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Monday, 4 November, 2024
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PM मोदी भी कभी CM थे, उन्हें संघवाद की परवाह करते हुए अध्यादेश को वापस लेना चाहिए

आप के नियंत्रण वाले एमसीडी, केंद्र द्वारा नामजद एनडीएमसी, गृह मंत्रालय द्वारा तैनात उप-राज्यपाल, भाजपा के सात सांसदों और विभिन्न दलों के नगर पार्षदों को मिलाकर दिल्ली में सत्ता के कई केंद्रों का घालमेल बना हुआ है.

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नई दिल्ली पर जब भी किसी आपदा की मार पड़ती है, एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का हैरत अंगेज़ तमाशा शुरू हो जाता है. ऐसा तब भी हुआ था जब कोविड काल में ऑक्सीज़न का संकट पैदा हो गया था, या जब-जब वायु प्रदूषण बढ़ता है, या 40 साल का रेकॉर्ड तोड़ने वाली भीषण बारिश होती है. हर एक संकट में दिल्ली की आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार और केंद्र की ओर से तैनात उप-राज्यपाल के बीच तू-तू, मैं-मैं होने लगती है. हर बार एक ही सवाल उठता है— दिल्ली किसके अधीन है और जवाबदेही किसकी है? यानी दिल्ली की ठेठ भाषा में कहें तो ‘दिल्ली का बॉस कौन है?’

दिल्ली में हाल में आई बाढ़ में जब यमुना नदी 19वीं सदी वाली अपनी धारा की ओर लौटती हुई लालकिले की दीवारों को छूती हुई बहने लगी तो आप की सरकार ने हरियाणा की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार पर दिल्ली के खिलाफ “साजिश” करने का आरोप उछाल दिया. उसका आरोप था कि हरियाणा ने हथिनीकुंड बैराज से पानी छोड़ कर दिल्ली में “बाढ़ जैसी स्थिति पैदा करने की कोशिश की”.

आप ने स्थिति से निपटने में देरी के लिए दिल्ली के उप-राज्यपाल विनय कुमार सक्सेना और अफसरों पर भी निशाना साधा. जवाब में भाजपा ने आप को “निकम्मेपन” और “भ्रष्टाचार” के लिए दोषी बताते हुए मांग की कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल “माफी मांगें”.

आप के नियंत्रण वाले दिल्ली नगर निगम (एमसीडी), केंद्र द्वारा नामजद एनडीएमसी, गृह मंत्रालय की ओर से तैनात उप-राज्यपाल, भाजपा के सात सांसदों और विभिन्न दलों के नगर पार्षदों को मिलाकर दिल्ली में सत्ता के कई केंद्रों का घालमेल बना हुआ है.

रणक्षेत्र दिल्ली

दो बार भारी बहुमत से सत्ता में आई आप सरकार लंबे समय से उप-राज्यपाल से रस्साकशी में उलझी है. दबंग भाजपा ने दो-दो बार विजयी हुए मुख्यमंत्री केजरीवाल के खिलाफ टकराव का आक्रामक तेवर अपनाए रखा है. भाजपा और आप की यह जंग दिल्ली में फैल गई है. 19 मई को तब यह जंग अपने चरम पर पहुंच गई जब केंद्र ने दिल्ली पर राज करने के सारे अधिकार अपने हाथ में लेने के लिए अध्यादेश जारी कर दिया.

यह अध्यादेश इस सत्ता संघर्ष के मूल मसले, सिविल सेवाओं पर नियंत्रण के सवाल को उजागर करता है.

अध्यादेश से पहले 11 मई को सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि दिल्ली की इस निर्वाचित सरकार को सिविल सेवाओं के लिए नियम बनाने और उन्हें अपने नियंत्रण में रखने का अधिकार है और केंद्र द्वारा नियुक्त उप-राज्यपाल की भूमिका भूमि, पुलिस और सार्वजनिक व्यवस्था के मामलों तक ही सीमित रहेगी. इस आदेश से उत्साहित आप सरकार ने अफसरों का तबादला शुरू कर दिया तो केंद्र सरकार ने दिल्ली की सेवाओं पर नियंत्रण कायम करने के लिए दिल्ली की राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार (संशोधन) अध्यादेश 2023 लागू करके सुप्रीम कोर्ट के आदेश को नाकाम कर दिया. इस तरह उसने दिल्ली को 2015 वाली स्थिति में लौटा दिया, जब सेवाओं पर उप-राज्यपाल का नियंत्रण होता था.

आप ने इसके विरोध में अभियान शुरू कर दिया है और आप के प्रमुख केजरीवाल ने 20 जुलाई से शुरू हो रहे संसद के मॉनसून सत्र में इस अध्यादेश को खारिज करवाने के लिए विपक्षी नेताओं का समर्थन जुटाना शुरू कर दिया. अध्यादेश अब फिर से सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश किया गया है.

आप बनाम उप-राज्यपाल टकराव को बढ़ावा देने के अलावा इस अध्यादेश ने देश के संघीय ढांचे को भी खतरे में डाल दिया है.

संघीय प्रणाली के मूल्यों का उल्लंघन केंद्र सरकार ही नहीं, राज्यों की सरकारें भी अक्सर करती रही हैं. केंद्र के ताजा कदमों का आज विरोध कर रही आप भी संघीय ढांचे को कमजोर करने में पीछे नहीं रही है.

2014 में आंध्र प्रदेश के विभाजन या 2019 में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को रद्द किए जाने का जिन सरकारों और राजनीतिक दलों ने समर्थन किया उन्हें भी संघीय सिद्धांतों पर हमले में शामिल माना जा सकता है. आप ने केंद्र के फरमान के तहत अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने का समर्थन किया था.


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संघीय व्यवस्था का महत्व

इस बात को तो महसूस किया जा रहा है कि नरेंद्र मोदी की अति केंद्रीकृत शासन व्यवस्था से मुक़ाबला करने का एकमात्र रास्ता राजनीतिक संघीय प्रणाली को मजबूत बनाना ही है. लेकिन राज्यों के नेताओं को एक संघीय मोर्चा बनाना काफी कठिन लग रहा है.

संघीय ढांचे का प्रतिनिधित्व कर रहे कई मुख्यमंत्री खुद केंद्र के ‘नंबर वन’ बनने की हसरत पाले हुए हैं. इसलिए उन्हें आपस में सहयोग करने में दिक्कत हो रही है. उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी या तेलंगाना के के. चंद्रशेखर सरीखे ताकतवर मुख्यमंत्री अपना दबदबा बढ़ाने के फेर में हैं और वे ऐसे किसी गठबंधन में शामिल नहीं होना चाहते जिसके सदस्यों से वे अपने राज्य में मुकाबला कर रहे हैं. ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक राज्यों के नेताओं के किसी गठबंधन का हिस्सा बनने से निरंतर इनकार करते रहे हैं. राज्यों के नेता अपने व्यक्तित्व के इर्दगिर्द केंद्रित आधार बनाने के फेर में रहते हैं, जिसके कारण वे एक-दूसरे के प्रति समानता का भाव नहीं रखते.

जो भी हो, इस विशाल और विविधता भरे भारत के लिए संघीय व्यवस्था का दूसरा कोई विकल्प नहीं हो सकता.

भारत तब सबसे ज्यादा प्रगति करता है जब राज्य सरकारों को गिराया नहीं जाता. 1991 से 2014 के बीच जब केंद्र में कई तरह के गठबंधनों की सरकार रही, वैध रूप से निर्वाचित बहुत कम मुख्यमंत्री को गद्दी से हटाया गया और इसने सकल आर्थिक वृद्धि का वातावरण बनाया.

रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर वाई.वी. रेड्डी कह चुके हैं कि गठबंधन सरकारें बहुमत वाली सरकारों के मुकाबले बेहतर आर्थिक वृद्धि देती हैं.

इसलिए ज़रूरी है कि एकजुट विपक्ष केंद्र द्वारा दिल्ली के लिए लागू किए गए अध्यादेश को खारिज करवाए. इसके कारण स्पष्ट हैं.

पहला यह कि संविधान के अनुच्छेद 1 में साफ कहा गया है कि ‘इंडिया, यानी भारत राज्यों का एक संघ होगा’, यानी भारत एकात्मक नहीं बल्कि एक संघीय व्यवस्था है.

दरअसल, एक मुख्यमंत्री रह चुके नरेंद्र मोदी को तो संघीय सिद्धांतों की कहीं ज्यादा पैरवी करनी चाहिए. आखिर, गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में वे केंद्र द्वारा भेदभाव की अक्सर शिकायत करते रहते थे.

दूसरे, तमाम राज्यों में संघीय व्यवस्था अस्तव्यस्त हाल में है. तमिलनाडु में केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल ने मुख्यमंत्री के खिलाफ खुली जंग छेड़ रखी है. पश्चिम बंगाल में राज्यपाल पर अड़चनें डालने के आरोप लगाए जा रहे हैं, महाराष्ट्र में पिछले साल राज्यपाल को उद्धव ठाकरे की एमवीए सरकार को गिराने में मदद करते हुए देखा गया.

तीसरे, मजबूत राज्य भारत की गहरी भाषायी तथा सांस्कृतिक विविधता को प्रतिबिंबित करने के सबसे अच्छे प्रतीक हैं. चौथे, अगर निर्वाचित सरकारें स्वायत्तता से काम नहीं कर सकतीं तो नागरिक अधिकारों से वंचित हो जाते हैं क्योंकि वे अपनी रोजाना की परेशानियों के लिए किसी को जवाबदेह नहीं ठहरा सकते. इसलिए लोगों की प्रभुसत्ता संघीय सिद्धांतों पर अमल करके ही कायम रखी जा सकती है.

जब हम सवाल करते हैं कि दिल्ली का बॉस कौन? तब जवाब सीधा और सरल है— दिल्ली का बिग बॉस नागरिक है. जवाबदेही उन्हीं की होती है जो शासन कर रहे हैं, जो जनता के प्रतिनिधि हैं, या जो निर्वाचित सरकार है. दिल्ली में आई बाढ़ का सबक यही है कि संकट में निर्वाचित प्रतिनिधियों को ही तेज़ी से काम करने और ज़रूरतमंदों के लिए प्रभावी शासन देने का अधिकार दिया जाए. वरना यमुना की उफनती लहरें सुशासन पाने के नागरिकों के अधिकार को बहा ले जाएंगी क्योंकि किसी को जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकेगा.

(सागरिका घोष पत्रकार, स्तंभकार, और लेखिका हैं. हाल में उनकी दो पुस्तकें आई हैं— ‘इंदिरा, इंडियाज़ मोस्ट पावरफुल प्राइम मिनिस्टर’ (जग्गरनॉट) और ‘अटल बिहारी वाजपेयी, इंडियाज़ मोस्ट लव्ड प्राइम मिनिस्टर’ (जग्गरनॉट). यहां व्यक्त निजी विचार हैं.)

(संपादन : आशा शाह)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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