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Friday, 22 November, 2024
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भारतीय सशस्त्र सेनाओं का राजनीतिकरण न करें, पुलिस के परिणाम आपके सामने है

विगत तीन दशकों के दौरान सशस्त्र सेनाओं के राजनीतिकरण की सबसे बड़ी वजह जम्मू कश्मीर में उनकी तैनाती है.

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विगत कुछ महीनों के लंबे और कड़वाहट भरे चुनाव अभियान के दौरान बेचैन करने वाले मुद्दों में सशस्त्र सेनाओं के राजनीतिकरण का मुद्दा भी शामिल था. इस पर भावनाओं से ऊपर उठ कर विचार किए जाने की आवश्यकता है और अब जबकि चुनाव संपन्न हो चुके हैं, इस पर विचार करने का समय आ गया है.

ये भारत के राष्ट्रीय हित में है कि हमारे सशस्त्र बल. एक संस्था के रूप में– निष्पक्ष और पेशेवर हों तथा चुनावी राजनीति, नीति निर्माण और प्रशासन के कार्यों से खुद अलग रहें और उनको इन सबसे अलग रखा भी जाए. इस फार्मूले ने उदार लोकतंत्रों के लिए वैयक्तिक अधिकारों की रक्षा, समृद्धि का संरक्षण और दुर्जेय सैनिक ताकत, इसका शिकार बने बिना, बनना संभव किया है. यह फार्मूला उस दौर में भी भारतीय गणतंत्र के लिए कारगर रहा जब हमारा लोकतंत्र शैशवास्था में था और आज़ाद भारत के इतिहास में तमाम उतार-चढ़ाव के बीच हमारे राजनीतिक और सैन्य नेताओं की पीढ़ियों ने असैन्य और सैन्य प्रतिष्ठानों को एक संयोजित असंबद्धता की स्थिति में रखने में अपना योगदान दिया. इसलिए ये अहम है कि हम इस संबंध की रक्षा करें और इसे संजो कर रखें.

चूंकि ‘युद्ध अन्य तरकीबों से की जानेवाली राजनीति है’, इसलिए सशस्त्र सेनाएं राजनीतिक साधन हैं और व्यापक अर्थों में स्वभावत: राजनीति में रंगी हैं. पर जब हम सशस्त्र बलों के राजनीतिकरण की बात करते हैं, तो हमारा मतलब एक अलग तरह के राजनीतिकरण से होता है. घरेलू राजनीति में उनके शामिल होने या इसमें उन्हें घसीटे जाने से. पहले तरह के राजनीतिकरण में पक्षपात, सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन, सरकार में हस्तक्षेप, प्रशासन में भागीदारी और सत्ता पर प्रत्यक्ष कब्ज़ा जैसी बातें शामिल होती हैं. वहीं दूसरे तरह के राजनीतिकरण का मतलब जनता में अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए नेताओं द्वारा सेना के उद्देश्यों, कर्मियों और प्रतीकों के इस्तेमाल से है. और जैसा कि हम अक्सर अपने पड़ोस में देखते हैं, नेता सत्ता में साझेदारी या सत्ता पर कब्ज़े के लिए जनरलों को आमंत्रित कर सकते हैं. राजनीतिकरण नेताओं के इशारे पर होता हो या जनरलों के निर्देश पर, ये शीघ्र ही शासन के ढांचे को जर्जर बनाने, लोकतंत्र को बुरी तरह कमज़ोर करने और सैन्य प्रभावशीलता को कम करने का काम करता है.


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जब सेनाओं के आठ पूर्व प्रमुखों और कई वरिष्ठ सेवानिवृत अधिकारियों ने सशस्त्र सेनाओं के राजनीतिकरण पर अपनी गंभीर चिंता व्यक्त करने के लिए राष्ट्रपति को पत्र लिखने की ज़रूरत समझी हो, तो हमें इसे गंभीरता से लेना चाहिए. भाजपा और उसके समर्थकों ने भले ही चुनाव अभियान के दौरान पूर्व सैनिकों के इस कदम के महत्व को चतुराई से कम कर दिया हो, पर अब जबकि नरेंद्र मोदी सत्ता में दोबारा वापसी कर चुके हैं, उनकी सरकार के लिए ये उचित होगा कि वह इस बहस की बुनियादी दलीलों पर पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर विचार करे. सिर्फ इस बिना पर उसे खारिज करना कि कथित रूप से हस्ताक्षर करने वालों में से कुछ ने टीवी कैमरे के सामने इससे इंकार किया या ईमेल औपचारिक रूप से राष्ट्रपति के कार्यालय को नहीं मिला, सर्वाधिक ज़िम्मेदार सैनिकों में शामिल रहे इन लोगों की चेतावनी को अनसुना करने जैसा होगा.

संभव है चुनाव अभियान की बहसों के चलते राजनीतिकरण के मुद्दे की हां या नहीं वाली स्थिति बन गई हो, जहां एक पक्ष सशस्त्र सेनाओं के राजनीतिकरण की बात पर यकीन करता है और दूसरा पक्ष इस आरोप को सिरे से खारिज करता है. पर वास्तविकता में राजनीतिकरण एक व्यापक दायरे में होता है और पूर्व सैनिकों का कहना है कि यह खतरनाक स्तर के करीब पहुंच रहा है.

यदि राजनीतिक दल विकास, शासन और कल्याणकारी योजनाओं संबंधी अपने रिकार्डों के आधार पर प्रतिद्वंद्विता कर सकते हैं, तो वे राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा मामलों पर अपनी उपलब्धियों का भी ज़िक्र कर सकते हैं. बेशक, नियंत्रण रेखा के पार ‘सर्जिकल हमलों’ के आदेश पूर्व की सरकारों ने भी दिए थे. पर यदि नरेंद्र मोदी अपने आदेश से हुए हमले को जनता के समक्ष रखना चाहते हैं, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है. बालाकोट हवाई हमले के संदर्भ में भी यही कहा जा सकता है, हालांकि, अपुष्ट खबरों के अनुसार, आपसी गोलाबारी में अपने हेलिकॉप्टर चालक दल को गंवाने की बात ज़ाहिर करने के लिए भारतीय वायुसेना का चुनाव समाप्ति की प्रतीक्षा करने का फैसला दर्शाता है कि उसका नेतृत्व राजनीति दबाव में आ गया था.

इसी तरह, एक लोकतंत्र को इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि इनके वर्दीधारी नागरिकों को भी बाकियों के समान ही वोट डालने और राजनीतिक परिणामों को प्रभावित करने का अधिकार है. यदि कोई पूर्व सैनिक चुनावी राजनीति में उतरने का रोक वाली अवधि के बाद फैसला करता है तो हमें चौंकना नहीं चाहिए. स्वतंत्रता के सात दशकों बाद, हमारे सैनिक अधिकारी उत्तरोत्तर उसी समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसका कि वे अंग हैं, और उनकी चिंताएं, पूर्वाग्रह, मूल्य, आकांक्षाएं और प्राथमिकताएं भी अपने असैनिक देशवासियों के समान ही होती हैं.

इतना ही नहीं, स्मार्टफोनों और सोशल मीडिया के कारण आज सेना और आम लोगों के बीच का फासला लगभग पूरी तरह खत्म हो चुका है. हमें सैनिकों का उनकी राजनीतिक पसंदों के लिए बुरा नहीं मानना चाहिए और एक सैनिक अधिकारी को भी बाकियों की तरह ही भाजपा के समर्थन या विरोध का अधिकार है.


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सशस्त्र सेनाओं के खतरनाक किस्म के राजनीतिकरण से निपटने में सक्षम होने लिए हमें सेवारत और सेवानिवृत सैनिकों की वैध और अवैध राजनीतिक भागीदारियों में अंतर करना होगा.

दुर्भाग्यवश, सशस्त्र सेनाओं का अवांछनीय किस्म का राजनीतिकरण 1950 के दशक में शुरू हुआ था जब पूर्वोत्तर के राज्यों में उग्रवाद-विरोधी अभियानों के लिए सेना की तैनाती शुरू हुई. विगत तीन दशकों के दौरान, जम्मू कश्मीर में लंबी और निरंतर तैनाती हमारी सशस्त्र सेनाओं के राजनीतिकरण की सबसे बड़ी वजह है. इसका ज़िक्र ये दलील देने के लिए नहीं है कि सेना को उग्रवाद विरोधी अभियानों से नहीं जुड़ना चाहिए, बल्कि उद्देश्य है ये दर्शाना कि इसका अपरिहार्य साइड-इफेक्ट राजनीतिकरण के रूप में सामने आता है. अनिर्दिष्ट परिणाम भी उतने ही अहम होते हैं जितने कि अभीष्ट परिणाम.

राजनीतिकरण का प्रतिकारक अराजनीतिकरण नहीं, बल्कि पेशेवर दक्षता को बढ़ाना है. और ये अच्छी बात है. क्योंकि सशस्त्र सेनाओं के लिए ऐसा करना संभव है. हमारी सशस्त्र सेनाओं के प्रशिक्षण संस्थान विशेषज्ञता का स्तर बढ़ाने, ज़िम्मेदारी पर ज़ोर देने और सामूहिक पहचान कायम रखने- सैमुअल पी. हटिंगटन द्वारा परिभाषित सैनिक पेश के तीन गुण को लेकर अपने प्रयास बढ़ा सकते हैं. इसलिए ये ज़िम्मेदारी तीनों सशस्त्र सेनाओं के वरिष्ठ अधिकारियों की है कि वे अधिकारियों और आम जवानों दोनों की पेशेवर दक्षता में निरंतर वृद्धि सुनिश्चित करें.

ये चुनौती कितनी बड़ी है उसे समझने के लिए उन्हें बस हमारे पुलिस बलों की हालत पर गौर करने की ज़रूरत है, जो पिछले पांच दशकों के दौरान अपने राजनीतिकरण के साथ-साथ जनता की नज़रों में गिरते गए हैं.

(लेखक लोकनीति के स्वतंत्र अनुसंधान और शिक्षा केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

(अंग्रेज़ी में इस लेख को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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