प्रोफेसर डी.एल शेठ के दिवंगत होने के साथ इस देश में वह सेतु टूट गया जो समाज-विज्ञान की सत्वर सैद्धांतिकी को समाज और राजनीति के मोर्चे पर चले रहे अग्रगामी संघर्षों से जोड़ा करता था. भारत की देशज आधुनिकता के वे महत्वपूर्ण सिद्धांतकार थे— एक ऐसे संस्था-निर्माता जिसे भारतीय अकादमिक जगत की विचित्रताओं की गहरी समझ थी, देश के तमाम आंदोलनजीवियों का दोस्त-रहबर और पीर, एक ऐसा जन-बुद्धिजीवी जो सबकी चुनी हुई चुप्पियों के वक्त भी बोलता था. उनका ना रहना मेरे लिए बड़ी निजी किस्म की क्षति है क्योंकि उनके साथ हुई एक मुलाकात ने मेरी जिंदगी की दिशा बदली थी और मैं विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) पहुंचा था जिसके वे संस्थापक सदस्य थे. सीएसडीएस में मेरे जो दो दशक बीते उस पूरे वक्त वे मेरे रहनुमा रहे.
धीरूभाई उन विरले विद्वानों में एक थे जो भाव-प्रवण राजनीतिक आदर्शवाद को सामाजिक यथार्थवाद से जोड़ते हैं. वक्त बेहतर हो और समाज अपने स्वरूप में धीर-स्थिर हो चला हो तब भी ऐसा संतुलन साध पाना आसान नहीं होता. भारत जैसे देश के उत्तर-औपनिवेशिक संदर्भ में तो ऐसा कर पाना और भी ज्यादा मुश्किल मेहनत और जुझारूपन की मांग करता है.
आपको हमेशा एक छकाने वाली, तकरीबन नामुमकिन सी पिच पर सीधे बल्ले से खेलना होता है जहां आपके विकेट कभी भी उखड़ सकते हैं. खूब मेहनत और जुझारूपन दिखाने के बावजूद आप आखिर पाते हैं कि आप कुछ खास नहीं कर पाये, आपने ज्यादातर तो पहले से खींचे हुए प्रदत्त सिद्धांतों के दायरे में रहकर भारतीय सामाजिक-राजनीतिक अनुभवों की छानबीन की है. अपनी गढ़ी हुई शब्दावली में भारतीय अनुभवों का बोध तैयार करने की चाहत से भरे सिद्धांतकारों को, जिनका जोर दैनंदिन की सच्चाइयों, अपने समाज की सफलता और विफलताओं की व्याख्या मौलिक ढंग से करने पर होता है, रास्ते तलाशने होते हैं कि गेंद के उछाल लेने या फिरकी मारने से पहले ही उस पर बल्ला लगा दें.
शायद यही वजह रही जो धीरूभाई ने हमेशा आड़े-तिरछे बल्ले से खेला और उनकी इस बात ने बड़े लंबे समय तक मुझे विस्मित किया, मेरी उत्सुकता को जगाये रखा. उन्हें चिंतन की रची-सजी परिपाटियों को एकबारगी बिखेर देने, विचार-तंतुओं के बीच बेखौफ मेल बैठाने और अनपेक्षित जान पड़ते परिणामों के भीतर किसी निरंतरता को खोज निकालने में मजा आता था.
मिसाल के लिए, वे कहते थे कि लफड़ा शब्द पर फ्रेंच के ला अफेयर शब्द की छाया है ( या फिर ला अफेयर शब्द ही लफड़ा की छाया लेकर बना है). कोई शक नहीं कि ये एक जोखिम भरी रणनीति है, सिद्धांतों की दुनिया में ऐसा करना बहुत कुछ वैसा ही है जैसे कि क्रिकेट में रिवर्स स्विंग होता है. सिद्धांत को उपलब्ध साक्ष्यों के आगे छलांग लगाना होता है, पुरानी और जानी-पहचानी अवधारणाओं से नये काम लेने होते हैं और नयी अवधारणाएं चुटकी बजाते गढ़नी होती हैं. ये तरकीब हर बार कारगर नहीं होती. उनका सैद्धांतिक आकलन जब जमीनी साक्ष्य से मेल नहीं खाता था, चुनाव के नतीजों को लेकर उनकी भविष्यवाणियां सच नहीं होती तो मैं उनकी चुटकी लिया करता था. लेकिन हैरत में डालने वाली बात ये है कि उनका कहा अक्सर सच निकलता और एकदम सटीक बैठता था. धीरूभाई ने भारत की सच्चाइयों को विरासत (और अपने अधिकांश में पश्चिमी) में मिले समाज-विज्ञान से, कठोर जमीनी यथार्थवाद को रोमानी आदर्श से, सिद्धांत को साक्ष्य से और रोजमर्रा की घटनाओं को उनके वृहत्तर परिप्रेक्ष्य से जोड़ा.
उन्होंने हवामहल में बैठकर बनायी जाने वाली सैद्धांतिकी को सामाजिक-राजनीतिक जुझारूपन से जोड़ा. ये जुड़ाव सिर्फ उनके लेखन तक सीमित नहीं था. सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं और समाज विज्ञानियों के बीच सतत संवाद के निमित्त बनायी गयी एक अनूठी संस्था लोकायन के प्रेरणा-स्रोत के रूप में प्रोफेसर रजनी कोठारी और विजय प्रताप के साथ धीरूभाई का नाम हमेशा याद किया जायेगा.
लोकायन के इस संवाद ने हर्ष सेठी और शिव विश्वनाथन जैसे कुछ उत्कृष्ट कोटि के समाज-विज्ञानी और मेधा पाटकर, स्मितु कोठारी, रजनी बख्शी तथा राजेन्द्र रवि जैसे प्रखर चिंतनशील कार्यकर्ताओं को गढ़ने में भूमिका निभायी. प्रोफेसर रजनी कोठारी तथा सीएसडीएस के अन्य सहकर्मियों के साथ धीरूभाई इंदिरा गांधी की लगायी इमरजेंसी की मुखालफत में सक्रिय थे. साल 1984 में सिख-विरोधी दंगे की जांच-परख और उसके दोषियों का पर्दाफाश करने में भी उन्होंने भूमिका निभायी. वे पीपल्स यूनियम ऑव सिविल लिबर्टी (पीयूसीएल) के अध्यक्ष भी रहे.
यह भी पढ़ें: असलियत को कबूल नहीं कर रही मोदी सरकार और भारतीय राज्यसत्ता फिर से लड़खड़ा रही है
जाति आधारित कोटा के दृढ़ पैरोकार
सार्वजनिक रीति-नीति में किये अपने एक खास हस्तक्षेप से उनकी जन-बुद्धिजीवी की भूमिका सबकी नज़रों में आयी. यह खास हस्तक्षेप था उनका जाति आधारित कोटा के पक्ष में खड़े होना, इसके लिए तर्क गढ़ना. वे उन चंद समाजविज्ञानियों में एक थे जो मंडल-1 तथा मंडल-2 के वक्त ओबीसी आरक्षण के पक्ष में खड़े हुए और इसके समर्थन तथा बचाव में महीन तर्क गढे.
सारी सच्चाइयों को वे जाति के चश्मे से देखते हों- ऐसी बात नहीं. मजेदार बात ये है कि बहुत से समाजविज्ञानी जिन्हें लगता था कि भारत के गांव तो जाति की धुरी पर बने हुए हैं, मंडल की बहस के दौरान पाला बदलकर ये कहने लगे थे कि आरक्षण का आधार जाति नहीं हो सकती. दूसरी तरफ धीरूभाई थे जो सामाजिक सच्चाइयों को गढ़ने में वर्ग और लिंग की भूमिका स्वीकार करने के बावजूद इस बात को लेकर दृढ़मत थे कि आरक्षण की नीति जाति के आधार पर तय की जानी चाहिए. बीते वक्त को याद करें तो दिखेगा कि मंडल की बहस के दिनों में प्रोफेसर धीरूभाई शेठ ही थे जिन्होंने भारतीय समाज विज्ञान की लाज रख ली. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के वे प्रथम (समाज विज्ञानी) सदस्य थे.
उनके भीतर राजनीतिक कार्यकर्ता सा जुझारूपन चाहे जितना रहा हो लेकिन सियासी सहीपने से उनका रिश्ता छत्तीस का था. वे वाम, सेक्युलर तथा प्रगतिशील तर्ज के बुद्धिजीवियों के सोच पर अक्सर चुटकी लेते थे. गांधीवाद की एक धारा सर्वसत्तावादी भी है, वे इस धारा को गांधीवादी पोल-पोटिज्म कहकर खारिज करते थे और इसी तर्ज पर आरएसएस के विचारकों को भी. विचारधाराओं के जो महा-विभावन हैं, मनुष्य के व्यवहारों को लेकर महा-आख्यानों से निकलती मान-मूल्यों की जो बड़ी-बड़ी मान्यताएं हैं और उनमें हाड़-मांस के व्यक्ति की इच्छा और संकल्प के प्रति जो नकार का भाव है— उन तमाम चीजों को धीरूभाई शंका की नज़र से देखते थे.
इसी कारण हमारे अपने वक्त में जो विचाराधारात्मक द्वैत मौजूद है, उससे परे जाकर वे सोच सके. वे सेक्युलरिज्म की आलोचना करते हुए अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा में सोच सकते थे, नागरिक अधिकारों और विविधता के पक्षधर होने के साथ-साथ वे इसका मेल राष्ट्र-राज्य, राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रीय सुरक्षा से बैठा सकते थे. उनकी रचनात्मक प्रतिभा जाति को कोई ठोस, ठहरी और सारवादी चीज नहीं मानती थी और ये बात भी सच है कि ये मान्यता जाति आधारित आरक्षण की पैरोकारी में उनके तर्क गढ़ने के आड़े नहीं आती थी. उन्हें इस बात की परख थी कि लोकतंत्र में जमीनी स्तर के आंदोलन ही सबसे ज्यादा प्रमुख हैं लेकिन साथ ही मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के महत्व पर उनका अडिग विश्वास था. वे वैश्विक स्तर पर उदारवादी लोकतंत्र की आलोचना को प्रस्तुत थे तो इस बात के पैरोकार भी कि हमारे अपने सदर्भों में उदारवादी लोकतंत्र की संस्थाओं की जड़ें और ज्यादा गहराई से जमनी चाहिए. वे राजनीतिक वैश्वीकरण की आलोचना में सोच सकते थे और साथ ही आर्थिक वैश्वीकरण, बाजार तथा उपभोक्तावाद से उभरती संभावनाओं को सराह भी सकते थे.
धीरूभाई के साथ बहस में उतरने का मतलब था लगातार चलने वाले द्वंद के लिए कमर कसना, विचारशीलता के आंगन में नये प्रयोगों के लिए अपने को तैयार रखना जहां विचारधाराओं की नींव पर बैठी तमाम निश्चितताओं को चुनौती दी जानी है और विचारधाराओं पर कायम तमाम मॉडल्स की बखिया उधेड़ी जानी है.
जैसे इतिहास के सान पर चढ़ते ही विचारधारात्मक परिकथाओं का दम निकल जाता है वैसे ही धीरूभाई शेठ के चिंतन की कसौटी पर ऐसी परिकथाओं की कलई खुल जाती थी.
यह भी पढ़ें: वीरा साथीदार: जिन्होंने थिएटर के जरिए 40 सालों तक जातिगत अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ी
हर कदम पर मेरे रहबर
कर्म और चिंतन को साथ जोड़ने की उनकी शक्ति का साकार रूप देखना हो तो उनके संस्था-निर्माण के कामों पर नज़र डालना चाहिए. वे सीएसडीएस के संस्थापकों में थे, इस संस्था के निदेशक रहे और लंबे समय तक इसके बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के सदस्य रहे. लेकिन, इन औपचारिक पदों पर होने के तथ्य का उल्लेख उनके व्यक्तित्व की बस हल्की सी झांकी देता है. यह कहना कहीं ज्यादा ठीक होगा कि वे सीएसडीएस नाम के विचार के मूर्तमान रूप थे.
सीएसडीएस नये विचारों और नव-चिंतकों को साथ लेकर किस तरह निरंतर जीवंत बना रहे, ये सोच उनके सपनों को रूप देता था, उन्हें योजना बनाने और रणनीति तय करने के लिए सतत प्रेरित करता था. उनकी ऐसी ही एक योजना में शामिल था मुझे सीएसडीएस लाना. उनसे मेरी भेंट 1992 में शिमला के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज के एक सेमिनार में हुई थी. उस वक्त मैं पंजाब युनिवर्सिटी, चंडीगढ़ में था. मेरी पेशेवर और निजी जिंदगी में वो संक्रमण का दौर था. निर्गुण-निराकार राजनीतिक दर्शन के अध्ययन-अध्यापन से जी उकता चुका था और सोच रहा था कि मोटी-मोटी किताबों के भीतर छपे बेजान शब्दों की इस दुनिया से कुट्टी करके अब अपने गांव जा बसूं.
प्रोफेसर शेठ सरीखी हस्ती से भेंट मेरे लिए एक बड़ी बात थी. आश्चर्यजनक तौर पर वे सहज ही उपलब्ध थे, लंबे समय तक बात करने के लिए हमेशा तैयार प्रोफेसर शेठ चाहते थे कि चुनाव-सर्वेक्षणों में मेरी जो रूचि है, वह ठोस रूप ले और उससे कुछ महत्वपूर्ण निकलकर सामने आये जबकि मेरे दोस्तों को लगता था कि मेरा ऐसा करना कीचड़ में उतरना कहा जाएगा. मुलाकात के बाद के चंद महीनों में धीरूभाई ने लगातार मुझे ये समझाया कि पढ़ाई-लिखाई का काम छोड़ना ठीक नहीं. उन्होंने ये भी कहा कि तुम्हें सीएसडीएस में एक सेमिनार देना है. उस सेमिनार के बाद ही निमंत्रण आया कि सीएसडीएस की फैकल्टी के रूप में ज्वाइन कर लीजिए. एक बार सीएसडीएस आ गया तो वे इलेक्शन स्टडी प्रोग्राम को फिर से शुरू करने के काम में वे मेरे रहबर बने और इस प्रयास को सहारा देने वाले मजबूत स्तंभ के रूप में खड़े रहे.
सीएसडीएस में लोकनीति नाम से तुलनात्मक लोकतंत्र से संबंधित एक रिसर्च प्रोग्राम चलता है. यह राजनीति विज्ञानियों के साथ-सहकार का अब तक कायम सबसे पुराना नेटवर्क भी है. वे ही लोकनीति के प्रेरणा स्रोत थे.
मैं जब पूर्णकालिक राजनीति के मैदान में कूद पड़ा तो मैंने उनसे एक बार फिर सलाह मशविरा किया. इस बार उन्होंने मुझे नहीं रोका लेकिन सलाह दी कि ‘लिखते रहना, छोड़ना मत’. बीते साल उनसे मुलाकात हुई तो मैंने उन्हें अपनी किताब मेकिंग सेंस ऑफ इंडियन डेमोक्रेसी की प्रति भेंट की. वे बहुत कमजोर हो चले थे, लगभग निस्तेज लेकिन किताब की प्रति हाथ में लेते हुए उनकी आंखों में एक चमक कौंधी, वही चमक जो धीरूभाई होने की खास पहचान हुआ करती थी.
(योगेंद्र यादव स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: बंगाल ने भाजपा के अश्वमेध यज्ञ को रोक दिया, आखिरकार भारत को एक अवसर हाथ लगा है