इस साल का चुनावी मौसम शुरू होते ही एच.डी. देवगौड़ा ने एक दांव खेला, वह 17वीं लोकसभा में अपने दो पोतों, प्रज्वल रेवन्ना और निखिल कुमारस्वामी, के साथ जाएंगे. इस दांव ने, अप्रत्याशित रूप से, 85-वर्षीय पूर्व प्रधानमंत्री को उनके जीवन की सबसे कठिन राजनीतिक लड़ाई में धकेल दिया है.
देवगौड़ा 1996 में प्रधानमंत्री बनने के समय से ही कर्नाटक की राजनीति के वरिष्ठ नेता बने हुए हैं. आज उनका ऊंचा कद और उससे भी ऊंचे दांव हैं.
उनकी और उनके पोतों की जीत उनके राजनीतिक करियर, देवगौड़ा के बेटे एच. डी. कुमारस्वामी के नेतृत्व वाली राज्य की कांग्रेस-जनता दल (सेक्यूलर) गठबंधन सरकार के भविष्य, और उसके भी अधिक अहम उनकी खुद की राजनीतिक विरासत का निर्धारण कर सकती है.
अपनी छह दशकों की राजनीतिक यात्रा में देवगौड़ा कई गंभीर राजनीतिक चुनौतियों का सामना कर चुके हैं. सबसे गंभीर चुनौती 1989 विधानसभा चुनाव में उनका गढ़ माने जाने वाली होलेनर सिंहपुरा सीट पर पराजय से बनी थी. उस चुनावी पराजय की छाया से बाहर निकलने के संकल्प के साथ देवगौड़ा ने पहली बार हासन से 1991 का लोकसभा का चुनाव लड़ा था. उससे पहले वह 1962 से ही विधानसभा का सदस्य रहे थे. उन्होंने कर्नाटक की राजनीति में प्रधान भूमिका के लिए देवराज अर्स और रामकृष्ण हेगड़े को चुनौती दी थी. इसके बावजूद उन्हें जैसा उन्होंने सोचा था वैसी प्रधानता नहीं मिल पाई, यहां तक कि वह वोक्कालिगा समुदाय के भी निर्विवाद नेता नहीं बन सके.
पर, 1991 में लोकसभा में पदार्पण ने उनके राजनीतिक करियर को बरकरार रखा. अगले कुछ वर्षों तक उन्होंने जनता पार्टी के विभिन्न धड़ों में एकजुटता की कोशिश की, अपनी पार्टी को 1994 के राज्य विधानसभा चुनाव में जीत दिलाई, और कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनने के अपने सपने को पूरा किया. अठारह महीने बाद, अचानक प्रधानमंत्री का पद पाना ना सिर्फ उनके राजनीतिक करियर का उत्कर्ष था, बल्कि कर्नाटक के किसी भी नेता के लिए सर्वोच्च उपलब्धि थी.
लेकिन अब, अपने पोतों को चुनावी मुकाबले में उतारकर देवगौड़ा, बहुतों की नज़रों में, हदों को लांघ चुके हैं. ऐसा करते हुए, उन्होंने कई पार्टी कार्यकर्ताओं के जायज़ दावों को भी नज़रअंदाज़ किया. ऐसे दावेदारों में भारतीय राजस्व सेवा की युवा अधिकारी लक्ष्मी अश्विन गौडा शामिल हैं, जो अपनी नौकरी से इस्तीफा देकर मांड्या से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही थीं.
आखिरकार, पूर्व केंद्रीय मंत्री और अभिनेता स्वर्गीय अंबरीश की पत्नी, लोकप्रिय अभिनेत्री सुमालता मांड्या सीट के मज़बूत दावेदार के तौर पर उभरकर सामने आईं. पर, जब कांग्रेस ने उन्हें टिकट ना देकर मांड्या सीट जद (सेक्यूलर) को देने का फैसला किया तो उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ने का विकल्प चुना. सुमालता ने जहां मुकाबले से हटने के दबावों के बीच अपनी शांत और गरिमापूर्ण उपस्थिति सुनिश्चित की, वहीं गौड़ा परिवार के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता. कुमारस्वामी और रेवन्ना दोनों ने ही उनके खिलाफ तीखी टिप्पणियां कीं.
अब, गौड़ा ने मांड्या सीट अपने पोते निखिल कुमारस्वामी को दे दिया है.
यहां तक कि गौड़ा के प्रशंसक तक उनके परिवार की राजनीतिक लिप्सा पर अपनी अप्रसन्नता का इजहार कर रहे हैं. पूर्व समर्थकों और विरोधियों ने सार्वजनिक रूप से उनकी आलोचना की है. पर देवगौड़ा के लिए ऐसी आलोचनाएं कोई नई बात नहीं हैं. अतीत में, गौड़ा के पसंदीदा रहे सिद्धारमैया और बी. एन. बाचेगौड़ा (इस बार चिकबलपुर से भाजपा प्रत्याशी) तक देवगौड़ा की परिवार केंद्रित राजनीति की तीखी आलोचना करते रहे हैं. अब आलोचनाएं नई ऊंचाइयों को छू रही हैं.
भाजपा के टिकट पर 2018 विधानसभा चुनाव में हासन सीट पर जीतने वाले नौसिखिए नेता प्रीतम गौड़ा ने हाल ही में देवगौड़ा परिवार के शासन की तुलना ब्रितानी ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन से की. लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान के दौरान हल्ला बोलते हुए प्रीतम गौड़ा ने देवगौड़ा पर आरोप लगाया कि वह हर किसी को अपने परिवार का गुलाम बनाने की कोशिश कर रहे हैं.
यहां तक कि देवगौड़ा के समर्थकों का भी ये मानना है कि उनके नेता को अब मात्र अपने परिवार के राजनीतिक भविष्य की चिंता रह गई है. इतना ही नहीं, जनता दल (सेक्यूलर) कार्यकर्ता तो ये भी कहते हैं कि उनकी पार्टी भले ही सात सीटों पर चुनाव लड़ रही हो, गौड़ा परिवार को मात्र तीन सीटों की ही परवाह है – तुमकुर, जहां से गौड़ा खुद लड़ रहे हैं, तथा हासन और मांड्या, जहां से प्रज्वल रेवन्ना और निखिल कुमारस्वामी मैदान में हैं.
अपने संपूर्ण राजनीतिक जीवन में देवगौड़ा ये आरोप झेलते रहे हैं कि वह अपने (और अपने परिवार के) हितों को बाकी बातों से ऊपर रखते हैं. और, गौड़ा अपने परिवार के हितों का ख्याल रखने का बचाव भी कर चुके हैं, यह कहते हुए कि सिद्धारमैया समेत उनके कई निकट सहयोगी पूर्व में गैरभरोसेमंद साबित हो चुके हैं. उनका कहना है कि ऐसे विश्वासघातों के कारण ही उन्हें अपने परिवार की ओर मुड़ने पर मजबूर होना पड़ा.
इन सबके बीच भी, देवगौड़ा दक्षिणी कर्नाटक के वोक्कालिगा इलाके में बड़े जतन से काम करके प्रासंगिक बने रहे हैं. उन्होंने और उनके बेटों ने इस इलाके में सरकारी संसाधनों का बेहिसाब आवंटन कर, और तमाम सरकारी संस्थानों में अपने लोगों की नियुक्ति सुनिश्चित कर, अपना एक समर्थन तंत्र विकसित कर लिया है. इस तरह गौड़ा परिवार अपने वफादारों का एक काडर खड़ा करने में सफल रहा है.
इन राजनीतिक गणनाओं से परे, देवगौड़ा एक स्वशिक्षित और चतुर राजनेता भी हैं. उनके सबसे कठोर आलोचक तक स्वीकार करते हैं कि देवगौड़ा कर्नाटक को और उसे समृद्ध राज्य बनाने वाली नीतियों को भलीभांति समझते हैं. हाल के दशकों में उनके अनुभव, प्रशासनिक कौशल और संसदीय क्षमताओं का कोई भी बराबरी नहीं कर सका है. बहुत से राजनीतिक टीकाकारों का मानना है कि यदि देवगौड़ा दिल्ली ना जाकर कर्नाटक का मुख्यमंत्री ही बने रहते, तो वह अत्यंत प्रभावशाली क्षेत्रीय नेता बन गए होते, और शायद कर्नाटक की राजनीति की दिशा को बदल चुके होते.
विडंबना ही है कि उनके मुख्यमंत्री और बाद में प्रधानमंत्री बनने पर उनके परिजनों का निरंतर उदय होता रहा.
आपातकाल के दिनों में कांग्रेसी तंत्र की सख्ती के परिणामस्वरूप राजनीति में आए उनके बेटे रेवन्ना गरममिजाज़ हैं. इसके विपरीत, रेवन्ना के छोटे भाई और वर्तमान मुख्यमंत्री कुमारस्वामी को एक चतुर राजनीतिज्ञ माना जाता है जिसने कि परिवार के प्रभाव को दक्षिणी कर्नाटक के कोने-कोने तक फैलाया.
हालांकि इन दोनों के राजनीतिक करियर को नकारात्मक दृष्टि से नहीं देखा जाता है, लेकिन अन्य परिजनों की राजनीतिक आकांक्षाओं पर सीधा सवाल उठाया जा रहा है. प्रज्वल रेवन्ना और निखिल कुमारस्वामी दोनों के ही विशेषाधिकार वाले रवैये ने समर्थकों और विरोधियों को समान रूप से चिढ़ाया है.
ऐसे समय में जबकि राजनीति एक खानदानी पेशा बन गई हो, देवगौड़ा परिवार महाराष्ट्र के पवार, तेलंगाना के केसीआर या आंध्र के नायडू कुनबे से ज़्यादा भिन्न नहीं है. पर जहां अन्य परिवारों ने अपने समर्थकों की राजनीतिक आकांक्षाओं का बेहतर प्रबंधन किया है, वहीं लगता है कि गौड़ा परिवार को अपने गढ़ में बगावत का सामना करना पड़ रहा है. मतदान का दिन करीब आते-आते मांड्या, हासन और तुमकुर में उनका भविष्य अनिश्चित लगने लगा है. संभव है इस कारण कर्नाटक की राजनीति में एक नया मोड़ आए.
(लेखक सामाजिक इतिहासकार और राजनीतिक टीकाकार हैं. वह क्रिया विश्वविद्यालय में इतिहास और मानविकी पढ़ाते हैं. लेख में व्यक्त विचार उनके निजी विचार है.)
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