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Friday, 22 November, 2024
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सपा-बसपा गठबंधन: मृत्युलेख लिखने की जल्दबाजी न करें!

अखिलेश यादव ने जिस तरह से सार्वजनिक बयानबाजी से खुद को बचाया है, यह न केवल उनकी राजनीतिक सूझबूझ को दर्शाता है, बल्कि ये गठबंधन के बने रहने की संभावनाओं का संकेत भी है.

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बसपा प्रमुख मायावती के हालिया बयान से सपा-बसपा गठबंधन पर संकट मंडराने लगा है. विपक्ष की मानें तो गठबंधन टूट चुका है. लोकसभा चुनावों में भाजपा के प्रचार-मंडल की भूमिका में रहा मीडिया ‘सूत्रों के हवाले से’ तरह-तरह के समाचार गढ़ रहा है. विश्लेषक इसे मंडल राजनीति का अंत मानकर लेख लिख रहे हैं. तो अन्य विश्लेषक इसे जाति की राजनीति का खात्मा बता रहे हैं. सोशल मीडिया में भी लोग सक्रिय हैं. कुछ कह रहे हैं कि गठबंधन तोड़ने का संकेत देकर मायावती ने गेस्ट हाउस कांड का बदला लिया है. कुछ के अनुसार बसपा प्रमुख का प्रधानमंत्री बनने का सपना टूट चुका है, इससे खीझकर वे गठबंधन से किनारा कर रही हैं.

इन दिनों सभी राजनीतिक दल प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चलाए जा रहे हैं. उनके फैसलों के पीछे न तो कोई विचारधारा होती है, न ही जनसरोकार. छोटे-छोटे, अल्पकालिक हितों को लेकर गठबंधन होते हैं. बसपा ऐसे दलों में अपवाद नहीं है. सुश्री मायावती का बयान तात्कालिकता से प्रेरित हो सकता है. बसपा प्रमुख की कार्यशैली को जानने वालों के लिए यह बयान चौंकाने वाला नहीं है. लेकिन यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि लोकसभा चुनावों के दौरान अखिलेश यादव और मायावती ने जिस परिपक्वता का परिचय दिया था और चुनावों में बसपा से आधी सीटे मिलने के बावजूद अखिलेश यादव ने जिस तरह से सार्वजनिक बयानबाजी से खुद को बचाया है. यह न केवल उनकी राजनीतिक सूझबूझ को दर्शाता है. बल्कि ये गठबंधन के बने रहने की संभावनाओं का संकेत भी है.

उपचुनाव अलग लड़ने से कमजोर होगा गठबंधन

गौरतलब है कि बसपा प्रमुख ने पिछले चुनावों के दौरान अखिलेश यादव के साथ बने संबंधों की न केवल सराहना की है, अपितु सुख-दुख में साथ बने रहने का आश्वासन भी दिया है. उन्होंने अखिलेश को यह सलाह भी दी है कि वे पार्टी के अंदर चल रही भितरघात से निपटें. इसलिए यह कहना जल्दबाजी होगा कि सुश्री मायावती ने गठबंधन तोड़ने का फैसला कर लिया है. हालांकि उपचुनाव अकेले लड़ने का फैसला गठबंधन-मर्यादा के विरुद्ध जाता है. उपचुनावों में सपा-बसपा उम्मीदवार आमने-सामने होंगे तो एक-दूसरे पर वार करेंगे ही. मीडिया उन्हें नमक-मिर्च लगाकर पेश करेगा. ऐसी स्थिति में, लोकसभा चुनावों के दौरान बने राजनीतिक और सामाजिक सौहार्द्र पर पानी फिर सकता है. बसपा प्रमुख का बयान अखिलेश पर दबाव बनाने तथा अपने कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाने की रणनीति भी हो सकती है. मुमकिन है कि ऐसा विधानसभा चुनावों के दौरान ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया जा रहा हो.


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अतः जब तक गठबंधन समाप्त होने का औपचारिक ऐलान नहीं होता, उम्मीद की जानी चाहिए कि सपा-बसपा उसकी मर्यादा से बंधे हैं.

बसपा प्रमुख को शिकायत है कि अखिलेश सपा का कैडर वोट बसपा उम्मीदवारों को ट्रांसफर कराने में असमर्थ रहे हैं. यह आशंका सही हो सकती है. सपा नेताओं का एक वर्ग, जिनमें अखिलेश यादव के परिजन भी सम्मिलित हैं. उन्हें असफल होते देखना चाहता है. यह भी संभावना है कि सपा के परंपरावादी मतदाताओं एक वर्ग अखिलेश यादव द्वारा मायावती को संभावित प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करने से चिढ़ा हुआ हो. परंतु बसपा प्रमुख को यह भी समझना चाहिए कि यदि अखिलेश यादव सपा के वोट को गठबंधन के पक्ष में लाने में नाकाम रहे हैं तो दलितों का भी एक हिस्सा है, जो स्वयं मायावती से छिटक चुका है.

मायावती का बयान उस खबर, जो अफवाह भी हो सकती है, के एक दिन बाद आया है. जिसमें बताया गया था कि सपा का नेतृत्व स्वयं मुलायम सिंह यादव संभालेंगे. अपने विनम्र और संजीदा व्यवहार के कारण अखिलेश ने मायावती का दिल जीत लिया था. यदि सपा का नेतृत्व उनके हाथों से छिटकता है. तो सुश्री मायावती के पुराने घाव उभर सकते हैं. ऐसी अवस्था में उन्हें गठबंधन को उसी रूप में बनाए रखने में परेशानी हो सकती है.

बहरहाल, आगामी उपचुनावों में स्वतंत्र रूप से उतरने का सुश्री मायावती का बयान, अदूरदर्शी और जल्दबाजी भरा माना जाएगा. इन चुनावों में विपक्ष जिस तरह से धराशायी हुआ है और प्रियंका के पार्टी महासचिव के तौर पर मैदान में सीधे उतरने के बावजूद कांग्रेस उत्तरप्रदेश में अपनी जड़ें जमाने में नाकाम रही है. उसकी वजह से संभावना है कि विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सहित और भी दल गठबंधन में साथ आने को विवश होंगे. उनमें से एक ओमप्रकाश राजभर भी हैं, जिन्हें योगी आदित्यनाथ ने चुनाव जीतते ही मंत्रीपद से हटा दिया है. मायावती के बयान से छोटे दलों को भविष्य की रणनीति तय करने में उलझन हो सकती है. गठबंधन टूटने की स्थिति में अगर कांग्रेस सपा या बसपा में से किसी एक के साथ समझौता करती है. तो उसमें भी सफलता की संभावना बहुत कम होगी.

अच्छा होता मायावती सपा का वोट बसपा को ट्रांसफर न होने तथा भितरघात से निपटने की बात सार्वजनिक रूप से कहने के बजाय, गठबंधन की बैठक में कहतीं. गठबंधन का बने रहना केवल भाजपा को हराने के लिए जरूरी नहीं है. अपितु लोकतंत्र की रक्षा और सांप्रदायिकता तथा फासीवाद के बढ़ते खतरों को रोकने के लिए भी उसका महत्व है.

ईवीएम को लेकर आक्रामक नहीं है बीएसपी

अपने बयान में बसपा प्रमुख ने ईवीएम में गड़बड़ी को भी दोषी माना है. पिछले चुनावों में 370 सीटों पर पड़े मतों और गिने गए मतों की संख्या का अंतर स्वयं निर्वाचन आयोग की बेवसाइट के हवाले से सामने आया है. यह बेहद गंभीर मामला है. निर्वाचन आयोग का दायित्व केवल निष्पक्ष चुनाव करा देना नहीं है, अपितु चुनावी प्रक्रिया पर नागरिकों का विश्वास बनाए रखना भी है. पिछले कुछ वर्षों में ईवीएम की प्रामाणिकता को लेकर लगातार सवाल उठे हैं. दूसरी ओर आयोग बिना किसी ठोस प्रमाण के, ईवीएम के समर्थन में बयान देता आया है. अच्छा होता कि बसपा प्रमुख 370 सीटों पर चुनावी मतों के अंतर को गठबंधन के भीतर उठातीं. उसके बाद दूसरे विपक्षी दलों के साथ मिलकर आंदोलन की सम्यक रणनीति तैयार होती.


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कुल मिलाकर अकेले उपचुनाव लड़ने का बसपा प्रमुख का निर्णय सुविचारित नहीं है. यह न केवल गठबंधन के लिए घातक है, अपितु सपा के साथ-साथ उनके अपने दल के हितों के भी विरुद्ध है. इससे उन लोगों को भी धक्का पहुंचा है जो सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतों से लड़ने के लिए गठबंधन को मजबूत और तैयार देखना चाहते हैं.

(साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन करने वाले ओमप्रकाश कश्यप की लगभग 35 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.)

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