अभी हाल ही में, गुजरात में सवर्ण (पाटीदार) महिलाओं ने अपनी जाति के पुरुषों के साथ मिलकर दलित की बारात को रोक दिया. इसके लिए उन्होंने बीच सड़क पर भजन और यज्ञ करना शुरू कर दिया. ये बहुत ही रणनीतिक तरीके से अंजाम दिया गया क्योंकि यदि वे किसी और तरीके से बारात को रोकते तो एससी-एसटी प्रिवेंशन ऑफ अट्रोसिटी एक्ट लग सकता था, इसलिए बारात रोकने के लिए यज्ञ और भजन जैसे ‘धार्मिक कृत्य’ का सहारा लिया गया, जो एक बार फिर से ‘हिन्दू धर्म’ के विभिन्न क्रिया-कलापों के पीछे की जातिवादी संरचना को ही बेनकाब करता है.
ये पहला मौका नहीं है, जब सवर्ण या उच्च जाति की महिलाओं ने जातिवाद को पुष्ट किया है और जाति की ढाल बनी हैं.
खैरलांजी जनसंहार में, सवर्ण महिलाएं उस भीड़ का हिस्सा थीं जो सुरेखा और प्रियंका भोतमांगे को खींचकर बाहर लेकर आई थीं और उन्हें पीटा था (आनंद तेलतुंबडे, द परसिंस्टेंस ऑफ कास्ट, पेज 1020). स्मिता एम पाटिल भी अपने शोध प्रबंध में लिखती हैं कि सवर्ण महिलाएं उस अपराध में हिस्सेदार थीं. उन्हें पीटने, अपमानित करने और बलात्कार में सवर्ण महिलाएं भी सवर्ण पुरुषों की सहभागी/सहायक बनीं. यहां सवर्ण महिलाएं, अपनी महिला पहचान के साथ नहीं, बल्कि (सवर्ण) जातीय चेतना से संचालित हो रही हैं और जाति की पहचान को वरीयता दे रही थीं. हो सकता है कि वे परिवार में पुरुषों की सताई हों, लेकिन जाति का प्रश्न सामने आया तो वो अत्याचार करने वाली बन गईं.
यह भी पढ़ेंः मोदी को जिताने में बड़ा श्रेय महिलाओं का, क्या संसद में महिला आरक्षण पर लगेगी मुहर
ट्विटर के सीईओ जैक डोरसे द्वारा स्मैश ब्राह्मनिकल पेट्रीआर्की का प्लेकार्ड थामने के विवाद में जैक का विरोध करने वाली महिलाएं, जैसे स्मिता बरुआ, अद्वैता काला आदि सवर्ण थीं, जिन्होंने इसे हेट स्पीच और एक समुदाय (ब्राह्मण) को बदनाम करने वाला बताया. उनका यह कृत्य ब्राह्मणवादी पेट्रीआर्की यानी पुरुष सत्ता को संरक्षित करने और दंड-मुक्त बनाये रखने का एक प्रयास था और ये प्रयास सवर्ण महिलाएं कर रही थीं.
2016 में, भाजपा नेता दयाशंकर सिंह द्वारा बसपा नेता बहन मायावती के खिलाफ अभद्र (सेक्सिस्ट) टिप्पणी करने के मामले में उनकी पत्नी स्वाति सिंह ने बचाव किया. इससे पहले दिसंबर 2014 में भाजपा नेता शाइना एन.सी. ने मायावती के छोटे हेयरकट पर टिप्पणी करते हुए कहा कि उन्हें ‘he’ से संबोधित किया जाये या ‘she’ से. इन दोनों महिला नेताओं की जातीय पहचान, जो शाइना और स्वाति जैसी नेता को प्रिविलेज्ड करती हैं, मायावती जैसी नेता का अपमान करने में कोई बुराई नहीं देखती. इसके अलावा भी, बहन मायावती की फिजिकल अपीयरेंस, अविवाहित स्टेटस, पर मुख्यतः उनकी जाति की वजह से अमर्यादित टिप्पणियां उच्च जाति की महिलाओं द्वारा की जाती रही हैं.
बीते दिनों काफी प्रचलित रहे मीटू आन्दोलन की कड़ी में राया सरकार ने भारतीय उच्च शिक्षण संस्थानों में कथित तौर पर यौन अपराधियों की सूची जारी की, जिसमें सवर्ण पुरुष बेनकाब होना शुरू हुए तो सवर्ण नारीवादियों ने न केवल उन पुरुषों का बचाव किया बल्कि मीटू आन्दोलन पर भी सवालिया निशान लगा दिया. भारत की अग्रणी नारीवादियों ने, जो सभी सवर्ण हैं, ने इस लिस्ट को वापस लिए जाने की मांग करते हुए एक स्टेटमेंट जारी किया कि ‘…इस तरह नाम ज़ाहिर करना यौन शोषण के खिलाफ लम्बे संघर्ष की वैधता पर सवाल खड़े करेगा, और नारीवादियों के रूप में हमारे कार्य को और मुश्किल करेगा’.
यह सब उदाहरण बताते हैं कि उच्च जाति की महिलाएं जाति-विमर्श में अपनी महिला पहचान के साथ नहीं बल्कि जातीय पहचान के साथ अपीयर होती हैं, जो कि ‘मुख्यधारा के नारीवाद’ में भी परिलक्षित होता है.
इंटरसेक्शनलिटी और जाति के सवाल
भारतीय समाज में, लिंग और जाति विषमता का मुद्दा सामाजिक बहिष्करण या एक्सक्लूसन के विमर्श में काफी हद तक शामिल किया गया है. हिंसा और उत्पीड़न के सन्दर्भ में इन सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से शक्तिशाली पहचानों के बीच जटिल संबंध है. ऐसे में, सवाल उठता है कि क्या इंटरसेक्शनलिटी सिद्धांत इस जटिलता को समझने के लिए एक उपयुक्त फ्रेमवर्क उपलब्ध कराता है?
यह लेख, ‘महिला’ की उस सार्वभौमिक यानी यूनिवर्सल संकल्पना पर सवाल खड़े करता है जो यह मानकर चलती है कि सब महिलाओं का शोषण होता है और उस शोषण की प्रकृति एक होती है. इस प्रक्रिया में यह लेख दलित समुदाय पर होने वाले उत्पीड़न, अपमान और शोषण के सन्दर्भ में सवर्ण महिलाओं के जातीय व्यवहार को बेनक़ाब करता है.
यह भी पढ़ेंः महिला आरक्षण से क्या हासिल करना चाहते हैं राहुल गांधी
इंटरसेक्शनलिटी पर पाश्चात्य नारीवादी विचार
इंटरसेक्शनिलिटी या इंटरसेक्शनल नारीवाद, नारीवादी विमर्श का वह स्वरूप है जो महिलाओं के खिलाफ होने वाले सामाजिक और राजनीतिक भेदभाव को एकरूप न मानते हुए, शोषण के विभिन्न आयामों को भी मान्यता देता है. यह एक ऐसा विश्लेष्णात्मक ढांचा प्रदान करता है जो समाज के हाशिये के व्यक्ति पर शक्ति-संरचना के प्रभावों का विश्लेषण करता है.
यह सिद्धांत सर्वप्रथम अश्वेत नारीवादी किम्बरले विलियम्स क्रेंशाव ने 1989 में प्रतिपादित किया. इंटरसेक्शनिलिटी का सिद्धांत दमन की विभिन्न संरचनाओं जैसे वर्ग, नस्ल, रंग, लिंग, धर्म, इत्यादि के सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभावों, इन सभी के प्रभावों का एक दूसरे से जुड़े और एक दूसरे की तासीर को तीव्र करने में मददगार प्रवृत्ति का विश्लेषण करता है. क्रेंशाव ने इंटरसेक्शनिलिटी सिद्धांत को ज्ञान-निर्माण के क्षेत्र में यह समझने के लिए प्रयुक्त किया कि क्यों अश्वेत लोगों से जुड़ी किताबें, सिद्धांत, परिप्रेक्ष्य, इतिहास, आन्दोलन आदि को अलग रखा जाता है. क्रेंशाव ने इस कल्पना को चुनौती देते हुए कि महिला एक होमोजेनोस समूह है, यह बताया कि नस्ल और वर्ग, महिलाओं के अनुभवों को प्रभावित करते हैं.
इंटरसेक्शनिलिटी सिद्धांत नारीवादी आन्दोलन की दूसरी लहर (सेकेंड वेव) की आलोचना के रूप में उभरा और तीसरी लहर का एक आधारभूत तत्व बना. आरंभिक नारीवाद में श्वेत, मध्यवर्गीय, हेट्रोसेक्सुअल महिलाओं के अनुभवों का सामान्यीकरण करते हुए अश्वेत, गरीब, लेस्बियन आदि के दृष्टिकोणों और अनुभवों की उपेक्षा की गयी. नारीवाद की तीसरी लहर ने आरंभिक नारीवादी आंदोलनों में विविध पहचानों को विश्लेषण में शामिल नहीं किये जाने का मुद्दा उठाया और स्त्रीत्व की ‘सार्वभौमिक’ धारणा पर सवाल खड़े किए. जूडिथ बटलर ने अपनी किताब जेंडर-ट्रबल (1990) में इस विचार की आलोचना की कि ‘महिला’ की सार्वभौमिक संकल्पना नारीवादी राजनीति और विचार की बुनियाद है. बटलर ने बताया कि जिन विद्वानों ने वर्ग का सैद्धान्तीकरण किया है उन्होंने महिला हितों की अनदेखी की है और नारीवादियों ने भी पितृसत्ता का अध्ययन वर्ग के बगैर किया है.
पेट्रिसिया कोलिन्स और सिरमा बिल्गे (इंटरसेक्सनालिटी, 2016) ने बताया कि सामाजिक दमन की व्यवस्थाएं, सामाजिक विषमता उत्पन्न करने के लिए पारस्परिक सहयोग भी करती हैं. उन्होंने बताया कि दमन के विविध स्वरूप ‘दमन का एक मैट्रिक्स’ बनाते हैं जिसमें विभिन्न पहचानें ओवरलैप और ओवरप्ले करते हुए सामाजिक अन्याय के अनेकों स्तर बनाती हैं. कोलिन्स कहती हैं कि नस्ल, वर्ग, लिंग, इत्यादि दमन के स्रोत एक दूसरे से जुड़े हुए हैं.
इंटरसेक्शनलिटी पर भारतीय नारीवादी विचार
उमा चक्रवर्ती ने अपनी किताब ‘जेंडरिंग कास्ट: थ्रू अ फेमिनिस्ट लेंस’ (2003) में डॉ. भीमराव आंबेडकर की संकल्पना पर आधारित जाति और लिंग की इंटरसेक्शनलिटी को रेखांकित करते हुए बताया है कि जाति व्यवस्था एक क्रमिक विषमता (ग्रेडेड इनइक्वालिटी) है अर्थात जाति क्रम में जो जितना ऊपर है, उसका उतना अधिक सम्मान है और जो जितना नीचे स्थित है, उसके प्रति उतनी ही अधिक घृणा है. यह परिभाषा महिला-पुरुषों, विशेषकर दलित महिलाओं, के सांस्कृतिक दमन की संरचना को समझने में सहायक है. चक्रवर्ती ने एंटी-मंडल आंदोलन (जिसमें सवर्ण छात्राएं और महिलाएं इस तख्ती के साथ शामिल हुईं कि ‘हमें बेरोजगार पति नहीं चाहिए’ और ‘अब हमें उपयुक्त जीवनसाथी नहीं मिलेंगे’) के सन्दर्भ में समूह के अंदर शादी की व्यवस्था का हवाला देते हुए जाति और लिंग की इंटरसेक्शनलिटी को स्पष्ट किया.
शर्मीला रेगे (2013) ने ब्राह्मण महिलाओं के सन्दर्भ में इंटरसेक्शनलिटी पर 1950 की प्रथम ‘ब्राह्मण परिषद्’ के हवाले से लिखा है कि उच्च जाति की महिलाओं के लिए आचार-संहिता बनाई गयी, जो मुख्यतः इस ओर इशारा करती है कि जातीय संरचना में तथाकथित उच्च जातीय महिलाएं भी उच्च-जातीय मानकों का शिकार होती हैं. परन्तु यह भी ध्यान देना जरूरी है कि इंटरसेक्शनलिटी डिबेट मुख्यतः दमन, शोषण और उत्पीड़न की घटनाओं, बेशक वो वंचित या प्रिविलेज्ड समाजों से आने वाली महिलाओं के साथ होने वाली घटनाएं हों, के विश्लेषण से सम्बद्ध हैं और जिसे मुख्यतः दलित महिलाओं के सन्दर्भ में, सवर्ण और दलित नारीवादियों ने, तिहरे उत्पीड़न के रूप में व्याख्यायित किया है.
यह भी पढ़ेंः आखिर क्यों बिहार की चुनावी रैलियों से गायब हैं महिलाएं
सवर्ण महिलाओं के प्रिविलेज पर मौन है इंटरसेक्सनलिटी
परन्तु, अहम सवाल कि कैसे उच्च जाति की महिलाएं, दलित समाज, विशेषकर दलित महिलाओं को अपमानित, आतंकित, उत्पीड़न करने का विशेषाधिकार या प्रिविलेज हासिल कर लेती हैं, पर इंटरसेक्शनलिटी सिद्धांत मौन है. अतः यह समझना आवश्यक है कि इंटरसेक्शनलिटी मूलतः दमन, शोषण की परिस्थितियों को समझने के लिए प्रतिपादित किया गया. चूंकि भारतीय परिदृश्य भिन्न है जिसे मात्र इंटरसेक्शनलिटी द्वारा नहीं समझा जा सकता, क्योंकि जब तक शोषण और अपमानित करने के सवर्ण विशेषाधिकार पर सवाल नहीं उठाया जायेगा, तब तक दमित समुदाय की स्थिति में सारगर्भित बदलाव नहीं लाये जा सकते.
इन सीमाओं के रहते, अम्बेडकरवादी विमर्श को जारी रखते हुए यह कह सकते हैं कि चूंकि महिलाएं एक समरूप समूह नहीं हैं, सरकार की नीतियां भी महिला को एक समरूप केटेगरी मानकर नहीं बल्कि विभिन्न पहचानों के मद्देनजर, सबको समावेशित करने वाली होनी चाहिए. यहां महिला आरक्षण विधेयक का उल्लेख करना आवश्यक है क्योंकि यह राजनीतिक सत्ता में महिलाओं की भागीदारी का एक तंत्र उपलब्ध करा सकता है, लेकिन इसमें वंचित महिलाओं के लिए अलग से प्रावधान होना चाहिए.
(लेखिका दिल्ली यूनिवर्सिटी में डॉक्टोरल फेलो हैं.)