अब से करीब एक साल के भीतर सेना 118 अर्जुन एमके-1ए मेन बैटल टैंक या एमबीटी, जिस नाम से ये लोकप्रिय हैं, की खरीद का ऑर्डर देगी. ‘हंटर किलर्स’ के नाम से चर्चित इन टैंकों का नया संस्करण एक विशाल 120 एमएम राइफल गन और कंचन आर्मर से सुसज्जित है, जो कि सैन्य उपकरणों की सूची में सबसे शक्तिशाली बख्तरबंद प्रणाली होगी.
2008-2009 में टी-90 टैंकों के साथ एक मैत्रीवत प्रतिस्पर्द्धा में अर्जुन एमबीटी ने फायरिंग और स्टेबिलिटी सहित विभिन्न मापदंडों पर रूसी प्रणाली से बेहतर प्रदर्शन किया था.
बहरहाल, अर्जुन टैंक के लिए सेना का नवीनतम ऑर्डर अंतिम खरीद होगा. कोई भी अचरज करेगा कि यदि वास्तव में यह इतना शक्तिशाली उपकरण है तो फिर सेना आगे इसे खरीदने का ऑर्डर क्यों नहीं देगी?
भारत की बख्तरबंद कोर, जो आमतौर पर केवल रूसी टैंकों का इस्तेमाल करती है, को मुख्यत: मध्यम-वजन वाले टैंकों की जरूरत होती है, जिनका वजन 40 से 50 टन के बीच हो. इसके अलावा यह पर्वतीय, नदी बहुल और द्वीपों जैसे कुछ क्षेत्रों के लिए हल्के टैंकों के विकल्प पर भी गौर कर रही है.
अर्जुन टैंक की परिकल्पना सबसे पहले 1972 में रूसी टी-72 को जगह लेने के लिए की गई थी जो कि अब भी सेवा में है. इसका वजन सिर्फ 48 टन रखा जाना था, लेकिन अंतत: इसका वजन 62 टन हो गया. नवीनतम संस्करण का वजन 68.5 टन है.
लेकिन क्या कोई इसके लिए पूरी तरह रक्षा अनुसंधान विकास संगठन (डीआरडीओ) को जिम्मेदार मानेगा? इसके लिए सेना भी जिम्मेदार है, क्योंकि साल दर साल वो टैंक में बड़ी तोपों से बेहतर कवच तक अपनी अपेक्षाएं बढ़ाती रही है. रक्षा गलियारों में तो मजाक में यह भी कहा जाता है कि सेना को एक ऐसा टैंक चाहिए जो उड़ भी सके!
यह भी पढ़ें: आत्मनिर्भर भारत को मजबूती देने के लिए सुरक्षा बलों को मिलेंगी भारत में बनी इजरायली असॉल्ट राइफल्स
तैनाती का मुद्दा
अर्जुन टैंक कई प्रणालियों का कॉम्बिनेशन है, लेकिन एक इकाई के तौर पर इसे विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, खासकर अपने वजन और चौड़ाई के कारण.
मैकेनाइज्ड फोर्स के पूर्व महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल ए.बी. शिवाने (सेवानिवृत्त) ने मुझे बताया कि अर्जुन टैंक की तैनाती और खुले रेगिस्तानी इलाकों में सीमित उपयोगिता इसके लिए सबसे बड़ी चुनौती है—वह भी सिर्फ वजन के कारण.
उन्होंने मुझे बताया, ‘संचालन और रणनीतिक लिहाज से इसकी आवाजाही आसान नहीं है जिससे इसके रखरखाव और लॉजिस्टिक संबंधी चुनौतियों के अलावा इसकी उपयोगिता भी सीमित हो जाती है.
बख्तरबंद कोर के एक अधिकारी कर्नल अजय सिंह (सेवानिवृत्त), जिन्होंने अर्जुन एमबीटी का उपयोग होते देखा है, ने मुझे बताया ये स्वदेशी प्रणाली एक बेहतरीन मशीन है. अर्जुन एमबीटी के पास एक उत्कृष्ट 120 एमएम राइफल गन है और इसमें गोलाबारी और नियंत्रण प्रणाली भी शानदार है. उन्होंने यह कहते हुए अर्जुन की एर्गोनॉमिक्स की जोरदार प्रशांसा की कि इससे चालक दल के लिए इसे ऑपरेट करना आसान और आरामदेह बन जाता है.
कर्नल सिंह बताते हैं, ‘रणनीतिक संचालन के लिए लिहाज से इसका 68 टन का वजन काफी ज्यादा भारी है.’ साथ ही बताया कि रेगिस्तान के लिए उपयुक्त होने की धारणा के विपरीत यह टैंक अर्ध-रेगिस्तानी इलाकों के लिए अधिक मुफीद है.
दुनिया की बात करें तो पश्चिमी देशों में भारी और बड़े एमबीटी के निर्माण की प्रवृत्ति रही है जो ज्यादा गोलाबारी में सक्षम और चालक दल को सुरक्षा प्रदान करने वाले होते हैं. यह तब है जबकि युद्ध के नए तरीकों पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है. अजरबैजान और आर्मेनिया के बीच हालिया संघर्ष ने यह तो दर्शा ही दिया है कि युद्ध का भविष्य कैसा होगा, युद्ध के पारंपरिक तरीके में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों का इस्तेमाल घट जाएगा.
लेकिन सैन्य इतिहासकार और अमेरिकी सेना के पूर्व अधिकारी रॉबर्ट बेटमैन एक अलग ही तर्क देते हैं कि नागोर्नो-कराबाख की झड़प बख्तरबंद का इस्तेमाल खत्म होने के बारे में कुछ नहीं बताती है.
उनका कहना है, ‘यह सब दिखाता है कि कैसे दो अपरिपक्व तरीके से प्रशिक्षित और सैन्य उपकरणों से सुसज्जित सेनाएं एकदम बचकाने तरीके से आपस में भिड़ गईं और पलक झपकते तैयार होने वाले वीडियो के जरिये सोशल मीडिया के युग में असाधारण दावे किए जाने लगे.’
भारी टैंक वाली पश्चिमी सेनाएं
आप देखेंगे कि पश्चिमी सेनाओं के बीच पहले से कहीं अधिक बड़े टैंक इस्तेमाल करने का ट्रेंड बढ़ा है. ब्रिटेन का चैलेंजर-2 इसी का एक उदाहरण है जिसका वजह 62.5 टन है और इसमें लगी 120 एमएम की राइफल गन भारी गोलाबारी और कवचभेदी आग उगलने में सक्षम है.
रक्षा विशेषज्ञ बेन हैरी के मुताबिक, ब्रिटिश सेना हाइब्रिड खतरों पर अपना और नाटो का विशेष फोकस होने के बावजूद भविष्य की जंग की स्थितियों को ध्यान में रखते हुए कम से कम 2040 तक भारी बख्तरबंद रखने की पक्षधर रही है.
ब्रिटेन एक नए टैंक चैलेंजर 3 पर काम कर रहा है. यह चैलेंजर 2 की तुलना में ज्यादा भारी होगा, जिसके युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार संस्करण का वजन 75 टन होता है. जर्मनी के नवीनतम एमबीटी लेपर्ड2A7+ का वजन 67.5 टन है.
अमेरिका के नवीनतम एमबीटी अब्राम्स एम1ए 2 एसईपीवी3 टैंक, जो अपनी युद्धक क्षमताएं साबित कर चुके एम1ए2 का अपग्रेडेड वर्जन है, का वजन 73.6 टन है. अमेरिकी सेना के लिए इसका वजन चिंता का एक विषय रहा है. वहीं इजरायल के नवीनतम एमबीटी मर्कावा एमके 4 का वजन कुल मिलाकर 65 टन है.
इसलिए, अगर दुनियाभर की बेहतरीन सेनाएं भारी टैंकों को अपना रही हैं तो भारत ने एक अलग रास्ता क्यों चुना है?
लेकिन इस बात पर आएं, इससे पहले ही जान लें कि रूस के नवीनतम टैंक अर्माटा का वजन सिर्फ 48.5 टन है, और यह फिर भी टी-90 (46 टन) से ज्यादा है जिसकी जगह लेने जा रहा है.
यह भी पढ़ें: वायुसेना पट्टे पर लेना चाहती है मिड-एयर रिफ्यूलर, एयरबस, बोइंग से प्रस्ताव मांगे
भारत की ऑपरेशन जरूरतें
भारत की ऑपरेशनल जरूरतें अन्य देशों से बहुत अलग हैं. भारतीय सैन्य बलों को राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों, नहर बहुल पंजाब के मैदानी इलाकों और पहाड़ी क्षेत्रों के अलावा लद्दाख और सिक्किम जैसे दुर्गम इलाकों में भी तैनात रहना पड़ता है.
अर्जुन एमबीटी का वजन उसकी मोबिलिटी से जुड़ा एक बड़ा मसला है क्योंकि सीमावर्ती क्षेत्रों में 70 टन कैटेगरी के पुल नहीं है– न तो भारत की तरफ पर और न ही पाकिस्तान की ओर.
अर्जुन टैंक के रणनीतिक इस्तेमाल में दिक्कतों के बारे में समझाते हुए एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि अगर हम यह मान भी लें कि भारत अपनी तरफ ऐसे नए पुल बना लेता है जो अर्जुन का वजन वहन करने में सक्षम हों तो क्या वह पाकिस्तानी क्षेत्र में भी ऐसा कर सकता है.
यह दुश्मन के इलाके में अर्जुन की उपयोगिता को प्रभावित करता है और कमांडरों के लिए इसकी तैनाती के विकल्प भी सीमित करता है.
लद्दाख गतिरोध शुरू होने पर भारत ने विमानों का इस्तेमाल करके सीमा पर हजारों अतिरिक्त सैनिकों, टैंकों और बख्तरबंद सैन्य वाहनों की तैनाती की. लेकिन अर्जुन टैंक के मामले में ऐसा नहीं किया जा सकता. इसके अलावा, पहाड़ों की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए हल्के टैंकों की आवश्यकता भी होती है.
सैन्य उपकरणों की आपूर्ति ट्रेन के जरिये भी होती है लेकिन अर्जुन एमके1ए आसानी से ट्रेन पर भी नहीं ले जाया जा सकता है, क्योंकि इसके लिए रेलवे को विशिष्ट मोबाइल बोगी वैगन बनाने की जरूरत पड़ेगी.
भारत का पूरा लॉजिस्टिक सपोर्ट सिस्टम मध्यम-वजन वाले टैंकों को ध्यान में रखकर बनाया गया है और ऐसे में अर्जुन एमबीटी की सिर्फ चार रेजिमेंट, जो कि मोटे तौर पर रेगिस्तानी क्षेत्र पर ही केंद्रित हैं, के लिए एक समानांतर नेटवर्क बनाना दुरूह कार्य है.
मोदी सरकार की आत्मनिर्भर पहल के कारण 8,380 करोड़ रुपये में अर्जुन एमके-1ए की दो रेजीमेंट के लिए आगे बढ़ना सेना की मजबूरी बन गई है.
डीआरडीओ से ‘चंद्रमा’ की चाह पूरी होने की अपेक्षा रखने वाली सेना अर्जुन एमके-1ए की खरीद सीमित संख्या में ही कर सकती है. हालांकि, मौजूदा वक्त का तकाजा तो यही है कि जल्द से जल्द हल्के टैंक मिल पाएं, इसके लिए सेना और डीआरडीओ को मिलकर काम करना चाहिए. वज्र के टैंक वर्जन पर होने वाला काम इसका उदाहरण है. इस प्रोजेक्ट को फास्ट ट्रैक पर लाने की जरूरत है.
व्यक्त विचार निजी हैं.
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
य़ह भी पढ़ें: लंबे इंतज़ार के बाद ‘तेजस’ कैसे बना भारत के उभरते एयरोस्पेस सिस्टम की सफलता की कहानी