सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक आधार पर कमजोर वर्गों यानी ईडब्ल्यूएस को दिए जाने वाले आरक्षण पर रोक लगाने से एक बार फिर इनकार कर दिया है. हालांकि इस बारे में याचिकाओं को खारिज नहीं किया गया है और ऐसा होने तक ये मामला अदालत में चलता रहेगा. इस बीच इस समय देश भर के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में एडमिशन चल रहे हैं और केंद्रीय संस्थानों और जिन राज्यों ने ईडब्ल्यूएस रिजर्वेशन लागू किया है, वहां इस आधार पर दाखिले हो रहे हैं. आर्थिक आरक्षण के आधार पर नौकरियां भी दी जा रही हैं.
ऐसे समय में देश में सोशल साइंस की प्रमुख शोध पत्रिका- इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में एक आलेख (कास्ट ऑर इकोनॉमिक स्टेटस: व्हाट वी शुड बेस रिजर्वेशंस ऑन) प्रकाशित हुआ. जिसमें यह सवाल खड़ा किया गया कि आरक्षण का आधार क्या हो- जाति या आर्थिक स्थिति? इस संदर्भ में पहला सवाल यह है कि कौन से लोग हैं, जो आर्थिक आधार पर आरक्षण का समर्थन करते हैं? दूसरा सवाल यह है कि कौन से लोग हैं, जो जाति आधारित आरक्षण का समर्थन करते हैं? तीसरा वह कौन सा ग्रुप है जो किसी भी तरह के आरक्षण का विरोध करता है? इन तीनों समूहों के तर्कों पर विचार किए जाने की जरूरत है.
अगर मिथकों/धर्मशास्त्रों में देखें तो कर्ण, एकलव्य और शम्बूक के उद्धरण इस बात को प्रमाणित करते हैं कि जाति की जनक वर्ण व्यवस्था की बुनियाद केवल आर्थिक नहीं थी, बल्कि उसका सीधा संबंध सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक और आर्थिक संबंधों से भी था. यानि जातिगत आधार पर शोषण सामाजिक शोषण भी है, राजनैतिक शोषण भी है और साथ ही आर्थिक शोषण भी है. जाति को आरक्षण का आधार मानने का मतलब है. इन वर्गों के साथ हुई नाइंसाफी को सुधारने का एक अवसर प्रदान करना. आरक्षण को ‘पार्टिसिपेटरी डेमोक्रेसी’ के विस्तार और मज़बूती के तौर भी देखा जा सकता है. ऐसे में अगर कोई व्यक्ति और समुदाय केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण पर समर्थन करता है, तो इसकी तार्किकता विवादास्पद है. पुराने धार्मिक ग्रन्थ, जिनमें कि तमाम तरह के संस्कारों का वर्णन है और जिसमें लोगों का आज भी विश्वास है, उनमें भेदभाव का आधार जाति है न कि आर्थिक हैसियत.
जाति कहां है?
जाति किस तरह से लोगों की जिंदगी में समाई हुई हैं. इसको एक उदाहरण से समझा जा सकता हैं. आज कल उत्तर भारत में खासकर उत्तर प्रदेश में परशुराम की पूजा को प्रचारित और प्रसारित किया जा रहा है. अगर उन सभी पोस्टरों को उठाकर देखेंगे तो पाएंगे कि सामान्यतः परशुराम को ब्राह्मण शिरोमणि, ब्राह्मण श्रेष्ठ जैसे शब्दों से सम्बोधित किया गया है. क्यों? क्योंकि यह देश अभी भी सामाजिक संबंधों को जाति के रूप में ही देखता है. इसी तरह से कई स्थानों और बसावट के नाम भी जाति आधारित हैं. आधुनिक शहरी जीवन में देश की पहली हाउसिंग सोसायटी मुंबई में बनी तो इसकी सदस्यता सिर्फ सारस्वत ब्राह्मणों को दी गई और सोसाइटी का नाम रखा गया. सारस्वत कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसायटी. ऐसी हाउसिंग सोसायटी आज भी मौजूद हैं.
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अब प्रश्न उठता है कि आखिर इन सब पहचान का आधार क्या है. जाति या आर्थिक स्थिति? जाति, आर्थिक आधार को समेटे हुई है, इसलिए सामाजिक संबंधों की वास्तविकता को नकार कर केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण का समर्थन अनुचित है.
जाति और आर्थिक आधार की बहस पुरानी
आरक्षण जाति के आधार पर हो या आर्थिक आधार पर, यह पुराना मुद्दा है. यहां तक कि मंडल कमीशन से पहले भी प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग (काका कालेलकर आयोग, 1953-55) में भी इस बात को लेकर काफी बहस हुई थी और सदस्यों के बीच सहमति नहीं बन पाई थी. आयोग के ही पिछड़ी जाति के सदस्य एसडीएस चौरसिया जाति को आधार मानना चाहते थे, लेकिन सवर्ण सदस्य आर्थिक आधार पर आरक्षण देना चाहते थे. यानी जाति से पीड़ित वर्गों ने जाति को भेदभाव और इसी वजह से आरक्षण का आधार माना, जबकि जो वर्ग कभी जातिगत भेदभाव के शिकार नहीं थे. वे आर्थिक आधार पर आरक्षण चाहते थे.
आर्थिक आधार पर आरक्षण से एक बहुत बड़ा फायदा सवर्णों को यह है कि इससे जाति और मज़बूत होती है. क्योंकि इस तरह वे बिना जाति की सच्चाई को स्वीकार किये हुए. आर्थिक सम्पन्नता प्राप्त कर पुनः जाति के साथ अपना स्टेटस समाज में बनाये रख सकते थे. आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग करने वाले लोग खुद ही कभी आर्थिक आधार पर संबंध नहीं बनाते हैं. विवाह, रिश्तेदारी, खान-पान, अंत्येष्टि इन सभी में आपको जाति दिख जायेगी. फिर भी अगर कोई इस सत्य को नकार कर आरक्षण लागू करने का आधार आर्थिक बनाना चाहता है, तो इसके पीछे स्वार्थ ही एकमात्र वजह हो सकती है.
समाज में विभाजन का आधार जाति
कुछ लोग यह भी मानते हैं और तर्क देते हैं कि रिजर्वेशन ब्रिटिश शासकों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति का ही विस्तार है. हालांकि, यह एक विरोधाभासी तर्क है, क्योंकि ब्रिटिश के आने से पहले से ही यह देश जातियों में बंटा हुआ था. ब्रिटिश ने समाज को जातियों में नहीं बांटा. ये बेशक मुमकिन है कि उन्होंने इस विभाजन का फायदा उठाया हो. इसके उलट देखा जाए तो रिजर्वेशन की वजह से सामाजिक रूप से नीचे की जातियां गतिशील हुई हैं, जिससे जाति व्यवस्था कमज़ोर हुई है. इतना ही नहीं, इससे सार्वजनिक स्थानों पर, जैसे रोडवेज, रेलवे, सरकारी फैक्ट्रियों, बैंकों, दफ्तरों और पोस्ट ऑफिस में हर समुदाय के लोगों ने साथ मिलकर काम करना शुरू किया. जिससे छुआछूत और जाति व्यवस्था कमजोर हुई.
आरक्षण विरोधी कौन?
समाजशास्त्र के प्रोफेसर दीपांकर गुप्ता का ओबीसी रिजर्वेशन का विरोध करना उनकी संकुचित समाजशास्त्रीय समझ को दर्शाता है. उनका मानना है कि ओबीसी रिजर्वेशन सामाजिक रूप से सशक्त कृषक जातियों को दिया गया है. लेकिन, गौर करने वाली बात है कि ओबीसी में केवल कृषक जातियां ही नहीं. बल्कि दलित मुस्लिम (नट, धोबी, हलालखोर) और दस्तकार जातियां (दर्ज़ी, माली, कुम्हार, लोहार, सैफ़ी, अंसारी, मल्लाह, चिकवा, बढ़ई आदि) भी शामिल हैं. ओबीसी रिजर्वेशन का विरोध का मतलब है. इन जातियों के प्रतिनिधित्व पर कुठाराघात.
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आरक्षण के विरूद्ध यह तर्क कि इससे ‘अक्षमता’ आती है, जातीय श्रेष्ठता पर आधारित है. प्रतिभा समाज के विभिन्न हिस्सों से आएगी, तभी समाज में बदलाव होगा. क्योंकि वे अपने अलग-अलग अनुभवों के साथ आते हैं और समाज की वास्तविक स्थिति का प्रतिनिधित्व करते हैं. आरक्षण विविधता बढ़ाता है, जिसकी वजह से जाति और ऊंच-नीच का भेद टूटता है.
आज भी गांवों में अलग-अलग जाति के लोग एक-दूसरे के मोहल्ले में जाने, साथ खाने से कतराते हैं. लेकिन आरक्षण की वजह से अलग-अलग जातियों के विद्यार्थी एक ही क्लास रूम में पढ़ते हैं, हॉस्टल रूम शेयर करते हैं. एक दूसरे को मित्र बनाते हैं. मेस में आज जिस थाली में कोई अनुसूचित जाति की छात्रा खा रही है, उसी थाली में कल कोई ब्राह्मण छात्र खा रहा होता है. जिस टीचर से पहले केवल सवर्ण पढ़ते थे, आज उसी टीचर से पिछड़े वर्ग के छात्र भी पढ़ रहे हैं. आरक्षण की वजह से प्रोफेसरों की मानसिकता में भी बदलाव आया है. उनके अनुभव जगत का विस्तार हुआ है. तरह-तरह के ज्ञान और अनुभव, जिन पर आज वे किताब और आर्टिकल लिख रहे हैं, रिसर्च करा रहे हैं, वे उन्हें शेड्यूल कास्ट, शेड्यूल ट्राइब और ओबीसी विद्यार्थियों की वजह से मिल रहा है.
तथाकथित मेरिट तथा अक्षमता का तर्क उन लोगों से ही आ रहा है, जो लोग अपने समुदाय का सैकड़ों-हज़ारों सालों का पुराना विशेषाधिकार और वर्चस्व बनाये रखना चाहते हैं. अक्षमता का संबंध आरक्षण से नहीं, बल्कि इंफ्रास्ट्रक्चर, संसाधन और प्रशिक्षण से है. इन तर्कों के आधार पर मेरा निष्कर्ष है कि आरक्षण का आधार जाति होना ज्यादा उचित है.
(लेखक सेंटर फॉर स्टडीज इन साइंस पॉलिसी, जेएनयू के रिसर्च स्कालर हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)
प्रस्तुत लेख यथार्थ पर आधारित तो है ही साथ ही साथ भारतवाद की संकल्पना भी निहितहै।आरक्षण के आधार, प्रभाव औरनियति का पारदृष्टवी कोण पेश किया है।यह लेख आरक्षण समर्थकों के लिए आत्मबल है वहीं आरक्षण विरोधियों के लिए तार्किक बनने का अवसर भी है।अत:यह सबको पढ़ना चाहिए और इस विषय पर भटकी सरकारों के लिए सबक है।