अगर आप दिल्ली में रहते हैं, तो आपको यह बताने की ज़रूरत नहीं होगी कि पिछले कुछ दिनों में हालात कितने खराब रहे हैं, लेकिन अगर आप नहीं जानते, तो ये देखिए कि हालात कैसे रहे.
राष्ट्रीय राजधानी की हवा हमेशा से ज़हरीली रही है. अब मुझे हर बार घर से बाहर निकलते समय अपनी आंखों में जलन और गले में खराश महसूस होने की आदत हो गई है. पिछली दफा जब मैंने अपनी छाती का एक्स-रे कराया था, तो डॉक्टर ने नतीजे देखे और मुझसे पूछा कि क्या मैं बहुत ज़्यादा सिगरेट पीता हूं. मैंने कहा कि मैंने अपनी ज़िंदगी में कभी सिगरेट का सेवन नहीं किया है. “हां!” उन्होंने हैरानी से कहा. “दिल्ली में रहने की कीमत. यही सब कुछ बताता है.”
किसी अन्य देश में मेरी इस स्थिति के बारे में सुनकर कोई भी व्यक्ति स्तब्ध रह जाएगा कि हवा में सांस लेने से ही उनके फेफड़ों को इतना नुकसान पहुंचा है कि डॉक्टर पूछ रहे हैं कि “आप कितनी सिगरेट पीते हैं”. यह इस बात का एक पैमाना है कि हम दिल्ली की ज़हरीली हवा से खुद को कितना ज़हरीला होने देने के लिए तैयार हैं, कि डॉक्टर और मैं दोनों ही फीके से मुस्कुराए और दूसरी चीज़ों पर ध्यान देने लगे.
और मैं भाग्यशाली लोगों में से एक हूं. मैं अपने घर में एयर प्यूरीफायर लगवा सकता हूं. मैंने सीखा है कि जब मेरी पत्नी प्यूरीफायर के फिल्टर बदलती है और मुझे बताती है कि वे ज़हरीली हवा की वजह से कितने काले हो गए हैं, तो मुझे चौंकना नहीं चाहिए. मुझे बाहर काम नहीं करना पड़ता. मुझे बस में चढ़ने के लिए कतार में खड़े होने या काम पर जाने के लिए पैदल नहीं चलना पड़ता.
क्या आप सोच सकते हैं कि सड़कों पर काम करने वाले लोगों के लिए यह कैसा होता होगा? जो लोग स्टॉल लगाते हैं, सिक्योरिटी गार्ड हैं, या काम पर जाने के लिए पैदल चलते हैं?
दिल्ली में रहना आम तौर पर ऐसा ही होता है, लेकिन हर सर्दी में यह बदतर होता जाता है. प्रदूषण का स्तर इतना बढ़ जाता है कि हमें बताया जाता है कि हवा जानलेवा है, जबकि सामान्य दिनों में यह केवल खतरनाक रूप से अस्वस्थ होती है और पिछले हफ्ते में हवा में ज़हर का रिकॉर्ड अपने अधिकतम स्तर पर पहुंच गया है. यह अब एक खामोश हत्यारा नहीं रहा: यह अब सब कुछ साफ-साफ दिखाई देता है. शहर के चारों ओर हानिकारक बादल घूमते रहते हैं जिससे लोगों के लिए कुछ फीट आगे देखना भी मुश्किल हो जाता है, हवाई जहाज़ों के लिए उड़ान भरना और ड्राइवरों के लिए यह देखना मुश्किल हो जाता है कि वे कहां जा रहे हैं. ऐसा लगता है जैसे प्रदूषण हमारा मज़ाक उड़ा रहा है. मानो यह कह रहा हो: मैं यहां हूं और आप इसके बारे में कुछ नहीं कर सकते.
ज़हरीली राजनीतिक निष्क्रियता
हम इस बारे में कुछ क्यों नहीं कर सकते? हम क्यों इतने लाचार हैं कि हम बस देखते रहते हैं कि कैसे दिल्ली दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बन गया है? हम बस देखते हैं कि राजनेता झगड़ों में लगे हैं और ज़हर हमारे खून में समा रहा है.
पहली समस्या यह है कि कोई भी इस बात पर सहमत नहीं हो सकता कि प्रदूषण का कारण क्या है. हम जानते हैं कि दिल्ली की भौगोलिक स्थिति के कारण, शहर में कोहरा छाया रहता है और हवाएं धुएं को नहीं पाट पाती हैं, लेकिन दिल्ली सदियों से भारत की समृद्ध राजधानी रही है. तो पिछले एक दशक में ही इतनी ज़हरीली हवा इतनी जानलेवा क्यों हो गई है?
राजनेता कारणों पर सहमत नहीं हैं. कई सालों तक, आम आदमी पार्टी (आप) ने हमें बताया कि प्रदूषण पंजाब और हरियाणा के किसानों द्वारा अपने खेतों को साफ करने के लिए पराली जलाने के कारण होता है.
यह स्पष्टीकरण इतना लोकप्रिय हुआ कि कई लोगों ने इसे और आगे बढ़ाया है. ज़ाहिर है, पंजाब के किसान कुछ दशक पहले तक चावल नहीं उगाते थे, इसलिए पराली नहीं जलाई जाती थी, लेकिन अब जब उन्हें ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है, तो वह नई फसल बोने से पहले ही पराली जला देते हैं. एक और सिद्धांत यह है कि अब चावल की रोपाई का चक्र बदल गया है, इसलिए पराली जलाना सर्दियों के मौसम के साथ मेल खाता है, जब दिल्ली में वैसे भी कोहरा होता है.
जब ये स्पष्टीकरण पहली बार दिए गए थे, तब पंजाब में कांग्रेस की सरकार थी, जिसका राज्य में AAP द्वारा कड़ा विरोध किया जा रहा था. तत्कालीन कांग्रेस के मुख्यमंत्री ने जवाब दिया कि अगर पराली जलाना समस्या थी, तो पंजाब के शहरों में प्रदूषण क्यों नहीं था? और हरियाणा में पराली जलाने के बारे में क्या, जहां भाजपा की सरकार थी? कोई भी इस बारे में इतनी शिकायत क्यों नहीं कर रहा था?
जब से AAP पंजाब में सत्ता में आई है, तब से दिल्ली सरकार का दृष्टिकोण बदल गया है. अब वह कहती है कि पराली जलाना समस्या नहीं है. न केवल यह कभी प्रदूषण का मुख्य कारण नहीं था, बल्कि पंजाब के किसानों ने अब AAP सरकार के शानदार प्रयासों के कारण पराली जलाना बंद कर दिया है.
तो, AAP को क्या लगता है कि वायु प्रदूषण का कारण क्या है? उनका कहना है कि यह सब वाहनों की वजह से है और हां, पिछले एक दशक में दिल्ली की सड़कों पर वाहनों की संख्या कई गुना बढ़ गई है, और शहर की अपेक्षाकृत कम काली-पीली टैक्सियों की जगह हज़ारों ओला-उबर जैसी कैब ने ले ली है, जिससे समस्या और बढ़ गई है.
हालांकि, AAP इसे स्वीकार करने के लिए कम उत्सुक है, लेकिन दिल्ली में निर्माण कार्य में तेज़ी से उछाल का भी हवा के ज़हरीले होने से कुछ लेना-देना है. उदाहरण के लिए मेरी कॉलोनी में नई इमारतों के लिए रिकॉर्ड दरों पर पुरानी इमारतों को गिराया जा रहा है. किसी भी आधिकारिक प्राधिकरण की सक्रिय निगरानी के बिना, निर्माण कार्य देर रात तक और छुट्टियों के दिनों में भी चलता रहता है, जिससे पहले से ही प्रदूषित हवा में धूल और गंदगी फैलती रहती है.
सरकार स्पष्ट रूप से स्वीकार करती है कि निर्माण को रोकना और वाहनों की आवाजाही को कम करना प्रदूषण के स्तर को कम कर सकता है क्योंकि उसने पिछले सप्ताह ही ऐसे उपायों की घोषणा की है, लेकिन ये अल्पकालिक, हताश करने वाले उपाय हैं, लेकिन ये सब खून से लथपथ घावों पर जल्दबाज़ी में की गई मरहम पट्टी के सिवाए कुछ नहीं है.
हम जानते हैं कि लंबे समय में क्या फर्क पड़ेगा. अगर निर्माण को कम किया जाए और उसे विनियमित किया जाए तो हालात बेहतर होंगे. प्रदूषण के अलावा, दिल्ली का बुनियादी ढांचा पहले से ही नई इमारतों के दबाव से ढह रहा है.
अगर सरकार सड़कों पर कारों की संख्या कम करने के लिए कदम उठाती है तो निश्चित रूप से इससे मदद मिलेगी और पड़ोसी राज्यों में पराली जलाना बंद किया जाना चाहिए.
लेकिन बात यह है: ऐसा कुछ नहीं होगा. पराली जलाना एक ऐसा राजनीतिक मुद्दा है जिसके बारे में सभी दल झूठ बोलने के अलावा कुछ नहीं करेंगे. निर्माण राजनेताओं के लिए आय का इतना महत्वपूर्ण स्रोत है कि इसके बारे में कुछ नहीं किया जाएगा, भले ही दिल्ली की सड़कें, पानी की आपूर्ति और बिजली सर्किट ध्वस्त हो जाएं.
जहां तक कारों की संख्या का सवाल है, वह कम नहीं होंगी, भले ही लंदन और सिंगापुर जैसे शहरों से वाहनों के आवागमन को नियंत्रित करने के लिए वैश्विक मिसालें मौजूद हों. यहां इसे दोहराने का कोई भी कदम राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय होगा.
और एक और महत्वपूर्ण कारक है: दिल्ली के नागरिकों ने दिखाया है कि वह इस ज़हरीली हवा में सांस लेने में खुश हैं और वह प्रदूषण को ऐसा मुद्दा नहीं बनने देंगे जो चुनावों को प्रभावित कर सके.
तो राजनेताओं को इसकी परवाह क्यों करनी चाहिए?
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मरता हुआ शहर
अधिकांश देशों में पिछले हफ्ते दिल्ली में जिस तरह की सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात स्थिति का सामना करना पड़ा, उसके लिए प्रधानमंत्री स्तर पर उच्च स्तरीय बैठकें होती हैं. पर्यावरण मंत्रालय तुरंत कार्रवाई करता है.
भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बाहर गए हुए हैं. पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव भी बाहर गए हुए हैं और वैसे भी पिछले हफ्ते मैंने जिनसे भी पूछा, उनमें से किसी को भी पर्यावरण मंत्री का नाम तक नहीं पता था. इसके बजाय, भाजपा और AAP ने एक-दूसरे पर दोष मढ़ा है.
मुझे खेद है कि यह सब निराशावादी लगता है, लेकिन यह सच है. हम साल दर साल एक ही तरह की चर्चा करते हैं और फिर भी, कुछ भी नहीं बदलता. न ही नागरिक अपने नेताओं पर इतना दबाव डालते हैं कि वह कोई बदलाव करें या समाधान निकालें.
इसका मतलब यह है कि इस हफ्ते लागू किए गए अस्थायी उपायों के बावजूद, दिल्ली इतिहास में एक ऐसे महान शहर के रूप में दर्ज हो जाएगा, जो अपने नागरिकों को सांस लेने के लिए मजबूर करने वाली हवा से मर गया. विदेशी पहले से ही दिल्ली में पोस्टिंग से इनकार कर रहे हैं. यह केवल समय की बात है कि भारतीय भी ऐसा ही करने लगेंगे. भले ही लोग अपने स्वास्थ्य के बारे में दार्शनिक हों, लेकिन कोई भी ऐसे शहर में नहीं जाना चाहेगा जहां उनके बच्चों को फेफड़ों की बीमारी और कम जीवन काल का सामना करना पड़े.
धीरे-धीरे, दिल्ली समाप्त हो जाएगी. यह तीसरे दर्जे के राजनेताओं और उदासीन नागरिकों की वजह से खुद ही दम तोड़ देगी.
(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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