यह आश्चर्य की बात नहीं है कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए किसी को भी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने से इनकार कर दिया है. उनका बयान वास्तव में अधिक व्यावहारिक है और इसे इस तथ्य की खुली स्वीकारोक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए कि कांग्रेस की छत्रछाया में कोई विपक्षी एकता नहीं हो सकती.
विपक्षी एकता की बातें, नेताओं का किसी न किसी बहाने एक साथ आना और भाजपा के खिलाफ एकजुट लड़ाई की पुष्टि करने वाले बयानों का जारी होना आम चुनाव के नजदीक आने के साथ-साथ रस्म अदायगी बन गई है. इसलिए, 2024 के चुनाव के लिए विपक्षी एकता, एक अल्पकालिक अनुष्ठान की सभी बातें शुरू हो गई हैं.
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, जिनके जन्मदिन ने विपक्षी नेताओं को चेन्नई में इकट्ठा होने का अवसर प्रदान किया, ने तीसरे मोर्चे के विचार को खारिज कर दिया है. उन्होंने कहा, “तीसरे मोर्चे के लिए विचार व्यर्थ हैं.”.
द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) के लिए, जिसने भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए और कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए दोनों के साथ केंद्र में साझेदारी की है और सत्ता साझा की है, तीसरा मोर्चा एक विकल्प नहीं हो सकता है क्योंकि इस तरह के मोर्चे के सत्ता में आने की संभावना सबसे कम है. इस तरह के मोर्चे से बाहर रहने और फिर भी विपक्षी एकता का आह्वान करने से, डीएमके जैसी पार्टियों के पास सौदेबाजी की शक्ति हासिल करने के लिए पर्याप्त सीटें जीतने का बेहतर मौका है.
विपक्षी एकता की बात करने वाले ऐसे सभी दलों की कुल लोकसभा ताकत लगभग 200 से अधिक नहीं है, कांग्रेस के अलावा सिर्फ सात दलों के पास दो अंकों की ताकत है. इन सात दलों में से, शिवसेना की स्थिति अस्पष्ट है क्योंकि चुनाव आयोग ने विद्रोही गुट को आधिकारिक शिवसेना के रूप में मान्यता दी है, जो संयोग से भाजपा के साथ महाराष्ट्र में सत्ता में है. बीजू जनता दल (बीजद) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) अब तक किसी भी विपक्षी एकता वार्ता का हिस्सा नहीं बने हैं. उनके ऐसे मंच से दूर रहने की संभावना है.
बहरहाल, उत्तर प्रदेश में बसपा को ‘सीटें’ मिलने की संभावनाएं धूमिल नजर आ रही हैं. बीजद भी विपक्षी दल में शामिल होने और अपनी सीटों को उन पार्टियों के साथ साझा करने के मूड में नहीं दिखती है, जिनका राज्य में कोई आधार नहीं है. नेशनल कांफ्रेंस (एनसी), जिसके नेता चेन्नई में जन्मदिन की पार्टी में कांग्रेस और डीएमके के साथ मिल रहे थे, का जम्मू-कश्मीर के बाहर कोई निर्वाचन क्षेत्र नहीं है.
जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में भी नेशनल कांग्रेस के अब्दुल्ला को मुश्किल हो सकती है. किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर गुलाम नबी आज़ाद के नेतृत्व में कांग्रेस से अलग हुआ गुट जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक पैर जमाने और लोकसभा में एक या दो सीट जीतने में कामयाब हो जाता है. वैसे भी, इस बात की संभावना कम ही है कि इस तरह के टूटे दल और नेता चुनाव की तारीखों की घोषणा से पहले कभी अपने पत्ते खोलेंगे. वे हर पक्ष को अनुमान लगाते रहना पसंद करेंगे और अंतिम समय में सौदेबाजी की मेज पर आएंगे.
यह भी पढ़ें: अतीक अहमद के साथियों के घरों पर बुलडोजर चलने से दहशत, पुलिस के पास उसके 10 ‘समर्थकों’ की सूची है
विपक्षी एकता क्यों असंभव है
सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ एकजुट होने के बार-बार के प्रयास वांछित चुनावी परिणाम देने में विफल रहे हैं. वास्तव में, यह केवल तभी सफल हुआ जब 1977 में आपातकाल के बाद कांग्रेस के विरोधी दल एक साथ आए. लेकिन इनमें से कई दल जो जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के बैनर तले एकजुट हुए, जनता पार्टी में विलय हो गए. लेकिन जल्द ही तथाकथित ‘विपक्षी एकता’ बिखर गई और अलग-अलग दिशाओं में चली गई. उनमें से कुछ को जीतने के लिए नई सीटें मिलीं, लेकिन भारतीय जनसंघ को छोड़कर, जो बाद में 1980 में भाजपा बन गयी.
तर्क यह है कि केवल लगभग 36 प्रतिशत लोगों ने बीजेपी (2019 चुनाव) को वोट दिया है और इसलिए बाकी 64 प्रतिशत लोगों को बीजेपी के खिलाफ वोट करने के लिए एक साथ लाया जा सकता है अगर बीजेपी विरोधी पार्टियां एक भी उम्मीदवार खड़ा करती हैं. कम से कम कहने के लिए यह एक भोली सोच है. हर राज्य, वास्तव में, हर निर्वाचन क्षेत्र अलग-अलग समय पर अलग-अलग व्यवहार करता है.
आपातकाल की ज्यादतियों को सार्वजनिक किए जाने के बाद जहां विपक्षी एकता ने कांग्रेस के खिलाफ काम किया, वहीं इंदिरा गांधी की दुखद हत्या के बाद 1984 में कांग्रेस को कुल मतदान का लगभग 50 प्रतिशत वोट मिल सका. इसलिए, ‘महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कौन जीतता है बल्कि किसे हराना है’ का तर्क मतदाताओं को भाजपा के खिलाफ मतदान करने के लिए उत्साहित नहीं करेगा.
एक करिश्माई प्रधानमंत्री और एक रणनीतिकार गृह मंत्री के संयुक्त नेतृत्व में एक मजबूत कैडर बेस संगठन द्वारा समर्थित भाजपा को “जन्मदिन पार्टी गिरोहों” द्वारा सत्ता से अलग करना मुश्किल है. एक समय था जब कांग्रेस को भाजपा के राष्ट्रीय विकल्प के रूप में देखा जाता था. लेकिन एक “क्रमिक विफलता” के नेतृत्व में, पार्टी ने गठबंधन बनाने के लिए भाजपा विरोधी दलों के लिए एक छतरी के रूप में अपनी श्रेष्ठता खो दी है. इतिहास के कूड़ेदान की ओर तेजी से बढ़ रही कांग्रेस के साथ कोई भी क्षेत्रीय दल अपनी स्थानीय ताकत साझा नहीं करना चाहेगा.
बिना किसी सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम, अखिल भारतीय उपस्थिति और आकर्षक जन-हितैषी वैकल्पिक एजेंडे वाला एक चेहराविहीन विपक्ष कुछ दिनों के लिए सुर्खियां बटोरेगा और 2024 की चुनावी दौड़ शुरू होने से पहले ही भुला दिया जाएगा.
(शेषाद्री चारी ‘ऑर्गेनाइजर’ के पूर्व संपादक है. व्यक्त विचार निजी हैं)
(संपादन: कृष्ण मुरारी)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: BJP भारतीयों को तटस्थ और भ्रष्टाचार के प्रति अविश्वासी बनाने की ओर ले जा रही है