पिछले गुरुवार को शशि थरूर की ‘आम और चाट’ पार्टी में भारतीय जनता पार्टी के एक प्रवक्ता और सांसद बता रहे थे कि उनकी पार्टी दूसरों से कैसे अलग है. केरल से कुछ कांग्रेस नेता चुपचाप आए और चले गए, उन्होंने यह भी नोट किया होगा कि पार्टी के बड़े नेता इस पार्टी में नहीं आए थे. ऐसे में बीजेपी नेताओं ने मज़े से रसीले आम खाए और अपनी पार्टी की अच्छाइयों पर बात की, बिना इस डर के कि कोई खलल डालने वाला आसपास है.
बीजेपी के नेता बोले, “कांग्रेस एक नेता-आधारित पार्टी है जिसका एकमात्र उद्देश्य सत्ता हासिल करना है. हम कोई राजनीतिक पार्टी नहीं हैं, हम एक कैडर-आधारित विचारधारा वाली पार्टी हैं.” इस संदर्भ में बीजेपी के नेता ने 1992 में अयोध्या की बाबरी मस्जिद गिराए जाने की कहानी सुनाई. उन्होंने कहा कि इस योजना की जानकारी सिर्फ दो लोगों मोरोपंत पिंगले और अशोक सिंघल को थी. यहां तक कि लालकृष्ण आडवाणी और कल्याण सिंह को भी इसकी भनक नहीं थी. पिंगले “पूरी तरह स्पष्ट” थे कि चाहे बीजेपी 500 साल तक सत्ता में न आए, लेकिन मस्जिद तो गिरनी ही चाहिए. बीजेपी सांसद ने कहा, “तो देखिए, हमारी पार्टी विचारधारा से कैसे चलती है.”
उधर, उपराष्ट्रपति निवास से लगभग तीन किलोमीटर दूर अपना सामान समेटते जगदीप धनखड़ शायद विस्मित हो जाते अगर वे इस बीजेपी नेता की पार्टी की विचारधारा और प्राथमिकताओं की बातें सुन लेते. पिछली बार जब मैं पुराने उपराष्ट्रपति निवास गया था, तो उनकी पत्नी सुदेश धनखड़ नए आधिकारिक घर में शिफ्ट होने को लेकर उत्साहित नहीं थीं, जो उस वक्त बन रहा था. नाश्ते पर उन्होंने मुझसे कहा था, “लगभग दो साल तो बीत ही गए हैं. अब कुछ ही समय बचा है, तो नए घर में जाने का क्या फायदा?” हालांकि, यह उनका फैसला नहीं था. अब पीछे मुड़कर देखें, तो उनकी यह हिचकिचाहट जैसे एक पूर्वाभास थी. उनकी बेटी और उनका परिवार कभी उपराष्ट्रपति निवास में रहने नहीं आया और गुरुग्राम में ही रहना पसंद किया. ये बातें दिखाती हैं कि धनखड़ परिवार हमेशा व्यावहारिक और सादा जीवन जीने वाला रहा और उनके मन में कोई बहुत ऊंचे सपने नहीं थे.
‘कारण’ क्या हैं
जगदीप धनखड़ अच्छी तरह समझते होंगे कि अचानक बीजेपी के निशाने पर क्यों आ गए. उनका ‘हटाया जाना’ काफी हद तक पार्टी की विचारधारा की जड़ – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और जेपी नड्डा की कही हुई पार्टी की “सक्षमता” से जुड़ा हुआ है.
इस पर थोड़ी देर में बात करते हैं. पहले जानते हैं कि धनखड़ के इस्तीफे की वजहें क्या थीं. उनके इस्तीफे में जो मेडिकल कारण बताया गया है, उसे कोई गंभीरता से नहीं ले रहा. यह साफ है कि उन्होंने दबाव में आकर इस्तीफा दिया. अब देखते हैं वे कारण जो बीजेपी के नेता नाम न छापने की शर्त पर बता रहे हैं. पहली वजह — नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार को धनखड़ के न्यायपालिका के खिलाफ बयानों से असहजता थी, लेकिन क्या वाकई ऐसा है? 2014 में मोदी सरकार द्वारा लाया गया नेशनल जुडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन (NJAC) कानून तो खुद सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था. उस समय वित्त मंत्री रहे अरुण जेटली ने इसे “अनिर्वाचितों की तानाशाही” कहा था, याद है?
तब से लेकर अब तक बीजेपी के सीनियर मंत्री और नेता देश की सबसे ऊंची अदालत पर सवाल उठाते रहे हैं. इसी अप्रैल में बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने सुप्रीम कोर्ट पर “धार्मिक युद्ध भड़काने” और तत्कालीन चीफ जस्टिस संजीव खन्ना पर “सिविल वॉर” यानी गृहयुद्ध के लिए जिम्मेदार ठहराया था.
अब ज़रा बीजेपी नेताओं और पूर्व उपराष्ट्रपति धनखड़ के न्यायपालिका को लेकर दिए गए बयानों की तुलना कीजिए. क्या अब भी आपको लगता है कि धनखड़ के न्यायपालिका पर टिप्पणियों की वजह से उन्हें हटाया गया? बिल्कुल नहीं. 2018 में, जब सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके देशभर में हलचल मचा दी थी, उसके कुछ ही हफ्तों बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बड़े अंग्रेज़ी अखबार के कुछ पत्रकारों से मुलाकात की थी. भरोसेमंद सूत्रों के अनुसार, जब पत्रकारों ने उनसे उस प्रेस कॉन्फ्रेंस के बारे में पूछा, तो पीएम मोदी ने कहा था, “आपको पता होना चाहिए कि सिर्फ कुछ परिवार ही पूरी न्यायपालिका को चलाते हैं—सिर्फ 60, लेकिन आप मीडिया वाले इस पर कुछ नहीं लिखते.” मेरी सहयोगी अपूर्वा मंधानी की इस साल की एक शानदार रिपोर्टिंग के अनुसार, भले ही पीएम मोदी का आंकड़ा कुछ ज्यादा था, लेकिन उनकी बात में सच्चाई थी. अपूर्वा ने पाया कि सुप्रीम कोर्ट के 60% जज वकीलों या जजों के परिवारों से आते हैं.
और हर तीन हाईकोर्ट जजों में से एक किसी वकील, पूर्व जज या मौजूदा जज का रिश्तेदार है.
ये आंकड़े मोदी की उस बात को सही ठहराते हैं कि न्यायपालिका में वंशवाद और भाई-भतीजावाद काफी हद तक मौजूद है. यही वजह है कि मोदी सरकार और सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के बीच जजों की नियुक्ति को लेकर हमेशा टकराव बना रहता है.
इस संदर्भ में देखा जाए, तो यह मानना कि सरकार ने उपराष्ट्रपति धनखड़ को सिर्फ न्यायपालिका से बेहतर संबंधों के लिए हटाया— बहुत ही भोली सोच होगी.
बीजेपी के रणनीतिकारों की ओर से एक और तर्क ये दिया गया है कि धनखड़ सरकार की सार्वजनिक रूप से आलोचना करने लगे थे, जिससे सरकार को शर्मिंदगी उठानी पड़ी, लेकिन इसके लिए उनके पास सिर्फ एक ही उदाहरण है—जब धनखड़ ने कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान की मौजूदगी में किसानों से किए वादे पूरे न होने को लेकर सरकार से सवाल पूछे थे. उनका कहना है—“धनखड़ ऐसा शिवराज चौहान से कैसे कह सकते थे?” ये सहानुभूति दिल को छूने वाली है, खासकर तब जब खुद शिवराज चौहान को मध्य प्रदेश में पार्टी को ऐतिहासिक जीत दिलाने के बावजूद मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया.
धनखड़ ने उस मौके पर किसानों के प्रति चिंता जताने से पहले सरकार की जमकर तारीफ भी की थी. उन्होंने कहा था, “मैंने पहली बार भारत को बदलते देखा है…भारत कभी इतनी ऊंचाइयों पर नहीं था…जब ये सब हो रहा है, तो किसान क्यों परेशान हैं?”
धनखड़ की ये बात जनता को लुभाने जैसा लग रही थी. वैसे भी, यही एक मौका था जब उन्होंने सरकार को लेकर कुछ ऐसा कहा जो हल्की-फुल्की आलोचना मानी जा सकती है, लेकिन अब ये तर्क दिया जा रहा है कि बीजेपी नेतृत्व ने शिवराज चौहान की ‘पीड़ा’ को सात महीने बाद याद किया और उपराष्ट्रपति को हटाने का फैसला कर लिया.
शायद शिवराज चौहान इस ‘इज्ज़त’ को पाकर खुशी से रो पड़ेंगे? या शायद वे खुद भी इस अचानक हुए बदलाव से हैरान होंगे. एक और वजह जो बताई जा रही है, वो ये कि धनखड़ ने सरकार से बिना सलाह किए राज्यसभा में विपक्ष का वह प्रस्ताव पेश कर दिया जिसमें इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा को हटाने की बात थी. सरकार चाहती थी कि ये सर्वदलीय प्रस्ताव पहले लोकसभा में पेश हो. लेकिन इसमें ऐसी बड़ी बात क्या है? धनखड़ ने सिर्फ विपक्ष के प्रस्ताव का ज़िक्र किया था, जैसा कि किसी भी सभापति को करना चाहिए. उन्होंने उसे मंज़ूरी नहीं दी थी. इसी वजह से अब सरकार कह रही है कि वे पहले लोकसभा में प्रस्ताव लाएंगे. सरकार चाहती तो यही बात धनखड़ से सीधे मिलकर कह सकती थी—उन्हें हटाने की क्या ज़रूरत थी?
एक और आरोप ये है कि धनखड़ विपक्ष के उस पुराने प्रस्ताव को भी आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे जिसमें जस्टिस शेखर यादव को उनके कथित नफरत भरे भाषण के लिए हटाने की मांग थी, लेकिन सोचिए अगर एक जज के खिलाफ लाए गए बाद के प्रस्ताव को संसद के दोनों सदनों में स्वीकार किया जा रहा है, तो फिर पहले से लंबित प्रस्ताव पर चुप कैसे रहा जा सकता था?
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धनखड़ और आरएसएस
अगर आपने सरकार या बीजेपी के रणनीतिकारों की ओर से धनखड़ के इस्तीफे, बल्कि कहें, हटाए जाने को लेकर और भी वजहें सुनी हैं, तो उन्हें तर्क और समझदारी की कसौटी पर परखिए. ज़्यादातर बातें बेतुकी लगती हैं. ज़रा सोचिए ऊपर बताई गई वजहों के बारे में. क्या ये रणनीतिकार खुद सुनते हैं कि वे क्या कह रहे हैं? उनकी बातों से तो मोदी सरकार इतनी तानाशाही और असुरक्षित दिखती है कि वो देश के दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को राज्यसभा में मामूली मामलों पर भी अपनी मर्ज़ी से काम नहीं करने देती. ऐसे तर्कों से तो यही प्रतीत होता है कि बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व इतना अहंकारी हो चुका है कि अगर उपराष्ट्रपति ने किसी छोटी सी बात में भी उनसे बिना पूछे कुछ कह दिया या कर दिया, तो वे उन्हें पद से हटा सकते हैं. अगर यह सच हो, तो यह हम सबके लिए चिंता की बात है.
लेकिन राहत की बात ये है कि उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को हटाने की असली वजह ये नहीं है. असली कारण आरएसएस को भेजा गया एक राजनीतिक संदेश है. दरअसल, ये फैसला संघ प्रमुख मोहन भागवत की उस बात का जवाब है जिसमें उन्होंने नेताओं के लिए 75 साल की उम्र सीमा का ज़िक्र किया था. हमने कई बार देखा है कि धनखड़ राज्यसभा के भीतर और बाहर आरएसएस की जमकर तारीफ करते थे. ध्यान देने वाली बात ये है कि धनखड़ की वैचारिक पृष्ठभूमि आरएसएस से नहीं रही है, फिर भी उनका इस तरह आरएसएस की प्रशंसा करना, दरअसल बीजेपी के वैचारिक मार्गदर्शक संगठन के प्रति उनका झुकाव दिखाता है. हकीकत यह है कि पिछले कुछ सालों में धनखड़ आरएसएस के शीर्ष नेताओं के बेहद क़रीब आ गए थे और लगातार संपर्क में रहते थे.
संघ कई मामलों में यहां तक कि अयोध्या राम जन्मभूमि केस में भी धनखड़ की कानूनी सलाह ले रहा था. जब वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे और ममता बनर्जी की सरकार के खिलाफ मुखर हुए, तो संघ के साथ उनका रिश्ता और गहरा हो गया. दरअसल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी के गृह राज्य (पश्चिम बंगाल) में बीजेपी की विफलता हमेशा से संघ के लिए एक चिंता का विषय रही है. धनखड़ को उपराष्ट्रपति पद तक पहुंचाने में आरएसएस की अहम भूमिका थी, लेकिन अब, जब बीजेपी ने बिना संघ से सलाह लिए ही उन्हें हटाने का फैसला कर लिया, तो संघ सिर्फ चुपचाप देखता रह गया. पिछले सोमवार को जब धनखड़ ने इस्तीफा दिया, उसके पीछे की घटनाएं उसी दिन दोपहर से शुरू हो गई थीं.
राज्यसभा के नेता जेपी नड्डा ने उसी दिन शाम 4:30 बजे धनखड़ द्वारा बुलाई गई राज्यसभा बिजनेस एडवाइजरी कमेटी की बैठक में शामिल नहीं होकर उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया. यह शायद संयोग ही था कि पिछले साल नड्डा ने ही सार्वजनिक रूप से कहा था कि बीजेपी अब “सक्षम” है. उनके कहने का मतलब था कि उसे संघ के दखल की ज़रूरत नहीं है. अब जबकि नए बीजेपी अध्यक्ष के चयन को लेकर असमंजस बना हुआ है और इसी बीच अचानक धनखड़ को हटाया गया, तो यह संघ के लिए एक और संदेश है कि बीजेपी अब पूरी तरह सक्षम है और अपने फैसले खुद ले सकती है.
(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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