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Monday, 18 November, 2024
होममत-विमतसवाल पूछना लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी क्योंकि जो इसे टालते हैं वो नए सवालों को जन्म देते हैं

सवाल पूछना लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी क्योंकि जो इसे टालते हैं वो नए सवालों को जन्म देते हैं

जो समाज सवालों को मारता है, उस समाज को मरने या बर्बाद होने से कोई नहीं रोक सकता. सवाल ही विकास है, सवाल ही शांति है, सवाल ही क्रांति है.

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किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का जवाबदेही होना पहली शर्त है. जवाबदेही सवालों से ही तय होती है इसलिए सवाल को लोकतंत्र की आत्मा भी कहा जा सकता है. वैसे भी दुनिया में किसी भी चीज़ की तरक्की सवाल-जवाब से ही होती है यदि किसी सरकार के मुखिया या किसी कम्पनी के बॉस की राय हमेशा हर्फे-आखिर हो, तो नए विचार सामने नहीं आ सकते. नए विचारों की पैदाइश या उन्हें फूलने-फलने के लिए सबकी राय लेनी होती है. सवाल भी सुनने होंगे और उनके जवाब भी देने होंगे.लोकतंत्र में दो-तरफा संवाद होना ज़रूरी है.सरकारें जनता की सुनें. जितना सुनना-सुनाना होगा, लोकतंत्र उतना ही मज़बूत होता जाएगा.

भारत की सभ्यता में वाद, विवाद और संवाद की परंपरा रही है.संविधान में भी इसी परंपरा का पूरा ध्यान रखा गया है.अनुच्छेद 19 में बोलने की आज़ादी को बुनियादी अधिकार माना गया है.इसी अधिकार के तहत मुख़्तलिफ़ राय रखने का अधिकार भी आता है. राइट टू डिसेंट एक ऐसा हक़ है जिससे सत्ता की आंखों में आंख डालकर सवाल पूंछे जा सकते हैं. सरकार से सवाल करना संवैधानिक अधिकार है, यह किसी भी सूरत में एन्टी-नेशनल नहीं है बल्कि सरकारों से सवाल न पूंछना और उसकी हर सूरत में भक्ति करना एक एन्टी-नेशनल काम है. सरकारों को आईना दिखाना ज़रूरी होता है, नहीं तो सरकारें तानाशाह हो जाएंगी. सरकार का विरोध करना ‘देश का विरोध करना’ नहीं माना जा सकता.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया अनुराधा भसीन केस के फैसले में कहा कि लोगों को मुख़्तलिफ़ राय रखने का अधिकार है.कोर्ट ने यह भी कहा कि इंटरनेट को अनुच्छेद 19 में सुरक्षा हासिल है और इसे गैर-मुद्दत के लिए बंद नहीं किया जा सकता. इंटरनेट को बंद करने लिए सरकार को पब्लिक नोटिस देना होगा, जिसको अगर लोग चाहें तो कोर्ट में चैलेंज कर सकें. कोर्ट ने यह भी कहा कि बार-बार धारा 144 सीआरपीसी लगाना भी दुरूपयोग है. लोगों को धरना-प्रदर्शन करने का अधिकार है.

भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद की ज़मानत याचिका सुनते समय भी तीस हज़ारी कोर्ट की जज कामिनी लॉ ने भी यही कहा कि धरना करना कोई जुर्म नहीं है. धारा 144 का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने शायद यह सब इसलिए कहा क्योंकि इंटरनेट आज लोगों की ज़रूरत बन गया है. यह बहुत लोकतांत्रिक माध्यम है, जहां हर कोई अपनी बात बगैर किसी डर के वयां कर सकता है. सोशल मीडिया आज मेनस्ट्रीम मीडिया को पीछे छोड़ रही है.जो खबरें मेनस्ट्रीम मीडिया नहीं दिखती या छुपा जाती है, उसे सोशल मीडिया बड़ी प्रमुखता से व्यक्त करती है.सोशल मीडिया पूरी तरह से टू-वे मीडियम है. यहां सवाल भी हैं और तुरंत उनके जवाब भी.

सरकारें आती जाती रहती हैं. इनके सवालों का सामना करने के तरीके भी पृथक रहे हैं किसी ने जवाब दिए तो किन्ही ने चुप्पी साध ली, लेकिन सवाल तो सवाल हैं. यह खेती की तरह उग आते हैं सवालों की खेती विश्वविद्यालओं और कॉलेजों में होती है.अगर सवाल शेक्षिक संस्थाओं से नहीं उठेगें तो फिर कहां से उठेगें? क्या सवाल करने वाले को देशद्रोही और एन्टी-नेशनल कह देने भर से सवाल सवाल नहीं रहेंगे? क्या सवालों से बच कर इन्हें खत्म किया जा सकता है? क्या विश्वविद्यालओं को बदनाम करके सवाल उठना बंद हो जाएंगे? जो सरकारें या लोग ऐसा सोचते हैं वो मुगालते में हैं.


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सवाल करना ही तो साइंस है. सवाल करना ही तो सामाजिक विज्ञान है. सवाल से ही लोकतंत्र है. सवाल से ही इंसानियत का वुजूद कायम है. सवाल तो हमेशा रहेगा चाहे उसके जवाब हों के न हों.जब तक जेएनयू, जामिया, एएमयू, बीएचयू, जाधवपुर यूनिवर्सिटी, डीयू और हैदराबाद यूनिवर्सिटी जैसे तालीमी इदारे हैं, सवाल तो उठते रहेंगे.

हिंसा सवाल का जवाब नहीं हो सकती. हिंसा से हिंसा पैदा होती है, हल पैदा नहीं होता क्योंकि सरकार की हिंसा पर मोनोपॉली है, इसलिए सरकारें इसका इस्तेमाल अक्सर करती हैं लेकिन देखने मे आया है कि हिंसा के बाद और सवाल उग आते हैं.आखिर में बात संवाद से ही बनती है.मेरा सवाल है कि जब संवाद से हल निकलता है तो सरकारें संवाद क्यों नहीं करतीं? क्यों सरकारें लोगों से बात नहीं करतीं? क्यों कोई कदम उठाने से पहले लोगों की राय नहीं ली जाती? विदेशों में कोई कानून बनाने से पहले कानून के ड्राफ्ट पर लोगों की राय ली जाती है.फिर उस राय को कानून बनाते हुए ध्यान में रखा जाता है. इन्हें प्री लेजिस्लेटिव इनिशिएटिव कहा जाता है.

भारत में भी ऐसा किया जाना चाहिए. इससे लोगों के सवाल भी कम होंगे. भारत के संविधान का पहला ड्राफ्ट जब तैयार हुआ तो इसे लोगों के बीच राय, सलाह, मशवरे के लिए रखा गया था.हज़ारों मशवरे आए और इनमें से कईयों को संविधान सभा ने माना भी. इसलिए हमारे संविधान को लोगों के द्वारा बनाया गया संविधान कहा गया है.

2005 में आरटीआई एक्ट बना कर यह कोशिश की गई कि सरकारों की जवाबदेही तय की जाए. लोगों को यह अधिकार दिया गया कि 30 दिन के अंदर लोगों के सवालों के जवाब दिए जाएं. इस कानून को भी सभी सरकारों ने कमजोर करने का काम किया. होना तो यह चाहिए था कि हम इस सूचना के अधिकार के आगे के कदम उठाते और ‘राइट टू हियरिंग’  की बात होती. इस हक़ के तहत सिर्फ जानकारी नहीं मांगी जाती बल्कि लोगों को यह अधिकार होता कि सरकारी अफसर आवेदक को बुला कर मिलता और उसे क्या समस्या है और उसका समाधान कैसे होगा, यह सब पूंछता. यह हक़ लोकतंत्र की परिपक्वता में मील का पत्थर साबित होता. पर सरकारें यह सब काम न करके पोलिटिकल सिस्टम को ओर अंधकारमय बना रही हैं.

जब भी आंकड़ों से मजबूत सरकारें आतीं हैं, वो बहुमत की ताकत का बेजा इस्तेमाल करती हैं. बहुमत से काम करने और बहुसंख्यकवाद में अंतर होता है. बहुसंख्यक एजेंडा लागू करना लोकतंत्र के हित में नहीं है. 1975 के आंतरिक आपातकाल में भी ज्यादातार संवैधानिक संस्थाएं बेअसर मालूम पड़ी थीं. आज फिर चाहे वो सुप्रीम कोर्ट हो, ह्यूमन राइट्स कमीसन हो, सूचना आयोग हों या फिर चुनाव आयोग सभी अपनी जिम्मेदारी से बचते नज़र आते हैं.

सीएए को चैलेंज करनी वाली और जामिया स्टूडेंट्स पर हुई पुलिस बर्बरता के ख़िलाफ़ हुई याचिकाओं में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पहले हिंसा बंद कीजिए फिर सुनवाई करेंगे. इसका मतलब यह हुआ कि फंडामेंटल राइट्स किसी चीज़ के होने या न होने पर निभर हैं. सवाल यह है कि हिंसा हो या ना हो, तो क्या सुप्रीम कोर्ट ह्यूमन राइट्स के उल्लंघन के केस नहीं सुनेगा? सुप्रीम कोर्ट जाना लोगों का मूलभूत अधिकार है. कोर्ट इसकी सुनवाई को कंडीशनल नहीं बना सकती. अगर कोर्ट अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटेंगे तो लोगों का भरोसा कोर्ट और कानून में कम होगा. संवैधानिक संस्थाए कमजोर होंगी तो लोगों के सवाल सवाल ही रह जाएंगे. इन संस्थानों की कमजोरी लोकतंत्र को खोखला बना देगी. सरकारें संवैधानिक मर्यादाओं में काम करें इसके लिए इन सभी संस्थानों की मजबूती ज़रूरी है.


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सवाल सिर्फ पोलिटिकल सिस्टम से ही नहीं, धर्म और धार्मिक संस्थानों से भी ज़रूरी हैं. इन संस्थानों को जवाबदेही बनाना पड़ेगा. आज भी लोगों पर धर्म का काफी प्रभाव है. धार्मिक लीडरशिप सवालों को नकारती आयी है.धर्म को हम सवालों के परे नहीं रख सकते.हम यह कैसे कह सकते हैं कि पोलिटिकल सिस्टम तो जवाबदेही हो लेकिन धार्मिक सिस्टम नहीं. सवाल तो सवाल है, वह सिस्टम नहीं देखता कि पॉलिटिकल है या धार्मिक कहने का मतलब यह कि जब तक धर्म में लोकतंत्र नहीं होगा तब तक समाज या पॉलिटिक्स लोकतांत्रिक नहीं होगी. संविधान के अनुच्छेद 25 में धार्मिक स्वतंत्रता दी गयी है। हर किसी को यह आज़ादी है कि वो कोई भी धर्म माने और उसका प्रचार-प्रसार करे. अगर फ्रीडम ऑफ़ रिलिजन की बात की जाती है, तो सवाल यह भी बनता है कि क्या फ्रीडम ऑफ़ रिलिजन है? धर्मों को भी सवालों से आंका जाएगा.जो धर्म सवालों को जगह देंगे, वो लोगों को उतने ही स्वीकार्य होंगे.

सवाल राजनीति और धर्म दोनों से होंगे.सवाल मीडिया से भी होंगे. सवाल के जवाब में सवाल भी होंगे. लेकिन सवालों को प्रो और एंटी की बाइनरी में कैद न किया जा सकता. मुख़्तलिफ़ राय रखने का अधिकार संविधान और इस ब्रह्माण्ड का विधान भी देता है. मेरा तो मानना है कि जो समाज सवालों को मारता है, उस समाज को मरने या बर्बाद होने से कोई नहीं रोक सकता. सवाल ही विकास है, सवाल ही शांति है, सवाल ही क्रांति है.

सवाल यह है कि यह सब जानते हुए भी कि सवाल कितने ज़रूरी हैं, क्या सवालों को हमारी व्यवस्था में जगह मिलेगी या इनको हमेशा तिरस्कार ही झेलना पड़ेगा? सरकारों और धर्मों की जिम्मेदारी है जवाब देने की. न जवाब देंगे तो सवाल और बढ़ेंगे.

(लेखक कानूनविद हैं और समाजवादी पार्टी के पूर्व प्रवक्ता रहे हैं. यह उनके निजी विचार हैं)

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