के धर्मनिरपेक्ष, समतापूर्ण, लोकतांत्रिक और प्रगतिशील तथा स्वतंत्रता संघर्ष स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे, प्रेम एवं करुणा के मूल्यों से संवलित भारत के दर्शन के लिए भी महत्वपूर्ण है.
(लेखक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
यह भी पढ़ें: भारत में राजनीतिक खालीपन को भरने में लगी AAP लेकिन बिना किसी विचारधारा के टिके रह पाना मुश्किल