जब से कन्नौज रैली में समाजवादी पार्टी की सांसद डिंपल यादव ने मायावती के पैर छुये हैं, तब से कुछ लोगों में बौखलाहट पैदा हो गयी है. शिवपाल यादव से लेकर बीजेपी नेता नरेश अग्रवाल तक ने इस पर टिप्पणियां की हैं. किसी को ये पसंद नहीं आ रहा है कि डिंपल यादव ने मायावती के पैर छू लिए और मायावती ने उनके सिर पर हाथ रखकर उन्हें आशीर्वाद दे दिया.
सोशल मीडिया में समाज का असली चेहरा कई बार ज्यादा साफ नजर आता है. वहां इसे लेकर काफी मजाक बनाए गए. फेसबुक पर नमो- वायस ऑफ इंडिया पेज पर, जिसके एक लाख से ज्यादा फॉलोवर हैं, पोस्ट किए गए एक मजाक में डिंपल यादव अपने पति और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से कहती दिखाई गई हैं कि – ‘कितनी बार मायावती के पैर छुआओगे मुझसे- भाड़ में जाए ऐसा प्यार.’ इस तस्वीर को 17 मई तक 11,000 से ज्यादा लोगों ने शेयर किया है.
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कन्नौज रैली के बाद अखिलेश यादव व डिंपल यादव द्वारा चैनलों को दिये गये लगभग हर इंटरव्यू में उनसे पैर छूने को लेकर बार-बार सवाल पूछा जा रहा है. तभी से मीडिया चैनल अपने प्रोगाम में इस पर खूब चुटकिया ले रहे हैं. तो भाजपा आईटी सेल द्वारा भी सोशल मीडिया पर इस मुद्दे को लेकर खूब मीम शेयर किये जा रहे हैं.
डिंपल यादव द्वारा मायावती के चरण स्पर्श पर हंगामा क्यों?
आखिर अपने से लगभग दोगुनी उम्र की महिला नेता, एक राष्ट्रीय पार्टी की अध्यक्ष और चार बार की यूपी की मुख्यमंत्री मायावती का चरण स्पर्श करने से किसी को भी दिक्कत क्यों होनी चाहिए. अखिलेश यादव मायावती को बुआ कहते रहे हैं. इस नाते भी अगर डिंपल उनके पैर छूती हैं, तो ये सामान्य बात है. भारतीय राजनीति में तो अक्सर परस्पर विरोधी दलों के नेता भी अपने से बड़े नेताओ को इस तरह आदर देते रहे हैं. इससे पहले जब तेजस्वी यादव ने मायावती के जन्मदिन पर उनके पैर छूकर आशीर्वाद लिया था, और सोशल मीडिया पर तस्वीर पोस्ट की थी, तब भी सोशल मीडिया में खूब मजाक उड़ाया गया था.
तो दिक्कत कहां है?
दरअसल भारतीय समाज में चातुर्वर्ण व्यवस्था में शूद्र सबसे नीचे रहे हैं. दलित जातियों को वर्ण व्यवस्था से बाहर, पंचम या बाह्य या अस्पृश्य माना जाता है. जातिवादी भारतीय समाज में पिछड़ी जातियो को समाज में भेदभाव और उत्पीड़न तो झेलना पड़ा, श्रम के काम उनके हिस्से आए और शिक्षा से उनकी दूरी भी रही. लेकिन वे छुआछूत के शिकार नहीं हुए. ये बात उन्हें दलित जातियों से ऊपर होने का एहसास देती हैं. इसलिए हम पाएंगे कि दलित उत्पीड़न में ओबीसी या पिछड़ी जातियों के लोग भी कई बार शामिल होते हैं.
सपा और बसपा के करीब आने से दलितों और पिछड़ों में बनी एकता
लेकिन 1993 में जब उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का मुलायम और कांशीराम के नेतृत्व में गठबंधन हुआ, तो ये देश के सबसे बड़े राज्य में सिर्फ दो पार्टियों का गठबंधन नहीं था. ये दलितों और पिछड़ों के बीच भी गठबंधन था. इस तरह उन्हें पुरानी कड़वाहट को भुलाकर एक साथ आने का पहली बार मौका मिला था. इसका परिणाम ये रहा कि उस समय इस गठबंधन ने भाजपा की राम लहर को थाम दिया था. लेकिन ये गठबंधन 1995 में टूट गया. इसका खामियाजा इन दोनों पार्टियों ने ही नहीं, इन दोनों समाजों ने भी वर्षों तक झेला. दलितों और पिछड़ों के बीच ढाई दशक तक यूपी में कड़वाहट बनी रही.
लेकिन 2014 में केंद्र में और 2017 में यूपी में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद समय बदला. सपा और बसपा के बीच एकता की राजनीतिक जमीन तैयार हो गई. इसके अलावा पिछले 5 साल में अनेक मुद्दों पर, खासकर आरक्षण लागू करवाने के सवाल पर, दलित और पिछड़े समाज के युवा साथ आए और उन्होंने मिलकर मोदी सरकार के कई कदमों का विरोध किया. इसके बाद तीन लोकसभा उपचुनावों- गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में सपा और बसपा के मतदाताओं ने एक साथ मिलकर वोट डाला और तीनों सीटें बीजेपी से छीन ली. इसी पृष्ठभूमि में सपा और बसपा के बीच लोकसभा चुनाव के लिए तालमेल हुआ है, जिसमें आरएलडी भी शामिल हो गई.
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सपा और बसपा के साथ आने की एक प्रतीक छवि डिंपल यादव द्वारा मायावती का पैर छूना है. इससे दोनों दलों के बीच सौहार्द का पता चलता है. नेताओं के बीच इतनी गर्मजोशी का असर न सिर्फ राजनीति पर पड़ा है, बल्कि समाज में भी पिछड़ों और दलितों के बीच की खाई पटी है. इससे मायावती की राष्ट्रीय स्तर पर छवि भी मजबूत हुई है.
यह सामाजिक एकता वर्चस्वशाली वर्गों को अप्रिय है. जन्म से ठाकुर, और यादव परिवार में शादी करने वाली डिंपल यादव जब एक प्रभावशाली दलित नेता के चरण स्पर्श करती हैं तो दरअसल वो उस वर्ण व्यवस्था को चुनौती देती हैं, जिसने हर जाति की महिलाओं और वंचित जातियों को निम्न बताया है.
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविधालय भोपाल में अध्ययनरत हैं)