लोकतंत्र में किसी भी विषय पर असहमत होने पर शांतिपूर्ण और अहिंसक तरीके से विरोध प्रकट करने का अधिकार प्रत्येक नागरिक, संगठन और राजनीतिक दल को है लेकिन इस दौरान हिंसा, विशेषकर सार्वजनिक या निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाना, दंडनीय अपराध है. आवश्यकता है कि हिंसक गतिविधियों में लिप्त तत्वों और उनके नेताओं की पहचान की जाये तथा निजी और सार्वजनिक संपत्ति को हुये नुकसान की भरपाई ऐसे लोगों से ही करायी जाये.
सरकार या प्रशासन यदि सार्वजनिक संपत्ति को पहुंची क्षति की भरपाई के लिये कठोर कदम उठाता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि इस तरह के विरोध प्रदर्शन के दौरान निजी और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के मामले में न्यायपालिका का रूख निरंतर ही बहुत सख्त रहा है. न्यायालय ने बार बार कहा है कि आन्दोलनों की आड़ में कोई भी देश को बंधक नहीं बना सकता है और विरोध प्रदर्शन तथा आन्दोलन करने वाले संगठनों और राजनीतिक दलों-चाहें भाजपा हो, कांग्रेस हो या कोई अन्य दल या संगठन हो, को यह ध्यान रखना चाहिए कि सार्वजनिक संपत्ति को पहुंचे नुकसान के लिये उन्हें जवाबदेह बनाया जा सकता है.
शीर्ष अदालत ने इस तरह के आन्दोलनों के दौरान हिंसा और आगजनी की घटनाओं से सार्वजनिक और निजी संपत्ति को होने वाले नुकसान को गंभीरता से लेते हुये 2009 में सुझाव दिया था कि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान से रोकथाम कानून, 1984 में संशोधन करने और इसकी भरपाई के लिये आन्दोलनकारी राजनीतिक दलों और आयोजक नेताओं की जिम्मेदारी भी निर्धारित करने का प्रावधान करने का सुझाव दिया था.
नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में असम से लेकर पश्चिम बंगाल तक हुये विरोध प्रदर्शन के दौरान निजी और सार्वजनिक संपत्ति को बड़े पैमाने पर क्षतिग्रस्त किया गया है. ऐसी स्थिति में आवश्यक है कि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान से रोकथाम कानून के तहत दंगाई के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाये और हिंसा तथा तोड़फोड़ करने वाले तत्वों की जवाबदेही तय कर उनसे राजस्व बकाये के रूप में इस नुकसान की वसूली की जाये.
असम और पश्चिम बंगाल में कई स्थानों पर विरोध जब हिंसक हुआ तो सरकार ने न सिर्फ इंटरनेट सेवा बाधित की बल्कि उसने स्थिति पर काबू पाने के लिये असम के कई इलाकों में कर्फ्यू भी लगाया.
सरकार की इस कार्रवाई को लेकर दलील दी जा रही है कि हांगकांग में कई महीने से विरोध प्रदर्शन हो रहा है लेकिन वहां अभी तक इंटरनेट सेवा बाधित नहीं की गयी है. यह बात एकदम सही है लेकिन यह भी सही है कि हांगकांग में सुरक्षा बलों की घेरेबंदी के बावजूद अभी तक हिंसा, तोड़फोड़ या आगजनी की खबरें सुनने में नहीं आयीं हैं.
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नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे संगठनों और राजनीतिक दलों के साथ ही छात्र संगठनों को भी यह ध्यान रखना होगा कि उनके आन्दोलन में कहीं अराजक तत्व अपनी पैठ बनाकर हिंसा और तोड़फोड़ या आगजनी नहीं कर रहे हैं. इन संगठनों और राजनीतिक दलों की भी यह जिम्मेदारी है कि ऐसे तत्वों से सजग रहें और हिंसा तथा आगजनी के जरिये अराजकता फैलाने वालों की पहचान करने में पुलिस और प्रशासन की मदद करें.
आन्दोलनों के दौरान रास्ते जाम करना या फिर धरना प्रदर्शन करना समझ में आता है, लेकिन पिछले कई सालों से देखा जा रहा है कि इन आन्दोलनों के दौरान तोड़फोड़ और आगजनी जैसी घटनायें बढ़ी हैं.
गुजरात के संपन्न पटेल और पाटीदार समुदाय से लेकर आंध्र प्रदेश के कुप्पा समुदाय और जाट समुदाय के लिये आरक्षण की मांग को लेकर हुये आन्दोलनों में भी हिंसा हुयी और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया. यहां तक कि दिल्ली को जलापूर्ति करने वाली मुनक नहर भी क्षतिग्रस्त करके दिल्ली के लिये पानी का संकट पैदा करने की साजिश की गयी थी.
आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि ये सभी आन्दोलन अचानक ही शुरू होते हैं और चंद दिनों में हजारों करोड़ की सार्वजनिक और निजी संपत्तियों को क्षतिग्रस्त करने के बाद सरकार से आश्वासन मिलते ही शांत हो जाते हैं.
सवाल उठता है कि क्या वास्तव में नागरिकता संशोधन कानून की वजह से समस्या पैदा हो रही है या फिर सुनियोजित तरीके से देश में अस्थिरता पैदा करने के प्रयास किये जा रहे हैं. असम, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और इसके बाद उप्र के अलीगढ़, लखनऊ और आगरा आदि स्थानों पर कानून के विरोध की आड़ में भड़की हिंसा से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो इस संवेदनशील मुद्दे पर चंद स्वार्थी लोग अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना चाहते हैं.
नागरिकता संशोधन कानून में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में उत्पीड़न की वजह से 31 दिसंबर, 2014 तक भारत आये अल्पसंख्यक शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है.
असम में हो रहे विरोध प्रदर्शन से समझा जा सकता है कि वहां की मूल आबादी को आशंका है कि इस प्रावधान की आड़ में बाहरी लोगों को यहां बसाया जा सकता है. हो सकता है कि असम के आन्दोलनकारियों की आशंका सही हो लेकिन जिस तरह से पश्चिम बंगाल में रेलगाड़ियों पर पथराव और रेलवे स्टेशन जलाने के प्रयास की घटनायें हुयी हैं उनसे तो अलग ही संकेत मिलता है. आन्दोलन के दौरान सार्वजनिक और चुन चुन कर निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाना समझ से परे है.
शीर्ष अदालत ने अप्रैल, 2009 में गुज्जर आन्दोलन के मद्देनजर इन आन्दोलनों के दौरान सार्वजनिक और निजी संपत्ति को हुयी क्षति को गंभीरता से लेते हुये सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान से रोकथाम कानून, 1984 में संशोधन करने और इस नुकसान की भरपाई के लिये आन्दोलनकारी राजनीतिक दलों और आयोजक नेताओं की जिम्मेदारी भी निर्धारित करने का प्रावधान इसमे करने का सुझाव दिया था.
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न्यायालय ने आन्दोलन और विरोध प्रदर्शन के दौरान हिंसा और तोड़फोड़ की घटनाओं के मामलों में आरोपियों को जमानत देने से संबंधित इस कानून के कुछ प्रावधानों को सख्त बनाने का सुझाव दिया था.
न्यायालय का मानना था कि सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के मामले में यह माना जाना चाहिए कि आरोपियों ने ही आन्दोलनकारियों को हिंसा और आगजनी करके संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के लिये उकसाया और अदालत में सुनवाई के दौरान उन्हें इस आरोप का प्रतिवाद करने का अवसर मिलना चाहिए.
न्यायालय ने तो ऐसे आन्दोलनों के दौरान पुलिस से वीडियोग्राफी कराने का भी सुझाव दिया है और अब तो प्रत्येक विरोध प्रदर्शन के दौरान धरने पर बैठने वालों और प्रदर्शन करने वालों की वीडियोग्राफी पुलिस की कवायद का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है.
इसलिए पुलिस और सुरक्षा बल ने अगर वीडियोग्राफी की होगी तो असम, पश्चिम बंगाल, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, आगरा और दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय तथा इसके आसपास के इलाकों में हुयी हिंसा में लिप्त तत्वों की पहचान करके उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करना आसान होगा.
शीर्ष अदालत के 2009 के फैसले के छह साल बाद 2015 में गृह मंत्रालय सक्रिय हुआ और उसने इस कानून में प्रस्तावित संशोधनों पर सुझाव मंगाये. गृह मंत्रालय को फरवरी, 2016 तक कानून में प्रस्तावित संशोधनों के बारे में अनेक सुझाव मिल चुके थे. लेकिन इसके बावजूद इस दिशा में कोई ठोस प्रगति नहीं हुयी हे.
ऐसा लगता है कि उच्चतम न्यायालय के इन सुझावों को संप्रग सरकार के बाद राजग सरकार ने भी गंभीरता से लिया ही नहीं और आन्दोलनों के दौरान सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का सिलसिला ब-दस्तूर चलता रहा.
हरियाणा के मिर्चपुर गांव में अगस्त 2010 में दलित परिवार पर हमले की घटना के बाद भडकी हिंसा में भी न्यायालय ने रेलवे और सार्वजनिक परिवहन को हुये नुकसान की वसूली का निर्देश दिया था लेकिन दबंगों को अदालत से सजा मिलने के अलावा और कुछ नहीं हुआ.
ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि यदि विरोध प्रदर्शन और आन्दोलनों के पीछे राजनीतिक दलों की मिलीभगत और सरकारी अमले की, भले ही छोटे स्तर पर, सांठगांठ नहीं हो तो ये आन्दोलनकारी सार्वजनिक और निजी संपत्ति को अपने आक्रोष का निशाना बनाने का साहस नहीं कर सकते हैं.
विरोध प्रदर्शन और आन्दोलनों की आड़ में तोड़फोड़ और आगजनी तथा लूटपाट करने वाले असामाजिक तत्वों के बारे में स्थानीय पुलिस और प्रशासन को जानकारी भी होती है लेकिन शायद राजनीतिक आकाओं के इशारों को देखते हुये ही वे भी नजरें मोड़ लेते हैं.
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नागरिकता संशोधन कानून के प्रावधानों को लेकर जगह जगह हो रही हिंसा से ऐसा लगता है कि यह पूर्व नियोजित है और इसलिए जरूरी है कि सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने, आगजनी करने और लूटपाट करने वाले तत्वों तथा इन्हें पनाह देने वाले राजनीतिक नेताओं और पुलिस तथा प्रशासनिक नौकरशाहों की पहचान कर उनकी जिम्मेदारी निर्धारित की जाये तथा इस नुकसान की भरपाई उनसे ही करायी जाये.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)