जिला विकास परिषद (डीडीसी) के चुनावों के ज़रिए केंद्रशासित प्रदेश जम्मू कश्मीर में 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया का पुनरारंभ हुआ है. वैसे ये ज़रूरी नहीं कि कोई ‘चुनाव’ स्वत: लोकतांत्रिक ही हो. डीडीसी चुनावों के लिए प्रचार के दौरान गुपकर घोषणापत्र जन गठबंधन (पीएजीडी) के वहीदुर्रहमान पारा जैसे कई कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने या हिरासत में लिए जाने को देखते हुए तो कम से कम अभी तक तो यही कहा जा सकता है. साथ ही उम्मीदवारों को प्रचार के लिए एक निर्धारित टाइम स्लॉट दिया गया है. कई उम्मीदवार एक ही कार में बैठकर चुनाव प्रचार करने के लिए बाध्य हैं, और पहले उन्हें स्थानीय पुलिस थानों में हाजिरी देनी पड़ती है जिसके कारण उन्हें प्रचार के लिए शायद ही पर्याप्त समय मिल पाता है.
दूसरी ओर, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए न केवल स्थितियां आसान हैं, बल्कि पार्टी प्रचार में जी-जान भी लगा रही है क्योंकि उसे अच्छी तरह पता है कि डीडीसी चुनाव परिणाम को अनुच्छेद 370 के संदर्भ में नरेंद्र मोदी सरकार पर फैसले के तौर पर देखा जाएगा. भाजपा हर कीमत पर ये चुनाव जीतना चाहती है. लेकिन ‘गुपकर गैंग’ — पीएजीडी को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा दिया गया नाम — उसके सामने अवरोध बनकर खड़ा है. इस गठबंधन में जम्मू कश्मीर की अधिकांश बड़ी पार्टियां शामिल हैं— अब्दुल्लाओं की नेशनल कांफ्रेंस, मुफ्तियों की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और सज्जाद लोन की जम्मू कश्मीर पीपुल्स कांफ्रेंस.
मोदी और भाजपा के लिए डीडीसी चुनाव में जीत घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर महत्वपूर्ण है. इससे पार्टी के इस रुख पर मुहर लग सकेगी कि 5 अगस्त 2019 के बाद से कश्मीर में सबकुछ सामान्य है, हालांकि बीबीसी जैसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठनों ने घाटी में विरोध प्रदर्शनों और गहरे असंतोष की स्थिति से जुड़ी रिपोर्टें की हैं. चुनाव भाजपा के पक्ष में जाने पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय, खासकर अमेरिका के जो बाइडेन प्रशासन, को कश्मीरी मतदाताओं के समान ही बीते को भुलाकर आगे बढ़ने का संकेत मिल सकेगा. राष्ट्रीय स्तर पर भी इन चुनावों में काफी कुछ दांव पर लगा है क्योंकि अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद से जम्मू कश्मीर के शासन पर अमित शाह की स्पष्ट छाप है.
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कश्मीर के राजनीतिक अभिजातों को बदनाम करना
अभी तक पीएजीडी की छवि इस तरह चित्रित करने की गई है मानो वो नेताओं के वेश में उग्रवादियों का समूह हो जो कश्मीर के लिए भाजपा की राष्ट्रवादी योजनाओं को नाकाम करने के लिए एकजुट हुए हैं. जैसी कि अपेक्षा थी, गठबंधन और उसके प्रयासों को ‘राष्ट्रविरोधी’ करार दिया गया है. अमित शाह ने पीएजीडी पर खुलकर हमला किया और उनसे जुड़ाव के लिए, अपने आक्रामक ट्वीटों में ‘राहुल जी’ और ‘सोनिया जी’ को भी लपेटे में लिया.
डीडीसी चुनावों के लिए भाजपा के ‘स्टार प्रचारकों’ में शामिल अनुराग ठाकुर ने गुपकर दलों को ‘अलगाववादी’ करार दिया है. इसे पहले से ही असरहीन मीरवाइज़ उमर फ़ारूक, सैयद अली शाह गिलानी, आसिया अंद्राबी और मसरत आलम जैसे नेताओं को बिल्कुल नकारा साबित करने की कोशिश मानी जा सकती है.
लेकिन 28 नवंबर से शुरू हो चुके डीडीसी चुनावों में कश्मीर की जनता की आवाज़ स्पष्ट और ज़ोरदार तरीके से उभरकर सामने आएगी, जिसे पूर्वनियोजित कर्फ्यूओं, लॉकडॉउनों और 4जी इंटरनेट की अनुपस्थिति के ज़रिए अब तक दबाकर रखा गया है. तभी तो चुनाव से ऐन पहले भाजपा अपना तरीका बदलने को बाध्य हुई है. नई दिल्ली के प्रति कश्मीरियों में असंतोष की खबरों के बीच भाजपा को इस बात का एहसास हुआ कि ‘राष्ट्रविरोधी’ बताते हुए गुपकर गठबंधन पर हमला करने से पीएजीडी को फायदा हो सकता है, इसलिए अब वह अब्दुल्लाओं और मुफ्तियों के कथित भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए रोशनी भूमि घोटाला सामने लेकर आई है.
वैसे तो रोशनी भूमि घोटाला बहुत बड़ा है जो शायद 25,000 करोड़ के आंकड़े को छूता है, लेकिन भाजपा ने अब जाकर इसे उठाना शुरू किया है जबकि घाटी में अवैध रूप से ज़मीन हड़पने का खेल 2001 से ही चल रहा है. बेशक, भ्रष्टाचार के मुद्दे हमेशा भाजपा के काम आते रहे हैं, मामला रॉबर्ट वाड्रा के सहारे गांधी परिवार की छवि धूमिल करने का हो या चारा घोटाला मामले में लालू प्रसाद यादव को सलाखों के पीछे डालकर बिहार की सत्ता हथियाने का.
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कश्मीरियों को पीएजीडी के कपटीपन का वास्ता देने के लिए रोशनी भूमि घोटाले के कथित ‘लाभार्थियों’ के रूप में में फ़ारूक़ अब्दुल्ला की बहन सुरैया अब्दुल्ला, पूर्व वित्त मंत्री हसीब द्राबू, कांग्रेसी नेता केके अमला और मुश्ताक़ अहमद चाया तथा प्रमुख नौकरशाहों और व्यवसायियों के नाम प्रचारित किए जा रहे हैं.
तत्कालीन मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्ला द्वारा लाए गए जम्मू कश्मीर राज्य भूमि (कब्जाधारियों को स्वामित्व अधिकार) कानून 2001 के तहत सरकारी ज़मीन के अवैध कब्जाधारी बाज़ार दर से ज़मीन की कीमत अदा कर उसे खरीद सकते थे. ऐसा बिजली परियोजनाओं के वास्ते धन जुटाने के उद्देश्य से किया गया था, और इसलिए इसे रोशनी कानून कहा गया. लेकिन सिर्फ बड़े और रसूखदार लोगों ने ही सरकारी ज़मीन खरीदने के लिए इस कानून का फायदा उठाया. अब्दुल्लाओं और मुफ्तियों ने इस कानून के तहत कथित रूप से ज़मीन के कई टुकड़े हासिल किए.
जो कुछ बचा है उसके लिए पार्टियां मर रही हैं
भाजपा द्वारा कश्मीर में शासन का एक और स्तर जोड़ा जाना भी सवालों के घेरे में है. जम्मू कश्मीर पंचायती राज कानून 1989 में संशोधन करके मोदी सरकार ने इस केंद्रशासित प्रदेश में प्रभावी रूप से सत्ता का विकेंद्रीकरण कर दिया है, जिससे कश्मीर की बड़ी राजनीतिक पार्टियों की उपादेयता और भी कम रह गई है. तभी तो पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस ने 2018 के पंचायती और नगरपालिका चुनावों की तरह इन चुनावों का बहिष्कार नहीं किया. दरअसल चुनाव में भाग नहीं लेकर वे सत्ता हासिल करने के बचे-खुचे अवसरों को भी गंवाना नहीं चाहते हैं. साथ ही हुर्रियत या उग्रवादियों ने भी चुनावों के बहिष्कार का आह्वान नहीं किया है, जोकि घाटी में संभवत: पहली बार हुआ है. साथ ही, नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी डीडीसी चुनाव मिलकर लड़ रहे हैं, क्योंकि अकेले अपने बूते वे भाजपा के सामने बेहद कमज़ोर हैं, जोकि इस चुनाव को जीतने के लिए अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ रही है.
जहां पूर्व में मतदाताओं की भागीदारी बहुत कम रहती थी, वहीं इस चुनाव के पहले चरण में कश्मीर डिवीजन में 39.11 प्रतिशत मतदान से स्पष्ट है कि घाटी की जनता चुनाव में उत्साहपूर्वक भाग ले रही है. साफ है कि लोग खुद अपना प्रतिनिधि चुनना चाहते हैं. और भाजपा कश्मीर की जनता द्वारा चुने जाने के लिए बेकरार है क्योंकि ऐसा होने पर जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के उसके फैसले को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सही ठहाया जा सकेगा.
(ऑथर एक राजनीतिक पर्यवेक्षक और लेखिका हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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