भारत की विभिन्न सरकारें सब्सिडी योजनाओं और कर्ज़माफी कार्यक्रमों के सहारे किसानों की मदद का प्रयास करती रही हैं, वहीं आवश्यक वस्तु अधिनियम (1955) (ईसीए) अनाज के गोदामों और भंडारण सुविधाओं में निवेश को हतोत्साहित करता है. अब समय आ गया है कि इस कठोर कानून को खत्म किया जाए.
शासन को मूल्य और मात्रा दोनों पर नियंत्रण का अधिकार देने वाले ईसीए के प्रावधान कठोर होने के साथ-साथ अनिश्चित भी हैं. यह कानून कृषि आय में वृद्धि के लिए दिए जाने वाले प्रोत्साहनों के विरुद्ध एक अवरोध की तरह है.
कृषि संकट
फसल ऋण माफी, फसल निवेश सहायता, आय समर्थन और सब्सिडी संबंधी प्रत्यक्ष लाभ अंतरण जैसी योजनाओं से कृषि क्षेत्र में मांग और आपूर्ति में मौसमी असंतुलन का समाधान नहीं होगा. वास्तव में हर फसली मौसम में मांग और उत्पादन में बढ़ोत्तरी के मद्देनज़र यह असंतुलन बढ़ेगा ही. यह स्पष्ट है कि हमें गोदामों और अन्य भंडारण सुविधाओं को बढ़ाना होगा – पर ईसीए कृषि आय बढ़ाने के लिए आवश्यक इन क्षेत्रों में निवेश की राह में अवरोध बनता रहा है. इसलिए, सरकार को ईसीए को खत्म करना चाहिए.
सरकार का हस्तक्षेप
कर्ज़ राहत के साथ ही केंद्र और राज्य सरकारों को कृषि बाज़ार में अलग-अलग तरीकों से हस्तक्षेप करना चाहिए. सरकार कृषि के लिए खाद, पानी और बिजली जैसी लागतों पर सब्सिडी देती है. साथ ही यह कृषि अनुसंधान में निवेश के साथ-साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य, फसल खरीद और विनियमित कृषि बाज़ार का इंतज़ाम करती है. इन प्रयासों के बावजूद किसानों की आय क्यों कम हो रही है? मौजूदा कानून कृषि क्षेत्र की समस्याओं की एक प्रमुख वजह हैं क्योंकि ये कृषि बाज़ारों के ठीक से काम नहीं कर पानी की परिस्थितियां पैदा करते हैं.
क्या प्रयोजन है आवश्यक वस्तु अधिनियम का
विनिर्माण के विपरीत कृषि एक मौसमी क्रिया कलाप है. फसल कटाई के समय आपूर्ति का स्तर अधिकतम होता है, परिणास्वरूप कीमतें सबसे निचले स्तर पर होती हैं. यदि किसान (या व्यापारी) उत्पाद का भंडारण करता है तो आपूर्ति व्यवस्था सुचारू रहती है और कीमतों में अस्थिरता कम देखी जाती है. पर, ईसीए भंडारण क्षमता के सहारे आपूर्ति व्यवस्था सुचारू रखने की प्रक्रिया को एक तरह से आपराधिक कृत्य बना देता है.
उल्लखेनीय है कि ईसीए ब्रितानी सरकार द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लागू किए गए प्रावधानों का परवर्ती रूप है. उन प्रावधानों का मकसद था युद्ध प्रयासों में आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति को नियंत्रित करना. ये प्रावधान युद्धकाल के अन्य कानूनों की तरह से अत्यंत कठोर थे. दुर्भाग्य से, युद्ध के बाद और फिर स्वतंत्र भारत में उन प्रावधानों में से बहुत कुछ को हमारी विधिक व्यवस्था का स्थायी अंग बना दिया गया.
ईसीए की शक्तियां
ईसीए सरकार को आवश्यक वस्तुओं की सूची में शामिल किसी भी चीज़ के भंडारण और विक्रय मूल्य को नियंत्रित करने का अधिकार देता है. तिलहन समेत सारे खाद्य पदार्थ इस सूची में शामिल हैं. इस कानून का एक और अतिरेक है मूल्य या मात्रा पर नियंत्रण के प्रावधानों का मूल कानून में शामिल नहीं होना.
ईसीए यह अधिकार केंद्र और राज्य की सरकारों को देता है जो नियंत्रण आदेशों के ज़रिए कीमतों को नियंत्रित करती हैं. अधिकारों के इस हस्तांतरण का मतलब है किसी भी तरह के नियंत्रण को लागू करने के लिए किसी विमर्श प्रक्रिया का आवश्यक नहीं होना.
बिना किसी पूर्व सूचना के, सरकार व्यापारियों के लिए किसी खाद्य पदार्थ की भंडारण की सीमा या उसका विक्रय मूल्य तय कर सकती है. यहा तक कि सरकार व्यापारियों को उक्त वस्तु के विक्रय के लिए बाध्य भी कर सकती है. कई बार ऐसे आदेश रातोंरात जारी किए जाते हैं.
किसी व्यापारी का किसानों के साथ उपज खरीद का अनुबंध हो सकता है, पर संभव है अनुबंध पूरा करने में वह भंडारण सीमा को लांघ जाए. कई बार, वायदा कारोबार से जुड़े व्यापारियों की गिरफ्तारी की नौबत आ जाती है क्योंकि वे बिना नियंत्रण वाली अवधि में किए अनुबंध के अनुरूप जब डिलिवरी ले रहे होते हैं तब तक कोई नियंत्रण आदेश लागू किया जा चुका होता है.
कठोर प्रावधान
बहुतों का मानना है कि यह कानून बेईमान व्यापारियों या बिचौलियों की मुनाफाखोरी से उपभोक्ताओं की रक्षा के लिए एक न्यायोचित साधन है. हालांकि, जहां आधुनिक प्रतिस्पर्धा कानूनों में सरकार को साबित करना होता है कि किसी ने अपने एकाधिकार वाली स्थिति का दुरुपयोग करते हुए बाज़ार पर कब्ज़ा कर लिया है, ईसीए के तहत नियंत्रण आदेशों को जारी करने से पहले इस तरह के विश्लेषण की कोई अनिवार्यता नहीं है.
वास्तव में यह वैसे किसी व्यापारी के माल ज़ब्त करने का ज़रिया बन जाता है जिसने फसल कटाई के मौसम में उत्पादों का भंडारण यह सोच कर किया हो कि बिक्री के लिए वह कम आपूर्ति वाले महीनों का इंतजार करेगा.
यदि सरकार किसी भी व्यक्ति को किसी भी खाद्य सामग्री का भंडारण करने से रोक सकती है, या किसी को भी सरकार द्वारा तय दाम पर खाद्य सामग्री बेचने को बाध्य कर सकती है, तो ऐसे में भला खाद्य सामग्री के लिए बड़े गोदाम बनाने का कोई मतलब रह जाता है?
ज़ाहिर है ऐसे गोदाम स्वाभाविक तौर पर अधिकारियों के छापे का मुख्य निशाना बन जाएंगे. उल्लेखनीय है कि ईसीए के कतिपय प्रावधानों का उल्लंघन करने वालों को सात साल तक की क़ैद की सज़ा हो सकती है.
गोदाम और अन्नागार जैसी सुविधाओं का निर्माण महंगा पड़ता है, और इनसे मिलने वाला राजस्व का स्तर आमतौर पर कम होता है. किसी गोदाम बनाने में हुए निवेश को वसूल करने में दशकों लग जाते हैं.
सरकार ने 2002 में चीनी को नियंत्रित मूल्य वाली वस्तुओं की सूची से हटाने की औपचारिक घोषणा की थी और उसके बाद ईसीए के तहत आने वाले कई नियंत्रण आदेश निरस्त कर दिए गए. पर 2015 आते-आते नियंत्रण आदेशों की वापसी हो चुकी थी और व्यापारियों पर भंडारण संबंधी नियंत्रण लगा दिए गए. जिस किसी ने भी सरकार के 2002 के फैसले के मद्देनज़र चीनी के भंडारण के लिए गोदाम या आगार बनाए होंगे उनको अब नुकसान उठाना पड़ रहा होगा.
2015 में, पश्चिम बंगाल सरकार ने प्याज पर भंडारण नियंत्रण लागू कर दिया था, और 2013 में आलू के मामले में यही कदम उठाया गया था. भविष्य में भी सरकारें ऐसा कर सकती है, यह संभावना निर्मूल नहीं है.
ईसीए के प्रावधान
ईसीए के प्रावधानों की बाज़ार में तार्किक प्रतिक्रिया देखी गई. पहली प्रतिक्रिया थी गोदामों या ऐसे भंडारण सुविधाओं, कम से कम बड़े आकार वाले, में निवेश नहीं करना जो कि सबके सामने हो और जिन पर आसानी से छापा मारा जा सके.
आमतौर पर, नियंत्रण आदेश के तहत छापे मारे जाने का जोखिम मोल लेने वाले बिचौलिये ही गोदाम के व्यवसाय में आते हैं. इस कारण किसानों और उपभोक्ताओं के बीच बिचौलियों का एक अवैध नेटवर्क खड़ा हो गया है.
चूंकि ईसीए के प्रावधानों के तहत अधिक मात्रा में वस्तुओं के भंडारण के खिलाफ छापे मारे जाने और माल जब्त किए जाने का खतरा रहता है, बिचौलिये आमतौर पर इस जोखिम की एवज में अतिरिक्त पैसे लेते हैं जिसकी चपत आखिरकार उत्पादकों और उपभोक्ताओं को लगती है.
बिचौलियों के कई स्तर होने और खाद्य प्रसंस्करण करने वाले बड़े व्यापारियों के लिए सीधे किसानों से खरीद संभव नहीं होने को ईसीए प्रावधानों का स्वाभाविक परिणाम माना जा सकता है. संभव है अधिक मुनाफा कमाने के चक्कर में व्यापारी विशेष अतिरिक्त स्टॉक रखने का खतरा मोल ले भी ले, बाज़ार में अपनी प्रतिष्ठा की फिक्र करने वाली बड़ी कंपनियों के ऐसा करने की कम ही संभावना है.
भारत में औपचारिक गोदामों और अन्नागारों की कमी में ईसीए निर्मित भय के वातावरण की भूमिका देखी जा सकती है. इस समस्या से निबटने के लिए सरकार कृषि वस्तुओं के लिए गोदाम और भंडारण व्यवस्था निर्मित करने वालों को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के ज़रिए रियायती दर पर पूंजी उपलब्ध कराती है.
सब्सिडी की इस व्यवस्था से अन्य तरह की समस्याएं पैदा होती हैं. अब, ईसीए के तहत आदेशों का जोखिम गोदाम मालिकों से हट कर बैंकों के ऊपर आ जाता है. चूंकि मालिकों ने कम पूंजी लगाई है, वे अपनी लागत जल्दी वापस पा सकते हैं.
नतीजतन, यदि सरकार कृषि वस्तुओं के संबंध में नियंत्रण आदेश लागू करती है, तो गोदाम मालिक ऋण चुकाने में नाकाम रहते हैं. इससे ईसीए आदेश सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और ब्याज पर सब्सिडी देने वाले सरकारी उपक्रमों पर बोझ बनता है – और इस तरह, बिजनेस को सरकारी सब्सिडी दिए जाने और नियंत्रण आदेश के ज़रिए उसी बिजनेस को खत्म करने का एक चक्र बन जाता है.
आगे की राह
ईसीए के नाम पर की जाने वाली मनमानियों पर रोक लगाने के लिए कई सिफारिशें की जा चुकी हैं. पर मूलत: ईसीए एक अतिकठोर कानून है जो लोगों को कृषि क्षेत्र में संसाधनों का विकास करने से रोकता है.
दुर्भाग्य से, जब तक ईसीए, किसी भी रूप में, मौजूद है, इसका अवरोधकारी असर कायम रहेगा. एकमात्र समाधान है इस अति कठोर कानून से मुक्ति पाना.
(इस लेख में योगदान के लिए अनिरुद्ध बर्मन का आभार. इला पटनायक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर और शुभो रॉय इसी संस्थान में सलाहकार हैं. यह भारत में कानून और अर्थशास्त्र विषय पर इनकी लेखों की श्रृंखला में दूसरा लेख है.)
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