‘हर किसी की जिंदगी में कोई न कोई कमी है, मगर कमियों को मिलाकर ही जिंदगी बनती है. मैं जैसी हूं वैसी ही ठीक हूं.’ गॉन केश फिल्म में यह डायलॉग फिल्म के फ्लैश बैक में है, और यही इस फिल्म का सार है. दरअसल यह फिल्म एलोपेसिया से जूझती एक लड़की की कहानी है. इस बीमारी में बाल इस हद तक झड़ जाते हैं कि इंसान गंजा हो जाता है. फिल्म का संदेश महिलाओं के सौंदर्य और उससे भी ज्यादा उसके वजूद को सीमित करने की कोशिशों के खिलाफ है.
जब मैंने इस फिल्म के बारे में पढ़ा और सुना तो मुझे कुछ समय पहले हुई एक महिला से हुई मुलाकात याद आ गई. महिला का नाम था केतकी जनी. केतकी अहमदाबाद में पैदा हुईं और शादी के बाद वह 1993 में पुणे आ गईं. उनके दो बच्चे हैं. शादी और करियर बहुत अच्छा चल रहा था.
अचानक 2011 से वह एक अनोखी बीमारी की गिरफ्त में आ गई. उस समय वह 40 साल की थी. केतकी को लगा कि अब जिंदगी खत्म हो गई. बहुत से तेल ट्राई किए, हेयर ट्रीटमेंट करवाए, बहुत सी दवाएं भी लीं लेकिन कुछ फायदा नहीं हुआ. वह डिप्रेशन में भी चली गईं. दवा छोड़ने के एक से दो महीने के भीतर सारे बाल झड़ गए.
केतकी को अपने इस दर्द से उबरने के लिए करीबन 5 साल का लंबा समय लगा. फिर उन्होंने मिसेज इंडिया वर्डवाइड में हिस्सा लिया. केतकी बताती हैं, ‘मेरे लिए वह समय अंधकार भरा था क्योंकि महिला की खूबसूरती को उसके बालों के साथ जोड़ा जाता है. सच में मेरे पास लोग आए और मुझसे पूछने लगे कि क्या मुझे कैंसर हुआ है या फिर मुझे देखकर अफसोस जताते कि इसकी तो जिंदगी ही खत्म हो गई या फिर अब यह पब्लिक के बीच में कैसे आएगी. मैने लोगों की नजरों का सामना किया है. मैं जहां भी जाती थी वहीं लोगों की बातों का विषय बन जाती थी.
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तब मेरे पति और मेरी बेटी ने मेरा हौसला बढ़ाया और मुझे कहा कि मैं स्टेरॉयड पिल्स न लूं इससे मेरी किडनी खराब हो जाएगी. जैसे ही मैंने दवा लेनी बंद की मेरे सारे बाल झड़ गए. फिर मेरी बेटी एक दिन मेरे पास आकर बैठी और मुझसे कहा कि आपके पास अभी सारी जिंदगी पड़ी है. आप हैल्दी हो, स्मार्ट हो, ब्यूटीफुल हो. फिर इतना निराश क्यों हो. जिंदगी के प्रति आशावादी बनो.
केतकी ने बताया- यही समय मेरे लिए टर्निंग प्वाईंट था. जब मैने मिसेज इंडिया प्रतियोगिता का फेसबुक पेज देखा तो जल्दी से आवेदन कर दिया. मुझे बुला लिया गया और तब मुझे अहसास हुआ कि आज फैशन इंडस्ट्री बदल चुकी है. जब मैं वहां पसर्नल इंटरव्यू देने पहुंची तो पैनल में से एक जज ने मुझे मेरी हेयरस्टाइल की वजह से पसंद किया. फिर मैंने अपने सिर पर टैटू बनवाने का निश्चय किया. हालांकि इसको बनवाने में मैंने बहुत दर्द झेला लेकिन इससे मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास वापस मिल गया और लोगों का नजरिया बदल गया.
अब गंजापन भी मेरे लिए एक फैशन स्टेटमेंट है. मुझे उम्मीद है कि मेरी जैसी एलोप्सिया से पीड़ित अन्य महिलाएं भी घर से बाहर निकलेंगी और कम बालों के कारण शर्मिदंगी महसूस नहीं करेंगी.
केतकी ने भी अपने बाल इस बीमारी से खो दिए थे लेकिन उन्होंने सोचा कि ईश्वर ने मुझे इतना अच्छा कैनवास दिया है तो क्यों न उसका इस्तेमाल किया जाए. केतकी की कहानी ‘गॉन केश’ की नायिका से मिलती है. फिल्म की नायिका झड़ते बालों की बीमारी की शिकार है और इसकी वजह से उपेक्षा और तिरस्कार झेलती है. लेकिन वह हिम्मत करती है और गंजेपन के साथ जीने का संकल्प लेती है. अपने कंटेंट में यह अनोखी फिल्म है. जिस देश में हेयर ऑयल और बालों को सजाने-संवारने का सैकड़ों करोड़ का बाजार हो वहां इस तरह की फिल्म एक बोल्ड संदेश देती है.
हिन्दुस्तानी समाज में गोरा रंग, तीखे नैन-नक्श और लंबे बाल महिलाओं के सौंदर्य की पहचान हैं. भारतीय परिवारों में बालों को लेकर जबरदस्त आग्रह देखने को मिलता है. परिवार की महिलाएं अपनी बेटियों के बालों को लेकर हमेशा सजग और सतर्क दिखती हैं. बालों को लेकर तरह-तरह की हिदायतें दी जाती हैं. तमाम व्यस्तताओं के बीच बालों में तेल, शैंपू और कंडीशनर लगा कर उन्हें दुरुस्त करने का समय निकाला जाता है. बगैर अच्छे बालों की महिलाओं के सौंदर्य की कल्पना करना नामुमकिन है. ऐसे सामाजिक माहौल में ‘गॉन केश’ महिलाओं के बालों के प्रति दुराग्रह तक जा पहुंचने वाली भावनाओं के खिलाफ एक नया विमर्श पेश करती है.
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एक महिला होने के नाते मुझे यह अहसास है बालों की समस्या किस कदर महिलाओं को घेरे रहती है. सिर के बालों की देखभाल का मुद्दा कामकाजी महिलाओं और हाउसवाइव्स दोनों की रूटीन बातों का एक हिस्सा होता है.यहां तक कि कैंसर की बीमारी में बाल झड़ने के बाद भी महिलाओं को विग पहना दिया जाता है. ऐसे माहौल में ‘गॉन केश’ जैसी फिल्म दुर्लभ है. इस तरह की फिल्म अगर महिलाओं के सौंदर्य को सिर्फ उनके सिर के बालों के नजरिये से देखने की मानसिकता पर चोट करती है तो यह एक बड़ी सफलता मानी जाएगी.
यह देखना सुखद है कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री हाल के कुछ अरसे में दकियानूसी नजरिये से बखूबी टक्कर ले रही हैं. ये फिल्में महिलाओं की जिंदगी को परिभाषित करने वाली रुढ़िवादी नजरिये के समांतर एक ताजगी भरा विमर्श पेश कर रही हों. चाहे वह ‘बधाई हो’ या ‘गॉन केश’ जैसी अनूठे सबजेक्ट वाली फिल्म. ‘गॉन केश’ को कॉमर्शियल सफलता भले न मिले लेकिन मगर इसकी सफलता इसी में है यह महिलाओं को सिर्फ सौंदर्य के पैमाने पर नहीं तौलती. उसके बालों को उसके अस्तित्व का सवाल मानने वाले नजरिये के खिलाफ एक सकारात्मक संदेश देती है. यह महिलाओं के वजूद की बात करती है. यह बताती है कि महिलाओं के वजूद को सिर्फ उसके बालों तक महदूद न कीजिये.
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार और संपादक हैं.)