यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता का मामला इस बार काफी गंभीरता के साथ आया है. संविधान सभा में इस पर हुई बहस के बाद, इस मामले में इतनी सीरियसनेस पहली बार दिख रही है. इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि अभी तक राजनीतिक प्रचार और सामाजिक चर्चाओं में रहने वाले इस मुद्दे पर सरकार ने पहल की है. केंद्रीय कानून मंत्रालय की पहल के बाद लॉ कमीशन ने इस मामले पर जनता और संस्थाओं की राय मांगी है.
लोकसभा में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी डीएमके, जिसकी तमिलनाडु में सरकार है, ने इस प्रसंग में कुछ ऐसे सुझाव दिए हैं, जिससे इस मामले को हल करने का रास्ता खुल सकता है. डीएमके ने लॉ कमीशन को पत्र लिखकर एक ऐसा रास्ता सुझाया है जिससे यूनिफॉर्म सिविल से जुड़ा सबसे विवादित मुद्दा हल हो सकता है और देश की धार्मिक और सामाजिक विविधता भी बनी रह सकती है. साथ ही, राज्यों के अधिकार भी सुरक्षित रह सकते हैं.
सिविल कोड नियमों और कानूनों की एक व्यवस्था है, जो लोगों के सामाजिक और निजी जीवन को नियंत्रित और व्यवस्थित करता है. सिद्धांत रूप में इसका उद्देश्य मुख्य रूप से शादी, तलाक, तलाक के बाद गुजारा, विरासत, पैतृक संपत्ति का बंटवारा जैसे मुद्दों का नियमन है. यूनिफॉर्म सिविल कोड का उद्देश्य इन मामलों में एकरूपता लाना है.
लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में इसका इतना व्यापक अर्थ नहीं है.
बीजेपी या इससे पहले जनसंघ या रामराज्य परिषद या हिंदू महासभा जब इन मुद्दों को जनता के बीच ले जाती थी (या ले जाती है), तो वह ये बताती थी कि हिंदू सामाजिक जीवन तो बेहद सेक्युलर कानूनों से बंधा है, लेकिन मुसलमानों का तमाम तरीके से तुष्टिकरण होता है. उन्हें फटाफट तलाक लेने की छूट है (थी). वे चार शादियां कर सकते हैं और (इस कारण) वे ढेर सारे बच्चे पैदा करते हैं. बीजेपी के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड “मुस्लिम तुष्टिकरण” के आरोपों से जुड़ा मुद्दा है. यूनिफॉर्म सिविल कोड का विषय इससे पहले जोरदार तरीके से तब भी उठा था, जब शाहबानो प्रकरण में सरकार ने गुजारा भत्ता देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था.
तलाक से जुड़ा मामला अब सैटल हो गया है क्योंकि सरकार ने कानून बनाकर तीन तलाक की फटाफट व्यवस्था पर पाबंदी लगा दी है. इसके बाद यूनिफॉर्म सिविल कोड का विवाद मुख्य रूप से मुसलमानों पर लागू शरियत कानून, 1937 में चार शादियों की छूट वाली व्यवस्था को लेकर है.
इस संदर्भ में लॉ कमीशन को लिखे डीएमके के पत्र में एक समाधान है, और इसके लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड लाने की कोई जरूरत नहीं है. इसे लागू करने से चार शादियों वाली व्यवस्था भी खत्म हो जाएगी और पर्सनल लॉ की विविधता भी बनी रहेगी.
डीएमके का सुझाव है कि सरकार पर्सनल लॉ के दायरे में ही जरूरी संशोधन करके बहुपत्नी या बहुविवाह सिस्टम को रोक सकती है. इंडियन पीनल कोड यानी भारतीय दंड संहिता की धारा आईपीसी-494 के तहत एक पत्नी के रहते दूसरी शादी करना कानूनी अपराध है और इसके लिए सात साल कैद तक की सजा है. डीएमके ने इसका जिक्र करके संकेत दिया है कि कानूनी प्रावधान पहले से मौजूद है. डीएमके ने लिखा है – “बहुविवाह जैसी सामाजिक बुराइयों को रोकने के लिए (जो आईपीसी के तहत पहले से ही अपराध है) राज्य या केंद्र सरकार पर्सनल लॉ के दायरे में ही जरूरी संशोधन ला सकती है और इसके लिए पर्सनल लॉ को पूरी तरह से खत्म करने की जरूरत नहीं है.”
साथ ही दंड प्रक्रिया संहिता यानी सीआरपीसी धारा 125 में तलाक के बाद महिला, नाबालिग बच्चों और आश्रित माता-पिता के अधिकारों को संरक्षित किया गया है. इन कानूनी व्यवस्थाओं के जरिए सामाजिक मामलों को नियमित किया जा सकता है और इसके लिए पर्सनल लॉ को पूरी तरह से खारिज या निरस्त करने की जरूरत नहीं है.
सिविल कानूनों और प्रावधानों को एक समान रूप से सब पर लागू करने यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड का मामला दरअसल संविधान सभा के सामने भी आया था. इस चर्चा के दौरान ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. इसलिए ये जानना आवश्यक है कि संविधान सभा में डॉ. आंबेडकर ने क्या कहा था.
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उन्होंने कहा था- “मुझे लगता है कि वे अनुच्छेद 35 (जो आगे चलकर संविधान में अनुच्छेद 44 बना) को लेकर बहुत ज्यादा मतलब लगा रहे हैं. इसमें सिर्फ ये प्रस्तावित किया जा रहा है कि राज्य (इसका मतलब यहां केंद्र सरकार से है) देश के नागरिकों के लिए एक सिविल कोड लाएगा. इसमें ये नहीं कहा गया है कि कोड बन जाने के बाद राज्य सभी नागरिकों पर इसे इसलिए जबरन थोप देगा क्योंकि वे नागरिक हैं.” जाहिर है कि बाबा साहब सिविल कोड को स्वैच्छिक बनाना चाहते थे, यानी ये उन्हीं पर लागू होगा, जो इसे मानने के लिए राजी होंगे. वे इसे एक आदर्श व्यवस्था के रूप में देख रहे थे.
जाहिर है कि डॉ. आंबेडकर इसे आम सहमति से लागू करने की ही परिकल्पना कर रहे थे. जबकि अभी की चर्चा एक समान नागरिक कानून को हर किसी पर थोप देने के संदर्भ में चल रही है. डीएमके ने बाबा साहब के इस बयान को सामने रखकर बीजेपी को याद दिलाया है कि वह जिस रास्ते पर चलने की सोच रही है, वह संविधान सभा की भावना के खिलाफ होगा.
इस संदर्भ में डीएमके ने अनुच्छेद 25 और अनुच्छेद 29 के तहत नागरिकों को प्राप्त धार्मिक स्वतंत्रता का जिक्र कर स्पष्ट कर दिया है कि इस विवाद में उसका पक्ष क्या है. डीएमके का मानना है कि धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता से न सिर्फ संविधान को मजबूती मिलता है बल्कि ये लोगों के बीच के सद्भाव को भी बढ़ाता है.
डीएमके की एक चिंता ये भी है कि केंद्र सरकार इस जरिए से राज्यों के अधिकार क्षेत्र में भी अतिक्रमण करना चाहती है क्योंकि राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का दायरा पूरा देश है. इसके तहत अगर यूनिफॉर्म सिविल कोड जैसी कोई पहल होती है, तो राज्य सरकारों के लिए अपने यहां की विविधता के हिसाब से नियम बनाने का अधिकार सीमित हो जाएगा, जबकि लोगों के ज्यादा जुड़े होने के कारण राज्य सरकारें ऐसे मामलों में नियम-कानून बनाने में ज्यादा समर्थ हैं.
डीएमके ने ये भी बताया है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड को पूरे देश पर लागू करना संभव ही नहीं है क्योंकि हिंदू समुदाय खुद भी बहुत विविधतापूर्ण है और एक नियम से सबको हांकना संभव नहीं है. साथ ही संविधान भी इसकी इजाजत नहीं देता. डीएमके ने लिखा है – “असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के आदिवासी इलाकों को संविधान की अनुसूची VI और अनुच्छेद 371 के तहत शादी, तलाक और सामाजिक परंपराओं में स्वायत्तता मिली हुई है, जिसे यूनिफॉर्म सिविल कोड से छीना नहीं जा सकता.” साथ ही हिंदू विरासत कानून 1956, आदिवासियों पर लागू नहीं होता, बेशक उनमें से काफी लोग हिंदू धर्म को मानते हैं. जाहिर है कि सभी हिंदुओं पर भी यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू नहीं हो पाएगा.
साथ ही डीएमके ने लिखा है कि भारत में जातीय उत्पीड़न और भेदभाव को देखते हुए इस समय ज्यादा जरूरत “यूनिफॉर्म कास्ट कोड” लाने की है.
डीएमके भारत में सामाजिक और लैंगिक न्याय के क्षेत्र में अग्रणी रही है. अन्नादुरै ने मुख्यमंत्री रहते हुए सेल्फ रिस्पेक्ट मैरिज को कानूनी रूप दिया, जिसे संपन्न कराने के लिए पुजारी की जरूरत नहीं होती. इस कानून को सुप्रीम कोर्ट ने भी सही ठहराया है. वर्तमान मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने सभी जातियों और महिलाओं को भी मंदिरों में पुजारी बनाया है और इस तरह से सामाजिक और नागरिक जीवन में समानता लाने की कोशिश की है. यूनिफॉर्म सिविल कोड के मामले में सरकार को डीएमके की बातों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए.
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः ऋषभ राज)
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