दुष्यंत चौटाला (31 वर्ष) और तेजस्वी यादव (29 वर्ष) देश के प्रभावशाली राजनीतिक परिवारों के वारिस हैं. दोनों के जीवन में कई समानताएं हैं. दोनों ही राजनीति में आने के इच्छुक नहीं थे. दुष्यंत चौटाला को उनके परिवार ने राजनीति से दूर रखने की कोशिश की और अमेरिका पढ़ने भेज दिया. तेजस्वी यादव भी क्रिकेटर बनना चाहते थे और कई और क्रिकेटरों की तरह उन्होंने खेल के चक्कर में पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी.
दिलचस्प बात है कि दोनों को पारिवारिक मजबूरियों के कारण राजनीति में आना पड़ा. दुष्यंत चौटाला के दादा ओम प्रकाश चौटाला और पिता अजय चौटाला, दोनों के जेल में होने के कारण उनके परिवार ने दुष्यंत को राजनीति में उतार दिया. तेजस्वी को भी समय से पहले राजनीति में इसलिए आना पड़ा क्योंकि उनके पिता लालू यादव को, सजा होने के कारण, चुनाव लड़ने के अयोग्य करार दिया गया था.
दुष्यंत चौटाला 2014 में सांसद बन गए. जबकि तेजस्वी यादव 2015 में बिहार के उप-मुख्यमंत्री बन गए. यानी दोनों ने अपनी पहली राजनीतिक कामयाबी काफी कम उम्र में हासिल कर ली थी. दोनों अच्छे वक्ता हैं और बड़ी भीड़ उनको सुनने आती है.
लेकिन दोनों के राजनीतिक जीवन की समानताएं यहां आकर खत्म हो जाती हैं.
दुष्यंत चौटाला पर विरासत का बोझ
दुष्यंत चौटाला के नेत़ृत्व में जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) ने हाल में संपन्न हरियाणा का विधानसभा चुनाव तीखे भाजपा विरोधी तेवर के साथ लड़ा. रोजगार से लेकर वादाखिलाफी और विकास के तमाम सवालों पर बीजेपी के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर दुष्यंत चौटाला के निशाने पर रहे. जेजेपी का यह रुख स्वाभाविक ही था, क्योंकि बीजेपी शासन में भी ओम प्रकाश चौटाला और अजय चौटाला जेल से बाहर नहीं आ पाए और सीबीआई ने तो इस दौरान ओम प्रकाश चौटाला को दी गई जमानत का विरोध भी किया.
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साथ ही, ये भी माना गया कि बीजेपी हरियाणा में जाट राजनीतिक को खत्म करके अपनी बुनियाद मजबूत कर रही है. हरियाणा में जाट राजनीति जिन परिवारों के आस-पास घूमती है, उनमें चौटाला परिवार प्रमुख है. यह पार्टी चौधरी देवीलाल की विरासत का दावा करती है, जो कभी देश के उप-प्रधानमंत्री थे. उनकी राजनीति की बागडोर बाद में उनके बेटे ओम प्रकाश चौटाला के पास आ गई. दुष्यंत चौटाला अपने दादा-परदादा के दिनों के गौरवशाली दौर को वापस लाने के मकसद के साथ हरियाणा का चुनाव लड़ रहे थे.
दुष्यंत चौटाला ने मिलाया बीजेपी से हाथ
लेकिन हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद राजनीतिक परिस्थितियां बदल गईं. चूंकि किसी राजनीतिक दल को अपने दम पर बहुमत नहीं मिला, इसलिए मिलीजुली सरकार के गठन की संभावनाएं तलाशी गईं. आखिरकार जेजेपी ने बीजेपी के साथ हाथ मिलाने का फैसला कर लिया. इस तरह दुष्यंत चौटाला हरियाणा सरकार में उप-मुख्यमंत्री बन गए. लगभग उसी समय दुष्यंत चौटाला के पिता अजय चौटाला फरलो पर दो हफ्ते के लिए जेल से बाहर आ गए और उन्होंने शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा भी लिया. कहना मुश्किल है कि ये कैसे हुआ होगा, लेकिन ये संयोग बेहद दिलचस्प है. इसे लेकर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वड्रा ने ट्विटर पर टिप्पणी की कि – ‘अखिल भारतीय भ्रष्टाचार धुलाई मशीन चालू आहे!’
सवाल उठता है कि तेजस्वी यादव राजनीति में वह समझौता क्यों नहीं कर पा रहे हैं, या करना चाह रहे हैं, जो दुष्यंत चौटाला ने बिना किसी झिझक देखते ही देखते कर डाला. ऐसा क्यों है कि जाट राजनीति का नेता जिस तरह का समझौता कर पा रहा है, उसे बिहार का एक यादव नेता नहीं कर पा रहा है. बीजेपी के विजय रथ का घोड़ा रोकने की कोशिश तेजस्वी यादव क्यों कर रहे हैं, जबकि दुष्यंत चौटाला आसानी से रथ के सह-चालक बनने को तैयार हो गए.
कम से कम तीन ऐसी वजहें हैं, जिनके कारण बीजेपी आरजेडी या तेजस्वी यादव को न तो डराकर और न ही फुसलाकर अपने पाले में कर सकती है.
राजनीति का अलग-अलग इतिहास
जेजेपी या उसके पुराने अवतार में आईएनएलडी या देवीलाल के लोकदल को कभी भी बीजेपी से परहेज न नहीं रहा है. ये पार्टियां कभी राज्य में, तो कभी लोकसभा चुनाव में बीजेपी के साथ तालमेल करती रही हैं. ऐसा करने की वजह से इनका वोटर कभी नाराज नहीं हुआ. सेकुलर होना या भाजपाई खेमे में खड़ा न होना, कभी भी चौटाला परिवार की राजनीतिक या सैद्धांतिक प्राथमिकता नहीं रहा.
लेकिन यही बात लालू प्रसाद या तेजस्वी यादव के लिए नहीं कही जा सकती. कांग्रेस और कम्युनिस्टों को छोड़ दें तो लालू यादव देश के उन बिरले नेताओं में हैं, जिन्होंने कभी बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ा. वे ऐसी किसी साझा सरकार में शामिल नहीं हुए, जिसमें बीजेपी रही हो. लालू यादव भारतीय राजनीति में जिन वजहों से जाने जाते हैं, उनमें 1990 में उनके द्वारा बीजेपी की राम रथयात्रा को बिहार में रोकना और लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार करना शामिल है. लालू यादव और तेजस्वी यादव ने 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में प्रचंड मोदी लहर के दौरान बीजेपी को रोक कर भी अपनी पहचान बनाई है. लालू यादव बिहार में दंगामुक्त शासन देने के लिए भी जाने जाते हैं.
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इसलिए जहां तक सेकुलर राजनीति का सवाल है, तेजस्वी और दुष्यंत दो अलग-अलग परंपराओं से आते हैं और अपनी परंपराओं का ही निर्वाह वे कर रहे हैं.
वैसे भी आरजेडी बिहार विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी है और हाल में आरजेडी ने उपचुनावों में भी अच्छा प्रदर्शन किया है. इसलिए तेजस्वी यादव फिर से बिहार की सत्ता में आने की सोच सकते हैं. वहीं एक दर्जन से कम विधायकों के साथ दुष्यंत चौटाला के लिए आवश्यक है कि वे किसी बड़ी पार्टी के साथ जुड़ें. इसलिए उन्होंने बीजेपी का जूनियर पार्टनर होना स्वीकार कर लिया है.
दोनों राज्यों की आबादी की संरचना का फर्क
बिहार में मुस्लिम आबादी अच्छी-खासी (16.9 प्रतिशत) है. इसलिए बिहार में राजनीति करते समय किसी भी पार्टी को मुसलमानों के लिए कोई न कोई रणनीति बनानी पड़ती है. बीजेपी ने मुस्लिम-विरोध को अपनी राजनीति की बुनियाद बनाया है, जो उसकी अखिल भारतीय राजनीति के अनुसार ही है. वहीं आरजेडी ने सेकुलर राजनीति करने का फैसला किया है और यही उसकी राजनीतिक पहचान है. बिहार में सेकुलर या गैर-सेकुलर होने के अपने नफा-नुकसान हैं. आरजेडी ने राजनीति में खुद को जहां स्थापित किया है, उसकी वजह से चाहकर भी वह बीजेपी से हाथ नहीं मिला सकती. ऐसा करने के बाद वह आरजेडी नहीं रह जाएगी.
हरियाणा में मुसलमानों की आबादी कम (लगभग 7 प्रतिशत) है और राजनीति में उनकी दखल और उनका असर उसी अनुपात में कम है. दक्षिण हरियाणा के मेवात इलाके की तीन विधानसभा सीटों को छोड़ कर राज्य में किसी भी सीट पर मुसलमान वोट निर्णायक नहीं हैं. इसलिए हरियाणा की राजनीति में सेकुलरिज्म कोई मुद्दा नहीं है. इसका मोटे तौर पर न कोई फायदा होता है और न कोई नुकसान. इसलिए दुष्यंत चौटाला के लिए बीजेपी के साथ जाने में कोई राजनीतिक बाधा नहीं थी.
बिहार में बीजेपी की यादव-विरोध की राजनीति
अब तक हमने इस बात पर विचार किया कि तेजस्वी यादव क्यों बीजेपी के साथ नहीं जा सकते. अगर इस सवाल को इस तरह से पूछा जाए कि क्या बीजेपी तेजस्वी यादव को साथ लेना चाहती है, तो पूरे मामले को देखने का एक और नजरिया मिलता है. बिहार में बीजेपी ने दो तरह के टकराव को अपनी राजनीति का आधार बनाया है. मुसलमान बनाम गैर-मुसलमान तो उसकी राजनीति का सदाबहार आधार है. इसके अलावा, बीजेपी बिहार में यादव बनाम गैर-यादव की राजनीति भी करती है. वह गैर-यादव मतदाताओं को ये संदेश देती है कि अलग आरजेडी आ गई तो यादवों का बोलबाला कायम हो जाएगा.
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यादवों के राजनीति में उभार को लेकर आशंकित जाति समूहों को बीजेपी इस नाम पर गोलबंद करती है. इस आधार पर वह सवर्णों ओर पिछड़ी जातियों के एक हिस्से को अपने पाले में खड़ा करने की कोशिश करती है. लालू यादव और तेजस्वी यादव को साथ लाने से बीजेपी की राजनीति के एक कील खिसक जाएगी. बीजेपी ऐसा नहीं कर सकती. बीजेपी को लालू यादव चाहिए. लेकिन एक ऐसा प्रतीक के रूप में जिसकी वो पिटाई करती नजर आए.
इसलिए बिहार के अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के बाद अगर किसी दल को बहुमत नहीं मिला तो बिहार में तमाम तरह के समीकरण बन सकते हैं. लेकिन जो दो समीकरण किसी हालत में नहीं बन सकते , उनमें पहला है कांग्रेस और बीजेपी की मिली जुली सरकार. इसी तरह, आरजेडी और बीजेपी की मिली जुली सरकार भी बिहार में नहीं बन सकती.
कुल मिलाकर तेजस्वी यादव न तो दुष्यंत चौटाला बनना चाहते हैं और न ही बन सकते हैं!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनका निजी विचार है.)