अपने क्रिकेट करियर के दौरान गौतम गंभीर को अपने विरोधियों के खिलाफ स्लेजिंग (छींटाकशी) करना पसंद था. अपने नए अवतार – पूर्वी दिल्ली से सांसद – के रूप में शुक्रवार को उन्हें खुद इसका स्वाद चखना पड़ा.
दिल्ली में प्रदूषण पर एक संसदीय समिति की बैठक से अनुपस्थित रहते हुए वह इंदौर में वीवीएस लक्ष्मण के साथ जलेबी और पोहे उड़ा रहे थे, और इस बात पर उनके राजनीतिक विरोधी उनका कीमा बना रहे थे. वह भारत-बांग्लादेश मैच की कमेंट्री करने के लिए इंदौर गए थे. आप उन्हें एक बार फिर क्रीज़ से बाहर बल्ला घुमाने का दोषी ठहरा सकते हैं क्योंकि उन्होंने दलील दी कि उनको अपना ‘परिवार भी तो चलाना है’.
सांसद के रूप में उनके बैंक खाते में हर महीने जमा होने वाले वेतन – 1.89 लाख रुपये – और भविष्य में मिलने वाली मासिक पेंशन – 25,000 रुपये – को देखते हुए गंभीर को शायद अतिरिक्त आय की ज़रूरत हो. पर ऐसा कहना राजनीतिक रूप से सही नहीं होगा. एक सांसद से त्यागी होने की उम्मीद की जाती है. उससे अपना पूरा जीवन जनसेवा के लिए समर्पित करना चाहिए, लेकिन अपने या अपने परिवार के जीवनयापन के वास्ते धन कमाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए. जनता की ऐसी अपेक्षाओं के मद्देनज़र आश्चर्य नहीं कि लोकसभा में करोड़पतियों का वर्चस्व है.
सांसद और जादू की छड़ी
यदि पूरे मामले पर विचार करें तो समिति को विधिवत सूचित किए बिना प्रदूषण संबंधी बैठक में अनुपस्थित रहने को कहीं से उचित नहीं ठहराया जा सकता है. यदि गंभीर इसमें शामिल हुए होते तो कम-से-कम उनके विरोधी राहत की सांस नहीं ले पाते. खब्बू बल्लेबाज़ को ये पता होना चाहिए था कि मौजूदा राजनीति प्रतीकात्मकता और दिखावे की है, वास्तविकता की नहीं.
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लोगों की नज़रों में उनके विधायक और सांसद जादू की छड़ी वाले सर्वशक्तिमान व्यक्ति होते हैं. हालांकि, उनकी सार्वजनिक छवि गुलज़ार की 1975 की फिल्म ‘आंधी’ के बाद से ज़्यादा नहीं बदली है: ‘सलाम कीजिए आली जनाब आये हैं, पांच सालों का देने हिसाब आये हैं… ये जादूगर हैं चुटकी में काम करते हैं, ये भूख प्यास को बातों से रम करते हैं.’ सच्चाई ये है कि सांसद और विधायक आज भले ही सदाचार के प्रतिमान नहीं हों, लेकिन अपने मतदाताओं के प्रति अधिक उत्तरदायी हैं.
लेकिन उनके पास जादू की छड़ी नहीं है. गंभीर या दिल्ली के किसी अन्य सांसद से पूछें कि क्या केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को कभी उनके साथ दिल्ली में प्रदूषण के मुद्दे पर चर्चा करने का समय मिला. या फिर, क्या अरविंद केजरीवाल ने अपने विधायकों से सलाह-मशविरा किया कि उनके पास ऑड-ईवन नीति से बेहतर कोई समाधान तो नहीं है? नहीं.
गंभीर के विस्मित होने को शायद गैरवाजिब नहीं कहा जा सकता: यदि संसदीय समिति में भाग लेना इतना महत्वपूर्ण था, तो इस वर्ष जब पूरे बजट सत्र के दौरान लोकसभा या राज्यसभा ने इन स्थाई समितियों का गठन नहीं किया, तो कोई हंगामा क्यों नहीं मचा था? साधारण विधेयकों की तो बात ही छोड़ें, किसी संसदीय समिति ने बजट तक की पड़ताल नहीं की.
बात बिल्कुल सरल है. लोगों ने मोदी को चुनने के लिए वोट दिए थे, और सांसद इस कार्य में माध्यम मात्र थे. इसलिए क्या हुआ जो वे नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा पूर्वनिर्धारित फैसलों की छानबीन नहीं कर पाते हैं.
स्थाई समितियों की खत्म होती प्रासंगिता?
यदि सत्तारूढ़ भाजपा इन समितियों को इतनी गंभीरता से लेती, तो वो विशेषज्ञता वाले लोगों को इनके प्रमुखों के रूप में नामित करती. इसके बजाय उसने जनजातीय मामलों के पूर्व मंत्री जुएल ओराम को रक्षा विभाग से संबंधित स्थाई समिति का प्रमुख नामित किया, जबकि पूर्व कृषि मंत्री राधामोहन सिंह रेलवे पर समिति की अध्यक्षता कर रहे हैं और कानून एवं कॉरपोरेट मामलों के पूर्व राज्य मंत्री पी.पी. चौधरी विदेश मामलों की समिति को संभाल रहे हैं.
उल्लेखनीय है कि 1993 में पहली बार गठित किए जाने के बाद से ही विभागों से संबंधित स्थायी समितियों का कानून बनाने में बहुत योगदान रहा है, हालांकि उनकी रिपोर्ट सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं होती हैं. पर विरोधाभास ये है: कार्यपालिका जितनी अधिक मजबूत और स्थिर होती है, ऐसी समितियां और सांसद उसी हिसाब से अप्रासंगिक और कमजोर बन जाते हैं. 16वीं लोकसभा में छानबीन के लिए इन समितियों को भेजे गए विधेयकों की संख्या सिर्फ 25 प्रतिशत थीं, जबकि 15वीं लोकसभा में ये अनुपात 71 प्रतिशत और 14वीं में 60 प्रतिशत का रहा था.
आसान नहीं है सांसद का जीवन
गंभीर जब भी किसी विधेयक पर बोलने की सोचेंगे, तब उन्हें एक सांसद की सीमाओं का भी अहसास होगा. चाहे जो भी कह लें – और अपनी जोखिम पर विरोध करें – पर आप सांसद बने रहना चाहते हैं तो आपको अपनी पार्टी के सचेतक के आदेश का पालन करना होता है और पार्टी की इच्छानुरूप ‘आय’ या ‘नो’ कहना होता है. यदि कोई स्वतंत्र इच्छा से प्रेरित है, तो निश्चित ही उसके लिए एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में दोबारा चुने जाने का विकल्प है.
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एक सांसद के रूप में गंभीर के पास निजी सदस्य विधेयक के रूप में कानून का प्रस्ताव करने का भी विशेषाधिकार है. बशर्ते वह इस तथ्य से नहीं घबराएं कि स्वतंत्रता के बाद से केवल 14 ऐसे विधेयकों को संसद की मंजूरी मिली है.
सांसद होने के नाते उनके अन्य कई अधिकार और विशेषाधिकार भी हैं, जिनमें सवाल पूछना, सार्वजनिक महत्व के मामलों को उठाना, उन पर स्थगन प्रस्ताव लाना आदि-आदि. लेकिन उन अधिकारों का इस्तेमाल करते समय उन्हें सावधान रहना होगा. राहुल गांधी के दादा फिरोज गांधी अपने ससुर जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते लोकसभा में एलआईसी-मुंद्रा घोटाला उठा सके थे. इसके चलते तत्कालीन वित्त मंत्री टी. टी. कृष्णमचारी को इस्तीफा देना पड़ा था.
आज का दौर कुछ अलग है. गंभीर की तरह ही क्रिकेटर से नेता बने भाजपा के पूर्व सांसद कीर्ति आज़ाद ने तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली पर आरोप लगाए थे. आज वह विपक्षी कांग्रेस में अपनी उपयोगिता साबित करने की मशक्कत कर रहे हैं.
अपनी सफाई में गंभीर ने शुक्रवार को कहा कि उनके निर्वाचन क्षेत्र के लोग उनके काम से उनका मूल्यांकन करेंगे. वास्तव में ये एक महत्वाकांक्षी बयान है. यदि वे अपने साथी सांसदों के बात करें तो उनमें से बहुतों को परेशान और क्रोधित पाएंगे क्योंकि मंत्रियों से, बशर्ते वे मिलने में सफल रहे तो, उन्हें आश्वासनों के सिवा कुछ नहीं मिलता है – जिनसे उनके निर्वाचन क्षेत्रों के मतदाता पहले ही पक चुके हैं. गंभीर एमपीलैड्स कार्यक्रम के तहत अपने निर्वाचन क्षेत्र में सालाना 5 करोड़ रुपये तक के विकास कार्यों की सिफारिश कर सकते हैं, लेकिन इस कोष के इस्तेमाल का रिकॉर्ड बहुत प्रेरणादायक नहीं है.
गंभीर को शायद शीघ्र ही पता चल जाएगा कि राजनीतिक जीवन कितना कठिन होता है, भले ही फिल्मों में सांसदों और विधायकों को कितना भी प्रभावशाली दिखाया जाता हो.
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