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Friday, 15 November, 2024
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मणिपुर संकट को हिन्दू बनाम ईसाई की दूरबीन से मत देखिए, जातीय जंजाल की बारीकी को समझिये

मणिपुर की जटिल हालत को हिन्दी पट्टी की नजर से न देखें. हमारा सामना दो पीड़ित समुदायों से है , दोनों की शिकायतें वाजिब हैं और आशंकाएं वास्तविक.

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एडवर्ड सईद की ओरियंटलिज्म पिछले पांच दशकों की सबसे प्रभावशाली किताबो में एक है. पश्चिमी जगत ने मध्य-पूर्व को अपनी दूरबीन से क्या और कैसा देखा, इस केंद्रीय सवाल से मुठभेड़ करते सईद के गौरव-ग्रंथ ओरियंटलिज्म में बताया गया है कि `पूरब` की दुनिया के बारे में रचे गये सारवादी ज्ञान के सहारे उपनिवेशवादी सत्ता ने अपने शासन को जायज ठहराने के तर्क गढ़े. और, यह बात ज्ञान देने वाली सिर्फ उन्हीं किताबों पर लागू नहीं होती जिनका रवैया उपनिवेशित देशों के प्रति वैर-भाव से भरा और निंदात्मक है बल्कि उन किताबों पर भी लागू होती है जिनका रूख पूरब के जगत को लेकर सद्भाव और सहानुभूति का है क्योंकि ऐसी किताबों में भी देखने-दिखाने वाला चश्मा वही रहता है, बस रूख बदल जाता है.

पिछले दस दिनों से मणिपुर के बारे सोचते हुए मुझे सईद के ओरियंटलिज्म की याद आ रही है. चलो, उस हृदय-विदारक वीडियो के वायरल होने के बाद कम से कम हमलोगों ने ये तो माना कि इस देश में कहीं कोई मणिपुर भी है. छत्तीस सेकेंड के लिए ही सही लेकिन मसले पर प्रधानमंत्री का मौन तो टूटा. फूंक-फूंक कर कदम रखने के अंदाज में ही सही मामले में सुप्रीम कोर्ट की पहलकदमी तो हुई. खुद को `राष्ट्रीय` बताने वाले मीडिया में हल्का सा ही सही मगर मणिपुर की त्रासदी का जिक्र तो आया. पूर्वोत्तर के एक राज्य की हालत पर एकबारगी संसद के भीतर और बाहर राष्ट्रीय राजनीति का ध्यान जा टिका. देश-चेतना की चौखट पर पूर्वोत्तर को लेकर दशकों से जो विस्मरण का परदा लटका चला आ रहा था उसमे एक छेद तो हुआ .

ओरियंटलिस्ट(प्राच्यवादी) चश्मे के राजनीतिक निहितार्थ

बीते चंद दिनों ने हमें एक सबक सिखाया है. सबक ये कि सत्ता की उपेक्षा से भी कहीं ज्यादा बुरा होता है ये होता है कि आप सत्ता की नजर में आ जायें. जो कोई भी देश के कोने-कोने में गया है वह यकीन के साथ कह सकता है कि पूर्वोत्तर का इलाका और इस इलाके में खासकर मणिपुर देश के बाकी इलाकों की तुलना में महिलाओं के लिए ज्यादा सुरक्षित रहा है. लेकिन, अब मणिपुर महिलाओं पर की गई नृशंस हिंसा के लिए जाना जायेगा. मणिपुर में सबसे ज्यादा वक्त तक मुख्यमंत्री की गद्दी संभालने वाले स्वर्गीय रिशांग कीसिंग अल्पसंख्यक ईसाई धर्मावलंबी नगा समुदाय के थे. लेकिन वही राज्य मणिपुर अब बहुसंख्यकवाद के मॉडल राज्य के रूप में देखा जा रहा है. मणिपुर पहला राज्य है जहां व्यस्क मताधिकार पर आधारित लोकतांत्रिक चुनाव हुए और कहा जाये कि पूर्वोत्तर के राज्यों में सबसे ज्यादा जीवंत नागरिक-समाज (सिविल सोसायटी) तथा बौद्धिक-परिवेश मणिपुर में रहा है तो यह दावा भी असंगत नहीं. लेकिन, आज यही मणिपुर `लोकतंत्र के स्याह अध्याय` के रूप में देखा जा रहा है.

मणिपुर का मौजूदा संकट एक ना एक दिन खत्म हो जायेगा. लेकिन, मणिपुर को लेकर बनी ये धारणाएं हमारे जेहन में कहीं गहरे पेवस्त होकर कायम रहेंगी, ठीक वैसे ही जैसे मध्यपूर्व को लेकर पश्चमी जगत की रची-गढ़ी धारणाओं के साथ हुआ. स्मृति का हिस्सा बन चली इन धारणाओं से पूर्वोत्तर के बारे में पहले से जारी पूर्वाग्रह और रूढ़छवियां और भी ज्यादा मजबूत होंगी. यह सारा कुछ मिलकर हमारे अपने देसी किस्म के प्राच्यवाद(ओरियंटलिज्म) को पुष्ट करेगा. हमारा यह देसी प्राच्यवाद भारत की मुख्यभूमि के चश्मे से पूर्वोत्तर को देखता है. नतीजतन इन सीमान्त इलाकों का अलगाववाद गहरा हो जाता है.

यह कोई बारीक और दीर्घकालिक अकादमिक किस्म की चिन्ता भर नहीं. इस प्राच्यवादी दूरबीन के गंभीर और तात्कालिक राजनीतिक निहितार्थ हैं. मणिपुर में तीन महीनों से जारी मौजूदा संकट की प्रकृति को समझने में यह दृष्टि बाधक है. देश की मुख्यधारा का हितसाधक यह यह समझ पक्षपाती है और यह पक्षपात घातक है.

इस प्रवत्ति और इसके राजनीतिक निहितार्थों की तरफ पहली बार मेरा ध्यान असम की समस्या पर उदारवादी-प्रगतिशील खेमे के रवैये को देखकर गया था. उदारवादियों-प्रगतिशीलों का खेमा इस वास्तविकता को स्वीकार करने को ही तैयार नहीं था कि असम में सीमा-पार से घुसपैठ होती है और बांग्लादेश से लगते असम के जिलों में जातीय-बसाहट का आकार-प्रकार बदल रहा है. इस खेमे ने अहोमिया समुदाय की जायज चिन्ताओं के प्रति जैसे अपने दिल-दिमाग को बंद कर लिया था. असम-आंदोलन से पीठ फेरकर खड़े इस खेमे ने इस आंदोलन को तंगदिली और देस-बाहरी लोगों के प्रति विद्वेष की राजनीती के एक नमूने के रूप में देखा. अहोमिया समुदाय की चिन्ताओं से मुंह फेर रखने की उदारवादी-प्रगतिशील खेमे के रवैये और मसले को लेकर धर्मनिरपेक्ष दलों की उदासीनता से भाजपा की बन आई. भाजपा ने इस जातीय और भाषाई मसले को दो धर्म-समदायों के आपसी भेद का मसला बना दिया. जमीनी सच्चाई से बहुत ऊपर खड़े होकर पेचीदा हालात को सिद्धांतों की एक दूरबीन से देखने की यह जिद असम में सेक्युलर राजनीति को राजनीतिक पक्षाघात की तरफ ले गई.

पीड़ित कोई एक नहीं बल्कि अनेक हों तो ऐसी स्थिति से निबटने में हमारी राजनीति किस कदर नाकाम होती है— असम इसका जीता-जागता उदाहरण है. अहोमिया समुदाय के लोग वैसे ही पीड़ित हैं जैसे बंगाली और झाऱखंडी आप्रवासी, मैदानी इलाके की विभिन्न जनजातियां तथा बांग्लादेश से आये अवैध आप्रवासी लोग. ऐसी स्थिति में हम एक आसान और सुस्त रास्ता अपना लेते हैं—- बाकी पीड़ितों की दुख-दशा से आंखें मूंदकर किसी एक पीड़ित को चुन लेते हैं और उसे ही केंद्र में रखकर एक पक्षपाती किस्म की राजनीति का ताना-बाना बुन लेते हैं. ऐसी राजनीति का आत्मघाती होना तय है.

मणिपुर में बहुत कुछ ऐसा ही हो रहा है.

मणिपुर: असम जैसे अपने को दोहरा रहा हो

मणिपुर के संकट पर अगर हम देर के बावजूद दुरुस्त नहीं हैं तो इसके पीछे कारण यही नहीं कि सत्ता-समर्थक खेमे ने मामले को सांप्रदायिक मोड़ दिया है, मसले पर जहर उगला और चकमा देने की चाल अपनायी है. मसले पर सत्ता-विरोधी, सद्भावी, जन-पक्षधर और नेक इरादों वाला खेमा भी दोषी है क्योंकि उसने भी इस मसले को उड़ती नजर से देखा और मसले का सरलीकरण किया. ऐसा करना मसले की वास्तविकता से गुमराह करता है. सत्ता-विरोधी खेमे ने बीजेपी की भेदभावपरक राजनीति, मुख्यमंत्री बीरेन सिंह के पक्षपात और नाकाबलियत और प्रधानमंत्री मोदी की इस मसले पर निष्ठुर उदासीनता और संवैधानिक कर्तव्यों के प्रति लापरवाही की खबर ली, जो बेहद जरूरी थी. पीड़ित को दोषी ठहराने और अपराध पर परदा डालने के दरबारी मीडिया ने जो कारनामे किये हैं उसका पर्दाफाश भी किया.

फिर भी, उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष खेमे के आलोचक मणिपुर की हद दर्जे की जटिल स्थिति को हिंदी पट्टी में प्रचलित राजनीति के भ्रामक चश्मे से देखने के दोषी हैं. हिन्दी-पट्टी में प्रचलित राजनीति का यह चश्मा दिखाता है कि अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों पर बहुंसख्यक तबके का जोर-जुलम चल रहा है या फिर यह कि आदिवासी समुदायों का सवर्ण हिन्दुओं के हाथों उत्पीड़न हो रहा है. ऐसे में अनेकानेक पीड़ितों के बीच से किसी एक पीड़ित को चुनना और उसकी कहानी को सबकी कहानी बनाकर पेश करना आसान हो जाता है. हम यह पूछते तक नहीं कि सोच का यह उत्तर-भारतीय चौखटा पूर्वोत्तर की वास्तविकताओं की समझ बनाने के लिहाज से फिट है भी या नहीं. मामले में जो दोषी है उसकी (यानी भाजपा सरकार की) झटपट और सही पहचान हो जाती है लेकिन फिर ऐसी ही हड़बड़ी में मामले में जो पीड़ित है, उसकी भी पहचान कर ली जाती है. मणिपुर की स्थितियों के जानकार कई विद्वानों जैसे प्रोफेसर बिमॉल अकोइजोम, प्रोफेसर खाम खान सुआन हाउजिंग और प्रदीप फान्जोबाम ने बताया है कि स्थिति उससे कहीं अधिक जटिल है जितना कि मानकर चला जा रहा है.

मणिपुर की हालत को समझने का यह चश्मा वहां जारी हिंसा और द्वेष की विभाजक रेखा को धूमिल कर देता है : मणिपुर में मुख्य मसला धार्मिक-सांप्रदायिक विभाजन का नहीं बल्कि जातीय संघर्ष का है. आरएसएस तो चाहेगा ही कि मणिपुर के संघर्ष को हिन्दू बहुसंख्यक बनाम ईसाई तथा अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक के चश्मे से देखा और दिखाया जाये. लेकिन मणिपुर में अभी ऐसा हुआ नहीं है. मणिपुर में जारी संघर्ष का प्रधान तथ्य ये है कि यह मुख्य रूप से मैतेई ( जिनमें ज्यादातर हिन्दू मतावलंबी हैं) और कुकी (जो ईसाई मतावलंबी हैं) समुदाय के बीच का संघर्ष है. ऐसा पहले भी था और अब भी ऐसा ही है. कोई ये ना समझे कि ऐसा कहकर यहां चर्चों को गिराने और उन्हें अपवित्र करने के तथ्य की लीपापोती की जा रही है. जी नहीं, यहां बस ये याद दिलाने की कोशिश की जा रही है कि मणिपुर में जारी हिंसा की आग को हवा धार्मिक सांप्रदायिकता से नहीं बल्कि जातीय सांप्रदायिकता से मिल रही है. मणिपुर में ईसाई धर्मावलंबी सबसे बड़ा समुदाय नगा है और सबसे छोटा मुस्लिम धर्मावलंबी समुदाय पंगाल है. ये दोनों समुदाय अभी इस लड़ाई के हिस्से नहीं बने. शुरूआती दौर में ऐसी कुछ खबरें बेशक आयीं कि मैतेई समुदाय के ईसाई धर्मावलंबी एक छोटे से तबके पर हमले हो रहे हैं लेकिन जल्दी ही ये हमले रूक भी गये.

यहां याद ये भी रखा जाये कि मैतेई लोग वैसे हिन्दू नहीं जैसे कि उत्तर भारत में होते हैं और ना ही जो अतिवादी समूह मैतेई लोगों के पक्षधर हैं उन्हें बजरंग दल के समान कहा जा सकता है. बेशक पिछली तीन सदियों से वैष्णव धर्म (गौड़ीय वैष्णव) मैतेई लोगों का मुख्य धर्म बना चला आ रहा है लेकिन इस गौड़ीय वैष्णव धर्म का सह-अस्तित्व मणिपुर के खास सनमाही धर्म के विश्वासों, आचार-व्यवहार और पर्व-त्योहारों के साथ बना चला आ रहा है. आरएसएस की हाड़-तोड़ कोशिशों के बावजूद मणिपुर में उग्र हिन्दूवाद अपने पैर नहीं जमा सका है. जिन लड़ाके अतिवादी समूहों जैसे मैतेई लीपुन और अराम्बेई टेनग्गोल को कुकी लोगों पर हमले का जिम्मेदार बताया जा रहा है वे उस तर्ज के इकहरे हिन्दू-धर्म के पैरोकार नहीं जिसके प्रचार-प्रसार में संघ-परिवार लगा हुआ है. दरअसल, मणिपुर के ऐसे अतिवादी समूहों का विचारधाराई कदम तो मणिपुर के खास सनमाही धर्म को पुनरूज्जीवित करने, भारत की मुख्यभूमि की संस्कृति को मणिपुर पर लादने की कोशिश का प्रतिकार करने और भारतीय राजसत्ता के प्रभुत्व के लिए बाधक बनने की दिशा में उठा है. इन तमाम चीजों को ठोंक-पीटकर मुख्यधारा के हिन्दुत्व के रूप में पेश करने की संघ परिवार की कोशिशें मणिपुर में कामयाब होने से अभी बहुत दूर हैं.

चुनौती किसी एक पीड़ित और एक हमलावर से निबटने की नहीं

मैतेई और कुकी-जो समुदाय के लोगों के बीच का रिश्ता वैसा नहीं जैसा कि सवर्ण हिन्दू और आदिवासियों के बीच होता है. ये दोनों ही समुदाय `छोटे मगर सुस्पष्ट पर्वतीय इलाके के एक ही जातीय-भाषाई परिवार से निकले हैं` और परस्पर भिन्न होने के बावजूद इनका इतिहास साझे का है जिसमें आपसी मेल-व्यवहार के उदाहरण मिलते हैं तो पारस्परिक शंका-संदेह के भी. यों तकनीकी तौर पर देखें तो मैतेई लोगों को ओबीसी का दर्जा मिला है लेकिन मैतेई लोग सामाजिक-शैक्षिक हैसियत के हिसाब से कुकी लोगों से बुनियादी तौर पर भिन्न नहीं जबकि कुकी लोगों को एसटी का दर्जा हासिल है. एसटी का दर्जा हासिल होने से कुकी समुदाय के सदस्यों की सूबे के प्रशासनिक ओहदों और पुलिसिया महकमे में अच्छी-खासी मौजूदगी है. अगर हमें मणिपुर में जारी जातीय हिंसा से मेल खाता कोई उत्तर भारतीय उदाहरण खोजना ही है तो ऐसे उदाहरण के रूप में बात राजस्थान के मीणा बनाम गुर्जर तनाव की करनी चाहिए ना कि झारखंड के सवर्ण हिन्दू बनाम आदिवासी सम्बन्ध की.

कुकी लोगों के मन में बहुत दिनों से ये भावना घर कर गई है कि उनके साथ अन्याय हो रहा है. वर्तमान मुख्यमंत्री बीरेन सिंह का कुकी समुदाय के प्रति खुलेआम वैर-भाव का रवैया अपनाने के कारण यह भावना और ज्यादा गहरी हुई है. कुकी लोगों को चुन-चुनकर हिंसा का निशाना बनाया गया है. उन्हें बहुत बुरा महसूस होता है जब सूबे में कहा जाता है कि ये लोग (कुकी) तो अफीम की खेती में लगे हैं. उन्हें बुरा लगता है जब उनके साथ अपनी ही जमीन पर विदेशियों सा बरताव होता है और उनके भीतर ये भय-भावना जागती है कि अभी तक जो संवैधानिक सुरक्षा हासिल है वह हमसे छीन ली जायेगी तथा हमारी परंपरागत जमीन से बेदखल कर दिया जायेगा.

मैतेई लोगों में भी लंबे समय से यह भावना घर किये हुए है कि हमें तो एक किस्म की घेराबंदी में जीना पड़ रहा है, जमीन के एक छोटे से हिस्से तक हमें सीमित कर दिया गया है. वे देखते हैं कि उनके साथ कुछ और बरताव हो रहा है जबकि उन्हीं के समकक्ष कुछ अन्य समुदायों के साथ कुछ और बरताव. मैतेई समुदाय के भीतर ये भय-भावना भी घर किये हुए है कि मणिपुर की सीमाओं का अतिक्रमण होगा. इसलिए, मणिपुर में जारी हिंसा के बारे में सोचते हुए हमें याद रखना होगा कि यहां हम ऐसी स्थिति से नहीं निबट रहे जिसमें कोई एक समुदाय केवल पीड़ित और दूसरा केवल हमलावर है बल्कि मणिपुर में हमारा सामना दो पीड़ित समुदायों से है जिनकी शिकायतें वाजिब हैं और आशंकाएं वास्तविक.

(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से हैं. उनका ट्विटर हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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